इंदौर। जिस पार्षद और महापौरी की दावेदारी के लिए नेताओं की कतारें लगी हैं… कर्मठता, लगनशीलता, ईमानदारी की पानी पी-पीकर कसमें खाई जा रही हैं और जिन नेताओं से ईमानदारी की उम्मीद की जा रही है उनका वेतन किसी दिहाड़ी मजदूर से भी कम है…एक पार्षद को वेतन के रूप में जहां मात्र 6 हजार रुपए महीना मिलता है, वहीं महापौर का वेतन केवल 13 हजार 500 रुपए है।
राज्य में नगर सरकार के चुनाव की रस्साकशी के बीच बड़ी मुश्किल से महापौर उम्मीदवारों का मसला निपटा है और अभी पार्षदों की उम्मीदवारी बची है। इस उम्मीदवारी के लिए नेताओं ने जी-जान लगा रखी है। इन पदों के लिए गली-मोहल्लों में शह-मात का खेल चल रहा है, लेकिन बतौर वेतन उनकी हैसियत जानकर आप चौंक जाएंगे। जिस मेयर को शहर का प्रथम नागरिक माना जाता है उसका वेतन मात्र जहां 13500 रुपए महीना है, वहीं पार्षद केवल 6 हजार रुपए महीने की तनख्वाह पाते हैं।
ये दोनों जनता के वोट से चुने जाते हैं, पर इन्हें कोई प्रशासनिक अधिकार नहीं होते हैं, क्योंकि निगमों मेें सारे प्रशासनिक अधिकार आयुक्त के पास होते हैं, लिहाजा उसे आदेश देकर भी उनकी स्वीकृति का इंतजार करना पड़ता है। उधर पार्षद का वेतन तो रोज कमाने-खाने वाले मजदूर से भी कम है, उसे महज 200 रुपए रोज ही मिलते हैं, जबकि विधायक से अधिक रुतबा रखने वाले महापौर को भी मात्र 450 रुपए रोज मिलते हैं। सुविधा के नाम पर मेयर को एक सरकारी गाड़ी मिलती है, जिसे वह शहर के बाहर नहीं ले जा सकता। एक मोबाइल और शहर में एक बंगला ही मिलता है।
इतना कम वेतन तो ईमानदारी की उम्मीद कैसे
जब पार्षदों को केवल 200 रुपए रोज और महापौर को 450 रुपए रोज दिए जाएंगे तो उनसे ईमानदारी की उम्मीद कैसे की जा सकती है, जबकि एक पार्षद को गली-गली घूमना पड़ता है उनके वाहनों के पेट्रोल का खर्च भी इससे ज्यादा होता है और महापौर को भी अपना उच्च जीवन स्तर रखना पड़ता है। यदि पार्षद और महापौर की कमाई के अन्य साधन न हो तो जीवन यापन संभव ही नहीं है।
महापौर रहे विजयवर्गीय और मालिनी गौड़ ने नहीं लिया वेतन
इंदौर शहर के महापौर रहे कैलाश विजयवर्गीय और मालिनी गौड़ ने निगम से अपना वेतन नहीं लिया, क्योंकि वे दोनों ही अपने कार्यकाल के दौरान विधायक पद पर रहे और विधायक का वेतन महापौर के वेतनमान से कहीं अधिक है इसलिए उन्होंने विधायक का वेतन स्वीकारा।
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