– डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
अव्यावहारिक योजनाएं और जिद किस तरह से किसी देश को रसातल में ले जा सकती है, इसका ताजातरीन उदाहरण श्रीलंका में देखा जा सकता है। पूर्ववर्ती सरकार की जैविक खेती की जिद ने ऐसा संकट खड़ा किया कि श्रीलंका आज दोराहे पर खड़ा हो गया। दरअसल श्रीलंका की पूर्व सरकार के पतन के अन्य कारणों के साथ देश में अन्न संकट का होना रहा। अन्न संकट का कारण भी वहां की नई नीति रही और श्रीलंका सरकार की जैविक खेती की जिद ने उसे गंभीर संकट में धकेल दिया।
सरकार ने 2021 में श्रीलंका में सभी प्रकार के रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग पर रोक लगा दी। इसके साथ ही देश के 20 लाख किसानों को जैविक खेती का तुगलकी आदेश दिया गया। तुगलकी इस मायने में कि किसी भी प्रयोग को व्यावहारिक रूप देने से पहले उसके संभावित परिणाम को अवश्य समझना चाहिए। कोई भी नया प्रयोग किया जाता है तो उसके लाभ-हानि का आकलन करने के साथ ही चरणबद्ध तरीके से लागू किये जाने की जरूरत होती है। इसके साथ ही यह निर्णय भी इस मायने में गलत समय पर लिया गया कि उस समय श्रीलंका के किसान चावल की खेती की तैयारियों में जुट चुके थे। अचानक आये निर्णय से किसान भौंचक्के रह गए और इस निर्णय का विरोध भी काफी हुआ। यह सब तो तब है जब राजपक्षे ने 2019 में चुनाव अभियान के दौरान देश को दस साल में जैविक खेती की और ले जाने का वादा किया था, पर एकाएक दूसरे ही साल 2021 में पूरी तरह जैविक खेती की जिद और रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों पर रोक का सीधा असर सामने आ गया और श्रीलंका गंभीर खाद्यान्न संकट की चपेट में आ गया।
हालांकि 2019 के आतंकी हमलों के बाद से ही हालात बिगड़ने शुरू हो गए थे क्योंकि श्रीलंका का पर्यटन उद्योग इन आतंकी हमलों में बुरी तरह प्रभावित हुआ। उसके बाद के दो साल कोरोना की भेंट चढ़ गए तो रही सही कसर एकाएक जैविक खेती के आदेश ने पूरी कर दी। रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद तो हालात और भी बदतर हो गए। मीडिया समाचारों को सही मानें तो श्रीलंका के लोग गंभीर खाद्यान्न संकट से जूझ रहे हैं यहां तक कि अधिकांश लोगों को एक समय का ही भरपेट खाना मिल पा रहा है तो दूसरी और पेट्रोल आदि की देशव्यापी किल्लत हो गई है। हालात यह कि दुनिया के देश श्रीलंका की मदद को तैयार नहीं है। हालांकि भारत ने सच्चे पड़ोसी होने का रिश्ता निभाते हुए श्रीलंका को सहायता उपलब्ध कराई है। चीन इन हालात का फायदा उठाने की तैयारी में है।
मुद्दे की बात यह है कि जब हालात बद से बदतर होते दिखे तो सरकारों को निर्णयों की समीक्षा करने में देरी नहीं करनी चाहिए। कोरोना के बाद से दुनिया के देशों के आर्थिक हालात खराब चल रहे हैं। अमेरिका, इंग्लैण्ड सहित दुनिया के अधिकांश देशों की अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है। कोरोना के कारण पर्यटन उद्योग की तो पूरी तरह से कमर टूट गई है। रही-सही कसर लंबे खिंचते रूस-यूक्रेन युद्ध ने पूरी कर दी है। अब चीन-ताइवान तनाव सामने हैं। चिंताजनक बात यह है कि कोरोना जैसी महामारी से पूरी तरह मुक्त नहीं होने के बावजूद दुनिया के देशों ने जिद नहीं छोड़ी और एक-दूसरे खिलाफ जंग को आमादा है। यह वास्तव में निराशाजनक स्थिति है।
श्रीलंका में यदि चरणबद्ध तरीके और सरकार अपने चुनावी वायदे के अनुसार दस सालों में जैविक खेती की राह पकड़ती तो संभवतः यह संकट श्रीलंकावासियों को नहीं देखना पडता। फिर जब पहली छमाही में ही दुष्परिणाम सामने आ गया तो श्रीलंका सरकार को उसकी समीक्षा करने में देरी नहीं करनी चाहिए थी। आखिर सरकार किसके लिए होती है। सरकार होती है देश के नागरिकों के लिए। उनके हितों और देशहित की ही अनदेखी होने लगती है तो परिणाम श्रीलंका जैसे आने में देरी नहीं होगी। ऐसे में सरकारों को योजनाओं व कार्यक्रमों को लागू करते समय उनके परिणामों को भी समझ लेना चाहिए।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
©2024 Agnibaan , All Rights Reserved