भोपाल न्यूज़ (Bhopal News)

लागत ज्यादा… मुनाफा कम…सफेद सोना से किसानों का मोहभंग

  • फसल लागत के अनुसार नहीं मिल रहा समर्थन मूल्य
  • महंगी बिजली और मंडी टैक्स से उद्योग पर संकट

भोपाल। सफेद सोना यानी कपास से प्रदेश के किसान दूरी बनाने लगे हैं। वैसे तो भारतीय कपास निगम द्वारा समर्थन मूल्य पर कपास की खरीदी कर रहा है, लेकिन लागत के अनुसार किसानों को कीमत नहीं मिल रही। प्रदेश के 6 जिलों में 20 केंद्रों पर खरीदी हो रही है। समर्थन मूल्य काम होने की वजह से किसान जिनिंग मिलों को को कपास बेचने में इन मिलों में में कपास 8000 से 8500 रुपए क्विंटल में बिक रहा है, जबकि महीन कपास का समर्थन मूल्य 5726 रुपए प्रति क्विंटल ही है जबकि लंबे रेशे वाले कपास का समर्थन मूल्य 6025 रुपए होने से कपास निगम के खरीदी केंद्रों में सन्नाटा है।


प्रदेश में मंडी टैक्स अधिक
प्रदेश में 1.70 प्रतिशत मंडी टैक्स देना होता है। मप्र की तुलना में पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र में मंडी टैक्स काफी कम है। महाराष्ट्र में 0.55 प्रतिशत मंडी टैक्स चुकाना होता है। टैक्स ज्यादा होने की वजह से प्रदेश में कपास की कीमत कम है, जबकि महाराष्ट्र में ज्यादा है। जिले के सक्षम किसान पड़ोसी राज्य में उपज बेच रहे हैं। स्थानीय जिनिंग मिलों में इक्का-दुक्का किसान ही आ रहे हैं।

कपास की खेती कम होने से उद्योगों पर संकट
जिनिंग उद्योग को प्रतिवर्ष 6 से 7 लाख क्विंटल कपास की जरूरत होती है, लेकिन कपास की आवक लगातार कम होती जा रही है। जिले के जिनिंग में जरूरत के अनुपात में केवल 15 प्रतिशत ही कपास की आवक है। मप्र में साढ़े नौ रुपए प्रति यूनिट और महाराष्ट्र में नौ रुपए प्रति यूनिट बिजली का टैरिफ है। जिनिंग मिल बंद होने के समय प्रदेश में यूनिट के हिसाब से बिल लिया जाता है, जबकि महाराष्ट्र में केवल कंज्यूम के हिसाब से बिल आता है। प्रदेश के जिनिंग संचालकों को 3 से 4 लाख रुपए अतिरिक्त बिल चुकाना पड़ता है। महंगी बिजली और कपास की कम आवक ने जिले के उद्योगों को संकट में लाकर खड़ा कर दिया है। यहां के जिनिंग संचालक महाराष्ट्र में उद्योग लगा रहे हैं। वर्तमान में सौंसर में छह और पांढुर्ना में चार जिनिंग मिलों का संचालन हो रहा है। मप्र के जिनिंग संचालकों को प्रतिमाह 3.50 लाख से 4 लाख रुपए अतिरिक्त बिल देना पड़ता है। जिनिंग का छह माह का सीजन होता है। मिल बंद होने पर भी लगभग 50 हजार रुपए प्रतिमाह बिल आता है। मजबूरी में पांढुर्ना से बंद कर महाराष्ट्र में उद्योग लगाना पड़ा है।

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