– गिरीश्वर मिश्र
भारतीय प्रायद्वीप में संस्कृति के विकास की कथा की व्यापकता और गहनता का विश्व में कोई और उदाहरण नहीं मिलता न ही वैसी जिजीविषा का ही कोई प्रमाण मिलता है। नाना प्रकार के झंझावातों को सहते हुए भी यदि हजारों वर्ष बाद भी वह आज जीवित है तो यह उसकी आन्तरिक प्राणवत्ता के कारण ही सम्भव है। यह विकट सांस्कृतिक यात्रा जिस पाथेय के भरोसे सम्भव होती रही वह निश्चय ही संस्कृत भाषा है। इसके विपुल और विविधतापूर्ण साहित्य की गरिमा को बनाये रखने की आवश्यकता को प्राय: भुला दिया जाता है। इसका कारण हमारी अज्ञानता और भ्रम है जो उस अपरिचय के कारण है जो हमें अपनी शिक्षा से मिलता रहा है। परन्तु परिचय न होने के कारण भ्रम ही सत्य का रूप ले लेता है।
अंग्रजों ने जो पाठयक्रम और पद्धति स्थापित की उसमें भारत, भारतीयता और यहाँ की अपनी स्थानीय ज्ञान परम्परा को ध्यानपूर्वक बाहर कर दिया गया और उसके अवैज्ञानिक, परलोकवादी तथा अनावश्यक करार देते हुए मुख्य धारा से परे धकेल दिया गया। वह संग्रह और अनुष्ठानों के लिए आरक्षित कर दी गई। वह ‘देव- वाणी’ मनुष्य के लिए वर्जित अजूबा बना दी गई । यह सब आम आदमी के मन में संस्कृत भाषा के विषय में मिथ्या प्रवाद के लिये पर्याप्त था।
हम संस्कृत को अनौपचारिक अवसरों यथा जीवन- संस्कार, पूजन , उद्घाटन और स्मापन के लिये औपचारिक महत्व देते रहे पर सक्रिय जीवन की देहरी के पार ही बैठाते रहे। हमारे पास यह अवकाश नहीं रहा कि हम इस अमूल्य विरासत का मूल्य समझ पाते। शिक्षा, परिवार, राज नय , व्यवसाय, वाणिज्य, स्वास्थ्य , प्रकृति, जीवन, जगत और ईश्वर को लेकर उपलब्ध चिन्तन बेमानी बना रहा । हम सब वेद, वेदांग, पुराण, स्मृति, साहित्य, व्याकरण, आयुर्वेद, दर्शन, नाट्यशास्त्र, काम शास्त्र, अर्थ शास्त्र, योग शास्त्र , ज्योतिष, रामायण, महाभारत, श्रीमद भागवत आदि का नाम तो सुनते रहे पर बिना श्रद्धा के और उनके प्रति मन में संदेह और दुविधा पालते रहे। इसलिए इनके अध्ययन और उपयोग की प्रक्रिया बाधित और विशृंखलित हुई । दूसरी ओर इनसे बाद पनपे पश्चिमी जगत के आधुनिक ज्ञान विज्ञान के प्रति सहज श्रद्धा से अभिभूत हो अपनाते गए, बिना यह देखे-जांचे कि उसका स्वरूप और लाभ कितना है। उसकी सांस्कृतिक घुसपैठ ने हमारा नजरिया और विश्व दृष्टि को ही बदलना शुरू किया। आज भौतिकता और उपभोक्तावाद की अति के खतरनाक परिणाम सबके सामने हैं। पूरा विश्व त्रस्त हो रहा है।
भारत में अकादमिक समाजीकरण की जो धारा बही उसमें हमारी सोच परमुखापेक्षी होती गई और हमारे लिये ज्ञान का संदर्भ विन्दु पश्चिमी चिन्तन होता गया। ज्ञान के लिये पूरी परनिर्भरता स्थापित होती गई। हम उन्हीं की विचार-सरणि का अनुगमन करते रहे और श्रम, समय और संसाधन बहुत कुछ निरुद्देश्य नकल करने में ही जाता रहा। ज्ञान की राजनीति से बेखबर या उसमें फस कर हम ज्ञान में किसी तरह के नए उन्मेष से वंचित होते गए। पश्चिम के पीछे अनुधावन में हमारी व्यस्तता के बाद मौलिकता और सृजनात्मकता के लिए अवकाश ही नहीं बचता है। ऐसे में जो शोध के नाम पर होता है वह न पश्चिमी दुनिया के काम का होता है न अपने काम का। इस तरह का अतिरिक्त और अनावश्यक मानसिक भार के साथ शोध और अनुसन्धान की कोशिश प्राय: व्यर्थ ही सिद्ध हुई है।
उपर्युक्त पृष्ठभूमि में संस्कृत भाषा और साहित्य एक ऐसा स्रोत प्रतीत होता है जिसकी संभावनाओं पर विचार किया जाना चाहिए। कहना न होगा कि संस्कृत भारत की अनेक भाषाओं की जननी है और अनेक स्तरों पर उसकी उपस्थिति हमारे व्यवहार के चेतन और अचेतन स्तर पर बनी हुई है। भाषा, समाज और व्यवहार के अंतर्संबंध व्यापक महत्व रखते हैं। अत: इनके बल पर समाज और व्यक्ति के विचारों और व्यवहारों की कोटियों और उनके अंतर्संबंधों को तलाशने की कोशिश होनी चाहिए। शास्त्रीय चिन्तन को समझना और उसका उपयोग विभिन्न क्षेत्रों में व्यावहारिक समाधान में उपयोगी होगा।
योग और आयुर्वेद को लेकर उत्सुकता बढ़ी है पर अन्य क्षेत्र अभी भी उपेक्षित हैं। साथ ही संस्कृत के ज्ञान से वे भ्रम भी दूर होंगे जो कई क्षेत्रों में फैल रहे हैं, जैसे योग को मात्र आसन और व्यायाम मान लेना। ज्ञान की भाषा के रूप में यदि अंग्रेजी पढ़ाई जाती है तो संस्कृत के लिये भी यह अवसर मिलना चाहिए। इससे ज्ञान अर्जित करने के लिये अवसर बढ़ेंगे और संस्कृति से अपरिचय और उससे उत्पन्न भ्रम भी दूर होगा। भाषा की दृष्टि से सहज और नियमबद्ध होने से संस्कृत को सीखना सरल भी है और उसका लाभ अन्य भाषाओं को सीखने में भी मिलेगा। संस्कृत समझना और बोलना भारतीय संस्कृति को आत्मसात करने और समृद्ध करने के लिये अर्थात हमारे आत्मबोध के लिये अनिवार्य है। इसे शिक्षा में आरंभ से ही स्थान मिलना चाहिए।
(लेखक महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)
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