– कुलभूषण उपमन्यु
वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन ने अपना क्रूर चेहरा दिखाना शुरू कर दिया है। हिमाचल प्रदेश में जुलाई में 200 प्रतिशत से ज्यादा बारिश हो चुकी है। यही हाल उत्तराखंड का है। हिमाचल प्रदेश के मंडी, कुल्लू, चंबा, शिमला, सिरमौर में जान-माल की अप्रत्याशित तबाही दिल दहला देने वाली है। मृतकों की संख्या लगातार बढ़ रही है है। जगह-जगह लोग प्रकृति के क्रोध के शिकार हो कर असहाय अनुभव कर रहे हैं। सरकार मरहम लगाने की कोशिश कर रही है। किन्तु साल दर साल बढ़ती बाढ़ की विभीषिका कई सवाल खड़े कर रही है। सवाल यह है कि जलवायु परिवर्तन के असर की भविष्यवाणी तो कई सालों से की जा रही है तो हिमालय जैसे नाजुक पर्वत क्षेत्र में उचित सावधानियां क्यों नहीं उठाई गई हैं।
सैकड़ों पर्यटक जगह-जगह फंसे हुए हैं। ईश्वर का शुक्र है कि सब सुरक्षित हैं। सरकार भी उनकी समस्याओं के प्रति संवेदनशील हो कर कार्रवाई कर रही है किन्तु बरसात में पर्यटन को किस तरह दिशा-निर्देशित किया जाना चाहिए इस बात की कमी खलती है। पर्यटन सूचना केन्द्रों का नेटवर्क सक्रिय होना चाहिए जो बरसात के खतरों से अवगत करवाए। मंडी में हुई तबाही के पीछे लारजी और पंडोह बांधों से अचानक छोड़ा गया पानी भी जिम्मेदार माना जा रहा है। बांधों के निर्माण के समय बाढ़ नियंत्रण में बांधों की भूमिका का काफी प्रचार किया जाता रहा है किन्तु देखने में तो उल्टा ही नजर आ रहा है। बांधों से अचानक और बड़ी मात्रा में छोड़ा जा रहा पानी ही अप्रत्याशित बाढ़ का कारण बनता जा रहा है। बरसात से पहले बांधों में बाढ़ का पानी रोका जा सके, इसके लिए बांधों को खाली रखा जाना चाहिए किन्तु अधिक से अधिक बिजली पैदा करने के लिए बांध भरे ही रहते हैं। बरसात आने पर पानी जब बांध के लिए खतरा पैदा करने के स्तर तक पंहुचने लगता है तो अचानक इतना पानी छोड़ दिया जाता है जितना शायद बिना बांध के आई बाढ़ में भी न आता। इन मुद्दों की निष्पक्ष जांच होनी चाहिए और बांध प्रशासन को निर्देशित किया जाना चाहिए। बांधों की बाढ़ नियन्त्रण भूमिका को सक्रिय किया जाना चाहिए।
दूसरी बड़ी गडबड़ी सड़क निर्माण में हो रही लापरवाही से भी हो रही है। निर्माण कार्य में निकलने वाले मलबे को निर्धारित स्थानों, डंपिंग स्थलों में न फेंक कर यहां वहां फेंक दिया जाता है और वही मलबा बाढ़ को कई गुणा बढ़ाने का कारण बन जाता है। मलबा जब एक बार नीचे ढलानों पर खिसकना शुरू हो जाता है तो अपने साथ और मलबा बटोरता जाता है, जिससे भारी तबाही का मंजर नजर आता है। नदी-नालों में जब यह मलबा पहुंचता है तो नदी का तल ऊपर उठ जाता है और वह क्षेत्र जो पहले कभी बाढ़ की जद में नहीं आए थे वह भी अब बाढ़ की जद में आ जाते हैं। सड़क निर्माण में जल निकासी का भी ध्यान नहीं रखा जाता है। सड़क किनारे बनाई गई नालियों से जल एकत्र हो कर कहीं एक जगह छोड़ दिया जाता है जो भू-कटाव को बढ़ने का कारण बनता है।
सड़क निर्माण विधिवत पर्वतीय दृष्टिकोण से कट एंड फिल तकनीक से किया जाना चाहिए। पहाड़ों में सड़क के विकल्पों पर भी सोचा जाना चाहिए। सड़क तो जीवन रेखा है, किन्तु जीवन रेखा यदि जीवन को ही लीलने लग जाए तो सोचना पड़ेगा कि गड़बड़ कहां हो रही है। सड़क के विकल्प के रूप में मुख्य मार्गों से लिंक सड़कों के बजाय उन्नत तकनीक के रज्जू मार्ग बनाए जा सकते हैं। किन्तु इस दिशा में सरकारों ने सोचना ही शुरू नहीं किया है। हां पर्यटन आकर्षण के रूप में कुछ-कुछ जगहों में रज्जू मार्ग बने हैं। उनके अनुभव से सस्ती और टिकाऊ यातायात सुविधा निर्मित की जा सकती है। फिलहाल जब यह बात उजागर हो गई है कि मलबा डंपिंग की भूमिका भूस्खलन बढ़ाने में मुख्य है तो सरकार का यह फर्ज बनता है कि इसका सुओ-मोटो संज्ञान ले कर जहां-जहां नुकसान हुआ है वहां तकनीकी जांच करवाई जाए। राष्ट्रीय राजमार्गों के मामले में चीफ विजिलेंस अफसर को जांच के लिए कहना चाहिए।
साल 1994 में भागीरथी के तट पर, जब टिहरी बांध विरोधी आन्दोलन चल रहा था तब हिमालय बचाओ आन्दोलन का घोषणा पत्र जारी हुआ था। इसकी मुख्य मांग थी कि हिमालय की नाजुक परिस्थिति के मद्देनजर हिमालय के लिए विकास की विशेष प्रकृति मित्र योजना बनाई जाए। योजना आयोग के डॉ. एसजेड कासिम की अध्यक्षता में बनाई गई विशेष समिति ने भी 1992 में इसी आशय की रिपोर्ट जारी की थी किन्तु उस पर भी कोई अमल नहीं हुआ। पर्वतीय क्षेत्रों के लोग लगातार विकास के नाम पर चल रही अंधी दौड़ के विरोध में अपनी आवाज बुलंद करते रहे हैं किन्तु सरकारों और तकनीकी योजना निर्माताओं के कानों में जूं भी नहीं रेंगती है।
एक अच्छा बहाना इन लोगों को मिल जाता है कि प्रकृति के आगे हम क्या कर सकते हैं, किन्तु इन लोगों को पूछा जाना चाहिए कि प्रकृति को इतना मजबूर करने का आपको क्या हक है कि प्रकृति बदला लेने पर उतारू हो जाए। हालांकि इस विषय पर चर्चा तो सरकारी क्षेत्रों में चलती रहती है, वर्तमान सरकार में भी नीति आयोग द्वारा हिमालयी क्षेत्र में विकास की दिशा तय करने के लिए रीजनल काउंसिल का गठन किया गया है, किन्तु अभी तक इस संस्था की कोई गतिविधि सामने तो नहीं आई है। अब समय है कि सब नींद से जागें और हिमालय में विकास की गतिविधियों को प्रकृति मित्र दिशा देने का प्रयास करें। हमें सोचना होगा कि हिमालय में होने वाली कोई भी पर्यावरण विरोधी कार्रवाई पूरे देश के लिए हिमालय द्वारा दी जाने वाली पर्यावरणीय सेवाओं से वंचित करने वाली साबित होगी।
(लेखक, पर्यावरणविद्, जल-जंगल-जमीन के मुद्दों के विशेषज्ञ हैं।)
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