– गिरीश्वर मिश्र
औपचारिक शिक्षा और सृजनात्मकता के आपसी सम्बन्ध समाज के वर्तमान और भविष्य के निर्माण के साथ गहनता से जुड़े हुए हैं । शिक्षा में सृजनात्मकता कितनी बची रहेगी और समाहित होगी इस बात पर देश का ही नहीं बल्कि सारी मनुष्यता का भविष्य निर्भर करता है। शिक्षा सृजनात्मकता के साथ शब्द और अर्थ की ही तरह आपस में जुड़ी हुई है । जैसे शब्द और अर्थ एक दूसरे से संपृक्त होते हैं, एक के बिना दूसरे का कोई मूल्य या उपयोगिता नहीं होती, ठीक वैसी ही शिक्षा और सृजनात्मकता भी एक दूसरे से जुड़े और अन्योन्याश्रित होते हैं। बगैर सृजनात्मकता के शिक्षा अर्थहीन होगी और सृजनात्मकता के विकास के लिए शिक्षा और प्रशिक्षण का अवसर भी ज़रूरी होता है। इसलिए शिक्षा की सार्थकता के लिए उसका रचनात्मक और सृजनात्मकता होना ही चाहिए । किंतु जब हम शिक्षा-व्यवस्था में सृजनात्मकता की जगह तलाशते हैं तो विफलता ही हाथ लगती है। रटना और उसे परीक्षा में पुनरुत्पादित कर देना ही शिक्षा का परम लक्ष्य बन चुका है।
इस दृष्टि से सोचने पर आज की औपचारिक शिक्षा की वास्तविकता पर विचार चिंता पैदा करने वाला होता जा रहा है। तथ्य यही है कि शिक्षा और सृजनात्मकता के बीच की कड़ी सामान्य शिक्षा केंद्रों में बहुत क्षीण अथवा कमजोर होती जा रही है। हम जो शिक्षा व्यवस्था देख रहे हैं, जिसमें जी रहे हैं उसमें ज़्यादातर जगहों पर सृजनात्मकता का कोई अंश ढूँढे नहीं मिल रहा है। यह अलग बात है और जिस पर गौर किया जाना चाहिए कि तो भारत और अन्यत्र भी रचनाशील लोगों को औपचारिक शिक्षा कोअक्सर रास नहीं आती है। ऐसे लोगों ने बीच में ही छोड़ दिया जिनके भीतर तीव्र रचनात्मकता थी। उनको स्कूली व्यवस्था रास नहीं आयी। ऐसा इसलिए था क्योंकि औपचारिक शिक्षा व्यवस्था एक औपनिवेशिक दृष्टि की उपज थी । इस तथ्य से भी कोई इनकार नहीं कर सकता कि इस शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य अंग्रेज़ी राज के लिए बाबू यानी क्लर्क तैयार करना था। इसलिए सबसे पहले आत्मबोध को खंडित किया गया और धीरे-धीरे उसे विस्मृति के अंधे कुएं में डाल दिया गया। जिसका परिणाम है कि किसी चीज अथवा प्रत्यय का भारतीय होना हीन माना जाने लगा। यहां तक कि जब तक विदेश की मुहर न लग जाए तबतक उसे स्वीकार न करने का ही चलन बन गया। हमारे मन में ‘भारतीय’ के लिए व्यर्थता बोध भरता चला गया।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि शिक्षा का अर्थ परिष्कार और शुद्धि भी है। इसलिए हमारे मस्तिष्क में जो यह भ्रम बैठ गया है उसका निवारण भी शिक्षा के माध्यम से होना चाहिए। हमारे यहां ज्ञान का दायरा, उसकी व्याप्ति बहुत बड़ी है। विद्या भी परा और अपरा दो प्रकार है। इस दृष्टि से भी उसपर विचार होना चाहिए। यदि आप वेदों और उपनिषदों को रचनात्मकता का प्रमाण नहीं मानेंगे, कालिदास को नहीं स्वीकार करेंगे तो किसे स्वीकार करेंगे। कादंबरी जैसी रचना यदि आपके चिंतन का हिस्सा नहीं है तो चिंतन करेंगे किसपर? हम यह न भूले की सृजनात्मकता का एक अर्थ मौलिकता भी है। इस अर्थ में महाकाव्य सृजनात्मकता के प्रतिमान हैं। जिस प्रकार की औपचारिक शिक्षा आजकल मिल रही है वह हमारे सोच-विचार का दायरा संकीर्ण करती जा रही है। हमारे विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय आदि शिक्षण संस्थान नये प्रश्न, नये विचार, सृजनात्मकता का परिवेश नहीं बना पा रहे। वे एक ही ढर्रे पर वर्षों से चल रहे हैं और चाहते हैं कि उनके यहाँ से ‘शिक्षित’ व्यक्ति भी उसी दायरे के भीतर रहे।
सृजनात्मकता के विषय में थोड़ा विचार करें तो इसके तीन पक्ष हमारे सामने आते हैं। एक तो व्यक्ति की नैसर्गिक प्रतिभा होती है जिसके कारण वह जीवन में अन्य के मुकाबले अधिक सृजनात्मक है। दूसरा, सृजनात्मकता एक प्रक्रिया भी है और बच्चों को सृजनशील बनने की ओर उन्मुख किया जा सकता है। इसका प्रयास करना चाहिए। तीसरा और बहुत महत्वपूर्ण पक्ष है सृजनात्मकता का अवसर देने वाला परिवेश। बगैर इस परिवेश के बच्चों की सृजनात्मकता उसे प्रकार दम तोड़ देती है जिस प्रकार ऊसर भूमि में पड़ा बीज नष्ट हो जाता है। बीज में विशाल वृक्ष बनने की संभावना रहती है लेकिन उपयुक्त परिवेश न मिलने से वह अंकुरित ही न हो सकेगा । यही स्थिति हमारे विद्यार्थियों के साथ भी है। अत्यधिक नियम-कानून और बंधे बंधाए सांचे में ढली शिक्षा बच्चों को रुचिकर नहीं लगती। इसलिए शिक्षा को उन्मुक्त करने वाला होना चाहिए।
नई शिक्षा नीति से कुछ आशा अवश्य बंधी है। इसका कारण यह है कि संभवतः पहली बार सृजनात्मकता को शिक्षा नीति का केंद्रीय विषय बनाया गया है। प्रतिभा का प्रस्फुटन किस प्रकार हो इस विषय में यह शिक्षा नीति सोच रही है। उसके विविध अवसर किस प्रकार सृजित हों, इस दिशा में कदम बढ़ते दिख रहे हैं। हमको यह करना ही होगा। शिक्षा-व्यवस्था को आमूलचूल बदलकर उसके द्वारा नये ढंग से सोचने की, जिज्ञासा की, प्रयोग की भूमि तैयार करनी होगी। एक ऐसा वातावरण बनाने की महती आवश्यकता है जिसमें विद्यार्थी उन्मुक्त मन से प्रश्न कर सकें और प्रश्नों के समाधान को तलाने में उद्यत हों । केवल कुछ बने-बनाये रास्तों तक उनको महदूद न रखा जाए। सच यही है कि जब शिक्षा-व्यवस्था स्वयं इस जकड़बन्दियों से मुक्त होगी तभी वह ‘सा विद्या या विमुक्तये’ के लक्ष्य की ओर आगे बढ़ सकेगी ।
(लेखक, अंतरराष्ट्रीय महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)
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