– ऋतुपर्ण दवे
कोरोना पर हर रोज चौंकाने वाले आंकड़े भले दुनिया भर की सरकारों के लिए चिन्ता का बड़ा कारण हों लेकिन यह भी सच है कि भारत में लोग जितने बेफिक्र दिख रहे हैं, उतना लॉकडाउन के दौर में कतई नहीं थे। क्या यह कोई मनोवैज्ञानिक स्थिति है या फिर कहीं न कहीं सच को स्वीकारती मनोदशा, जिसे लेकर लोग इतने असंवेदनशील और सहज हो गए हैं कि जो हो रहा है वो भी मंजूर और जो होने की चर्चा है, वह भी मंजूर! यकीनन यह मानसिक स्थिति कोरोना संक्रमण से भी कई गुना खतरनाक है क्योंकि लगता नहीं कि करुणा मर चुकी है? लोग कोरोना के भयावह मंजर को देखने के डर को बुझे मन से ही सही, मान तो नहीं चुके? ऐसे में कोरोना से बड़ी जंग मानसिक स्थिति को मजबूत कर जीतनी होगी। आज जब कोरोना हर रोज अपने उफान यानी पीक पर पहुंच रहा है और लोग हैं कि बेफिक्र होते जा रहे हैं? यह स्थिति बेहद चिन्ताजनक है। सोचना होगा कि लोग अपने स्वास्थ्य को लेकर एकाएक क्यों इतने गैर जिम्मेदार हो गए हैं? कोरोना की जंग में खुद को बेहद मजबूत रख कर ही लड़ाई जीती जा सकेगी। अभी तो लड़ाई शुरू हुई है जो कठिन जरूर है लेकिन जीती जाने वाली भी है। ऐसे में बस जरूरत है तो इतनी कि मजबूत इच्छा शक्ति से कोरोना को चुनौती दें न कि स्वीकारें। तो फिर बेफिक्री कैसी? इसको लेकर निश्चित रूप से देश व राज्य सरकारें अपनी-अपनी तरफ से जरूर फिक्रमंद होंगी और लोगों के मन में अनायास घर कर गए एक धीमे अवसाद की चिन्ता भी होगी।
कोरोना को लेकर एक बड़ी सच्चाई जो जगजाहिर है कि इसकी पूरी तासीर किसी को नहीं पता थी और अभी भी नहीं है। पूरी तरह से लाइलाज यह वायरस नए रंग-रूप दिखाकर डराता ही जा रहा है। कोई दवा या वैक्सीन न होने से इससे बचाव का प्राकृतिक तरीका ‘लॉकडाउन’ ही काफी कारगर, स्वीकार्य और तात्कालिक आसान उपाय बन गया। भारत ने भी यही किया जिसके अच्छे नतीजे आए लेकिन यह भी सच है कि कबतक पूरा देश तालाबन्दी में रहता! 67 दिनों की तालाबन्दी से संक्रमण की रफ्तार काफी हद तक बेकाबू नहीं हो पाई, जैसा कई देशों में दिखा। इससे अर्थव्यवस्था और दीगर गतिविधियां काफी पीछे जा रही थीं इसलिए अनलॉक-1 की घोषणा हुई। जिसके बाद कम से कम भारत में तो बेहद हैरान करने वाली तस्वीरें सामने आईं जो बेहद निराशजनक रहीं। लोगों ने जैसे मुक्ति का जश्न मनाना शुरू कर दिया और कोरोना के आगे समर्पण कर दिया। तभी तो संक्रमण के उफान के बीच बजाए इससे बचने के, उपायों तक की जबरदस्त अनदेखी की गई। नतीजतन देखते ही देखते कोरोना की रफ्तार भारत में ऐसी बढ़ी कि दुनिया का तीसरा संक्रमित देश बन गया और दूसरा बनने की होड़ में है।
कोरोना के बढ़ते आंकड़ों जिसमें बीते एक हफ्ते में ही हर रोज 30 से 35 हजार के बीच मामलों के बावजूद लोगों में डर वाली बात खत्म-सी हो गई हो। कोरोना के 11 लाख से भी पार पहुंचते आंकड़ों ने न केवल पूरी दुनिया की नजरों में भारत को लेकर चिन्ता बढ़ा दी, वहीं खुद भारत में ऐसी बेफिक्री कि लोग झुण्डों में पहले जैसे नजर आने लगे, हैरान करती है। जहां बाजारों, सार्वजनिक स्थानों में भीड़ बढ़ी, वहीं सब्जी, मांस-मटन के बाजारों व मंडियों में पुरानी धमा-चौकड़ी लौट आई। आलम यह हो गया कि लोग खुद से मास्क तक न पहनने पर उतारू हो गए। यह सब बेहद हैरान करता है। तेजी से बढ़ रहे संक्रमण और मौतों के बढ़ते आंकड़ों के बीच यह अजीब-सी बल्कि कहें कि सार्वजनिक सामाजिक मानसिक स्थिति ही है जो गंभीर हताशा या महामारी की स्वीकार्यता का इशारा तो नहीं? यदि ऐसा है तो कोरोना से पहले लोगों को इससे उबारना होगा।
हो सकता है कि 67 दिन लंबे उबाऊ लॉकडाउन के बीच लगातार चौकस व्यवस्थाओं को देखने, समझने और सुधारने वाले हर छोटे-बड़े हाथ लंबी सेवा देकर खुद भी थोड़ा ढील के मूड में क्या आए, सब जगह वह बेफिक्री दिखी जिसने कोरोना की कड़ी को इतना मजबूत बना दिया कि वह दोगुनी, चार गुनी और इससे भी तेज बढ़ने लगी। यह सच है कि हमारी स्वास्थ्य व्यवस्थाएं उतनी चुस्त-दुरुस्त नहीं है जितनी अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, जर्मनी, जापान जैसे देशों की है। लॉकडाउन के बीच मिले वक्त में भविष्य की व्यवस्थाओं की तैयारियां भी हुई, जिसमें अस्पताल, वैन्टीलेटर, बिस्तरों की व्यवस्था की गई। लेकिन यह भी सच है कि भारत जैसे देश के लिए यह कुछ यूं नाकाफी है जैसे दाल में नमक। आम भारतीयों का मौजूदा रवैया जरूर चिन्ता में डाल रहा है।
तालाबन्दी के दौर में क्या छोटे, क्या बड़े सभी ने जिस एकजुटता से दिशा-निर्देशों का पालन किया, वो अनलॉक होते ही छिन्न-भिन्न हो गया। जबकि देश में हजारों ऐसे उदाहरण भी दिखे जहां एक घर में रहने वाले सदस्यों तक ने आपसी सोशल डिस्टेंसिंग बना जरूरी ऐहतियातों की पालना की थी। चन्द हफ्तों पहले का वो दौर और मौजूदा यह दौर बेहद बदला है और लोग बेफिक्र दिख रहे हैं। सबकुछ हैरान करने वाला है। तालाबन्दी के पहले और बाद कोरोना संक्रमण के बीच देश वही, लोग वही, सरकारी मशीनरी वही और कानून-कायदे भी वही। बस एक अनलॉक की छूट क्या मिली सबकुछ धरा रह गया! निश्चित रूप से इंसानियत के लिहाज से यह कभी भी सही नहीं ठहराया जा सकेगा। हो सकता है लॉक से अनलॉक हो रहे लोगों की समझाइश में कमी रह गई हो? यह सच है कि इसको लेकर देशव्यापी कांउन्सिलिंग और सख्ती के साफ और कड़े निर्देशों की कमी भी एक कारण हो।
यह सच भी सामने है कि देश के पहले 1 लाख मामले सामने आने में 111 दिनों का समय लगा जो 19 मई को हुए। उसके बाद 2 लाख मामलों का आंकड़ा छूने में केवल 15 दिन लगे जो 3 जून को हुए। इसी तरह 3 लाख मामले पहुंचने में 10 दिन लगे जो 13 जून को हुए। जबकि संक्रमितों की संख्या 4 लाख पहुंचने में 8 दिन लगे जो 21 जून को हुए। उसके बाद केवल 6 दिन में संक्रमितों की संख्या 5 लाख को पार गई जो 27 जून को हुई। महज 5 दिन बाद यानी 2 जुलाई को संख्या 6 लाख पहुंची और उसके 5 दिन बाद यानी 7 जुलाई को यह संख्या 7 लाख हो गई। अगले तीन दिनों में यानी 10 जुलाई को कोरोना संक्रमितों की संख्या 8 लाख हो गई। रफ्तार थमने के बजाए बरकरार रही जो 19 जुलाई की तड़के 10 लाख 77 हजार 864 पर जा पहुंची जबकि इसी दिन अबतक का एकदिन में संक्रमित मरीजों के मिलने का डरावना रिकॉर्ड 37407 भी बना।
संक्रमण की बढ़ती रफ्तार भयावह है। ईश्वर न करे, हालात ब्राजील और अमेरिका जैसे हो जाएं लेकिन लॉकडाउन के बाद जनमानस का जो मिजाज दिखा, उसे देखते हुए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विशेषज्ञ भी मानते हैं कि संक्रमण की रफ्तार को रोकने के लिए दोबारा देशव्यापी लॉकडाउन से सरकार को परहेज नहीं करना चाहिए। इसके साथ ही इस बात का भी भली-भांति प्रचार-प्रसार कर मानसिक रूप से लोगों को तैयार करना होगा कि वो आगे अनलॉक होने पर कैसे खुद, देश और समाज को सुरक्षित रख सकते हैं। सभी इस बात को अपनी नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी भी समझें कि मास्क, सोशल डिस्टेंसिंग और सेनिटाइजेशन जीवन का तबतक हिस्सा रहेगा जबतक कोरोना की कड़ी को तोड़ने कोई दवा रूपी चाबुक ईजाद नहीं हो जाता। इसके लिए बेहद कड़ाई और कानूनन सख्ती से भी पीछे नहीं हटना होगा। कोरोना से बड़ी जंग हमारी अपनी इच्छा शक्ति को मजबूत करने की है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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