1918 में फ्लू महामारी फैलनी शुरू हुई थी लेकिन वैक्सीन उसकी वैक्सीन आते-आते 27 साल लग गए थे। यह इकलौती ऐसी वैक्सीन नहीं, जिसे बनने में सालों लगे। पोलियो जैसी महामारी से अमेरिकी वैज्ञानिक 1935 से जूझ रहे थे लेकिन 20 साल बाद भी वैक्सीन लाइसेंस्ड नहीं हो पाई थी। वैक्सीन बनाना हमेशा से ही एक धीमी प्रक्रिया रही है, मगर कोविड-19 के केस में ऐसा नहीं हुआ। इस बार वैक्सीन सालभर के भीतर तैयार है। यह भविष्य के लिए बड़ी अच्छी खबर है क्योंकि जब अगली महामारी आएगी तो हम निश्चित ही इससे भी कम वक्त में उसकी वैक्सीन तैयार कर लेंगे।
पुराने तरीके से काफी तेज है वैक्सीन बनाने का ‘मॉड्युलर’ तरीका
कोई भी पुरानी वैक्सीन ले लीजिए, चाहे फ्लू या हो या पोलियो, उससे बनाने के लिए एकदम शुरू से काम हुआ। आप पहले बीमारी देने वाले वायरस की पहचान करते हैं, फिर मृत या कमजोर वायरसों को लोगों के शरीर में प्रवेश कराकर उन्हें उनसे लड़ने की ट्रेनिंग देते हैं। आपको वायरस की एक पूरी सीरीज बनाने के रास्ते खोजने पड़ते हैं लेकिन इसमें कभी भी गड़बड़ हो सकते हैं। वैक्सीन पाने वाले हर 25 लाख बच्चों में से एक को उससे पोलियो हो जाता है। अब आप एक ‘मॉड्युलर’ वैक्सीन के बारे में सोचिए। आप लैब में एक सेफ वायरस बनाते हैं जिसे उस महामारी वाले वायरस के कुछ टुकड़े किसी डाकिये की तरह आपके शरीर में पहुंचाने होते हैं। यह आपको बीमार नहीं करती। मॉड्युलर वैक्सीन का कॉन्सेप्ट सालों से रहा है। ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी के रिसर्चर्स ने कोरोना की जो वैक्सीन बनाई है, वह इसी कैटेगरी की है। यह वैक्सीन सिर्फ तीन महीनों के भीतर तैयार कर ली गई थी।
जीन टेक्नोलॉजी बदल सकती है वैक्सीनेशन की दुनिया
ऑक्सफर्ड की वैक्सीन को वायरस के एक हिस्से की जरूरत पड़ती है। मगर फाइजर और मॉडर्ना की वैक्सीन और ऐडवांस्ड तकनीक पर आधारित हैं। ये ‘सिंथेटिक मेसेंजर RNA’ का इस्तेमाल करती हैं। यह तकनीक इससे पहले कभी इस्तेमाल नहीं हुई थी। mRNA शरीर में प्राकृतिक रूप से मिलने वाला केमिकल है जो कोशिकाओं को बताता है कि उन्हें कौन से प्रोटीन्स बनाने हैं। सिंथेटिक mRNA के जरिए वैज्ञानिक शरीर को कोरोना वायरस के प्रोटीन बनाने का ऑर्डर देते हैं, फिर ऐंटीबॉडीज बनती हैं बिना संक्रमण हुए। मॉडर्ना ने सिर्फ 42 दिन में वैक्सीन तैयार कर ली थी।
लालफीताशाही कम हुई, बढ़ी स्पीड
एक्सपर्ट्स के अनुसार, आमतौर पर वैक्सीन तैयार करने में 10 साल का वक्त लगता है। मगर वैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि वैक्सीन तो कम वक्त में तैयार हो जाती है लेकिन उसके अप्रूवल में कई साल लगते हैं। कोविड वैक्सीन जल्दी इसीलिए उपलब्ध हो पाई क्योंकि अधिकारियों ने टांग नहीं अड़ाई।
जल्दबाजी का काम… अच्छा या बुरा?
तेजी से वैक्सीन डिवेलप करना अच्छा है लेकिन उसे जल्दी से इस्तेमाल की मंजूरी देना वैज्ञानिकों के लिए दुविधा खड़ी करता है। ‘नेचर’ पत्रिका में छपे एक लेख के अनुसार, कंपनियां वैक्सीन का ट्रायल आधा पूरा होने पर, अप्रूवल ले सकते हैं। फाइजर और मॉडर्ना ने यही किया है। लेकिन कुछ लोगों पर केवल दो महीने की निगरानी से सभी साइड इफेक्ट्स सामने नहीं आते। एक बार वैक्सीन अप्रूवल होती है तो प्लेसीबो वाला ग्रुप भी चाहेगा कि उसे वैक्सीन मिले, इससे वैक्सीन के असर को आंकने में दिक्कत आएगी। ऊपर से जब कई वैक्सीन अप्रूव होती हैं तो कौन नई और शायद बेहतर वैक्सीन के ट्रायल में कौन हिस्सा लेना चाहेगा।
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