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नक्सलवादी कम्युनिस्टों के विरुद्ध आरपार की लड़ाई

April 09, 2021

-तरुण विजय

विश्व में शायद ही कोई विचारधारा इतनी क्रूर, बर्बर और अमानुषिक होगी, जितनी कम्युनिस्ट विचारधारा है। यद्यपि पिछली अनेक शताब्दियों में करोड़ों लोग मध्य पूर्व एवं पश्चिमी देशों में ईसाई धर्मयुद्धों यानी क्रूसेड और इस्लामिक जिहादों में मारे गए, पर कम्युनिस्ट विचारधारा यानी साम्यवाद के नाम पर स्टालिन और माओ के समय दस करोड़ से अधिक लोगों को क्रूरता पूर्वक मारने का एक खौफनाक रिकॉर्ड बना। कंबोडिया के कम्युनिस्ट शासक पोल पोट ने तो अपने देश की एक चौथाई आबादी को नरसंहार का शिकार बनाकर समाप्त कर दिया। पोल पोट ने देश के उन लोगों को, जो कम्युनिस्ट विचारधारा स्वीकार करने से इन्कार करते थे, तड़पा-तड़पा कर मारने का एक ऐसा वृत्त निर्मित किया, जिसका और कोई उदाहरण नहीं मिलता।

एक समय कम्युनिस्ट विचारधारा पंजाब से लेकर बंगाल और त्रिपुरा से लेकर केरल तक अनेक राज्यों में काफी प्रभावी रही, लेकिन शनै: शनै: और विशेषकर सोवियत संघ के विघटन के बाद भारत में कम्युनिस्ट विचारधारा की राजनीति खंडहर में तब्दील होती गई और अब वह केरल एवं बंगाल के कुछ नगण्य कोनों-किनारों में ही दिखती है, फिर भी यह विचारधारा आज भी पत्रकारिता, लेखन, छात्रसंघों, राजनीति में सक्रिय है। इसका ही एक हिस्सा नक्सली संगठनों के रूप में अराजकता और आतंकवाद फैलाने में सक्रिय है।

बीते तीन अप्रैल को छत्तीसगढ़ के बीजापुर क्षेत्र में कम्युनिस्ट विचारधारा को मानने वाले नक्सलियों ने 22 सुरक्षा सैनिकों की जो कायराना हत्या की, वह कोई नई घटना नहीं है। पिछले कई दशकों से नक्सली भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बने हुए हैं। 1960 के आसपास नक्सलवाद बंगाल में प्रारंभ हुआ और चीन का चेयरमैन- हमारा चेयरमैन नारे से बंगाल की दीवारें रंग दी गईं। उस समय कांग्रेस के सिद्धार्थ शंकर राय मुख्यमंत्री थे। उन्होंने बहुत कठोरता पूर्वक नक्सलवाद को समाप्त किया। वह बंगाल में भले ही जड़हीन हुआ हो, परंतु शेष देश में उसके 26 से अधिक छोटे-बड़े कुकुरमुत्ते संगठन उभर कर आए। इनमें सबसे बड़ा संगठन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) है, जो 21 सितंबर, 2004 को स्थापित हुआ। इसमें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी-लेनिनवादी) पीपुल्स वॉर ग्रुप और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर ऑफ इंडिया (एमसीसी) सम्मिलित हुए। तब से लेकर अब तक नक्सलियों ने 12,000 से अधिक भारतीय नागरिकों और जवानों की क्रूर हत्याएं की हैं। इनमें केवल जवानों की संख्या ही 2700 से अधिक है।

गृह मंत्रालय के अनुसार 9,300 से अधिक जिन नागरिकों की नक्सलियों ने हत्या की, वे बर्बरता और क्रूरता में माओ और पोल पोट की ही विचाररेखा पर की गई हत्याएं हैं। नक्सली 12-13 साल के बच्चों को जबर्दस्ती अपने गुट में शामिल कर लेते हैं। जो माता-पिता अपने बच्चों के अपहरण के खिलाफ आवाज उठाते हैं, उन्हेंं उनके बच्चों के सामने ही तड़पा-तड़पा कर मारने के उदाहरण नक्सली प्रस्तुत करते रहते हैं, ताकि उस क्षेत्र में दहशत फैल जाए।

छत्तीसगढ़ में इस प्रकार के लगभग 12 छात्रावास चल रहे हैं, जिनमें नक्सलियों द्वारा मार डाले गए लोगों के अनाथ बच्चे सरकारी सहायता से पोषित किए जा रहे हैं। क्रूरता की हद यह है कि नक्सली जिन महिलाओं को अपने गिरोहों में भर्ती करते हैं, उनका दैहिक शोषण भी करते हैं। नक्सली हिंसा के शिकार सैकड़ों बच्चे आज तक राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान आकृष्ट नहीं कर पाए हैं। दुर्भाग्य से भारतीय मीडिया के एक वर्ग में नक्सलियों के प्रति एक सहानुभूति का वातावरण मिलता है। इस वर्ग के अनुसार ये लोग गरीबी के खिलाफ लड़ रहे हैं या फिर सर्वहारा के सैनिक हैं।

अरुंधती राय जैसे लोग उन्हें बंदूकधारी गांधीवादी बताते हैं। मीडिया का यह वर्ग सुरक्षा बलों पर आघात की भी चिंता नहीं करता। गृह मंत्रालय ने अपनी वेबसाइट पर जिसे वामपंथी अतिवाद कहा है, उसे सीधे-सीधे कम्युनिस्ट आतंकवाद कह कर ही समझा जा सकता है। वाम झुकाव वाला अतिवाद कह कर भ्रम की स्थिति पैदा नहीं करनी चाहिए। यह सीधे-सीधे कम्युनिस्ट विचारधारा को मानने वाले देशद्रोही तत्वों का आतंकवाद है और उसी दृष्टि से इसका अंत किया जाना चाहिए।

प्रतिवर्ष तीन हजार करोड़ रुपये से अधिक की राशि नक्सली आतंकवाद का सामना करने के लिए खर्च की जाती है। यह आतंकवाद चीन तथा पाकिस्तान के हमलों से कम नहीं है। पूर्ण घोषित युद्धों से अधिक संख्या में नागरिक और जवान नक्सलियों द्वारा मारे गए हैं। नक्सली आतंकवाद से प्रभावित तीस ऐसे जिले हैं, जिन्हेंं सघनतम आतंक ग्रस्त माना जाता है। अकेले इन जिलों पर 2148.24 करोड़ रुपये की राशि खर्च की गई।

यदि हम नक्सलियों के पिछले इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो 2010 से लेकर 2020 तक एक भी वर्ष ऐसा नहीं गया, जिसमें नक्सली संगठनों ने बड़ी संख्या में सुरक्षा जवानों और नागरिकों की हत्याएं न की हों। विडंबना यह है कि भारत के अनेक साहित्यकार, लेखक, पत्रकार खुलेआम उनके पक्ष में लिखते हैं। 2006 में गृह मंत्रालय ने एक विशेष कम्युनिस्ट आतंकवाद केंद्रित प्रकोष्ठ बनाया था, जिसे बौद्धिक आवरण देने के लिए वामपंथी अतिवाद खंड कहा गया। औपचारिक रूप से इसकी स्थापना 19 नवंबर, 2006 में की गई। 14 वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन समस्या कम होने का नाम नहीं ले रही है। हालांकि गृह मंत्रालय के ताजा आंकड़ों के अनुसार नक्सलवाद के व्याप में 25 प्रतिशत की कमी आई है, लेकिन जिस घर का सुरक्षा जवान शहीद होता है, उसकी ओर से यह तो पूछा ही जाता है कि भारत के भीतर ही भारत के शत्रुओं से लड़ते हुए उनके जवान क्यों शहीद हो रहे हैं?

कम्युनिस्ट विचारधारा ने हमेशा भारत और भारतीयता के विरुद्ध काम किया है। 1962 के युद्ध के समय भी कम्युनिस्ट पार्टी ने चीन का साथ दिया था। तब पं. नेहरू ने 250 से अधिक कम्युनिस्ट नेताओं पर देशद्रोह के मुकदमे चलाए थे। 1964 में कांग्रेस सरकार ने लोकसभा में कम्युनिस्ट देशद्रोही कार्यों पर एक श्वेत पत्र जारी किया था। इसमें भारत में कम्युनिस्टों की देश विरोधी गतिविधियों की जानकारी दी गई थी। समय आ गया है कि नक्सलवाद रूपी जो कम्युनिस्ट आतंकवाद छत्तीसगढ़, आंध्र, ओडिशा आदि राज्यों में सक्रिय है, उसे जड़ से समाप्त किया जाए।

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं )

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