नई दिल्ली । नियमों में बदलाव होते ही राज्यों में तेजी से कम हुई कोरोना जांच (corona test) पर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय (Union Health Ministry) ने नाराजगी जताई है। मंत्रालय ने एक दिन पहले ही राज्य और संघ शासित प्रदेशों को पत्र भी जारी किया है। स्वास्थ्य मंत्रालय की अपर सचिव आरती आहूजा ने कहा, राज्यों से जांच कम करने के लिए नहीं कहा गया था बल्कि उन्हें जांच के लिए प्राथमिकता तय करने के लिए कहा गया। सलाह दी गई थी कि वे जरूरतमंद रोगी को प्राथमिकता दें। इसका असर यह होगा कि रोगी निगरानी से बाहर भी नहीं जा सकेगा और समय रहते संक्रमण (Infection) की पहचान व उपचार भी उसे मिल सकेगा।
अपर सचिव के अनुसार मंत्रालय को हैरानी तब हुई जब 10 जनवरी को जारी संशोधित दिशा निर्देश का असर 14 जनवरी से दिखाई देने लगा। तीन दिन बाद ही आईसीएमआर के पोर्टल पर एक के बाद एक राज्य से जांच के आंकड़े कम होते दिखाई देने लगे। गंभीर बात यह है कि जांच में कटौती उस वक्त हो रही है जब संक्रमण ने देश के 355 जिलों को गंभीर श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है।
आईसीएमआर के कोविड-19 प्रबंधन वेबसाइट के अनुसार राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में 14 से 17 जनवरी के बीच जांच में करीब 45 फीसदी की कटौती आई। ठीक इसी तरह महाराष्ट्र और राजस्थान सहित दूसरे राज्यों में भी स्थिति दिखाई देने लगी। जहां 45 से 48 फीसदी तक कटौती हुई। नियमों में बदलाव होने से पहले रोजाना देश में 16 से 17 लाख सैंपल की जांच हो रही थी लेकिन 16 और 17 जनवरी को यह संख्या 13 लाख तक पहुंच गई।
केवल सात राज्यों में गुणवत्ता की जांच आरटी पीसीआर और एंटीजन के बीच 60ः40 का अनुपात कम से कम रखना अनिवार्य है, पर ज्यादातर राज्यों में अनुपात 49ः51 तक है। कर्नाटक, तमिलनाडु, ओडिशा, महाराष्ट्र, दिल्ली, मध्य प्रदेश और राजस्थान में ही जांच की स्थिति ठीक है।
जीनोम सीक्वेंसिंग में आगे पड़ोसी देश
जीनोम सीक्वेंसिंग के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ग्लोबल इनिशिएटिव ऑन शेयरिंग आल इन्फ्लुएंजा डाटा (जीआईएस ऐड) दो साल से कार्य कर रही है। 30 दिन में भारत ने 2095 सीक्वेंस इनसे साझा किए हैं। इन 30 दिन में 26.47 लाख लोग कोरोना की चपेट में आए हैं। कुल संक्रमित सैंपल की तुलना में जीनोम सीक्वेंसिंग केवल 0.79 फीसदी की भागेदारी है। जबकि इंडोनेशिया, डेनमार्क और ब्रिटेन में यह क्रमशः 8, 4 और 3 फीसदी है। वहीं पड़ोसी देश श्रीलंका में 1.73 और बांग्लादेश में 0.214 फीसदी सीक्वेंस साझा किए जा चुके हैं।
तीन दिन बाद ही दिखने लगा असर
क्या होनी चाहिए प्राथमिकता?
नियमों में बदलाव करने के कारण
आईसीएमआर के एक वैज्ञानिक ने बताया कि नियमों में बदलाव करने के दो बड़े कारण हैं। पहला यह कि ओमिक्रॉन तेजी से फैलने वाला संक्रमण है और इसकी चपेट में एक बड़ी आबादी बिना लक्षण वाली मिल रही है। जबकि काफी लोगों में संक्रमण गंभीर और मोडरेट श्रेणी में मिल रहा है। इस स्थिति को अलग अलग श्रेणी में विभाजित करने और वास्तविक रोगी में संक्रमण की पहचान करके उसे उपचार दिया जा सकता है। ताकि मृत्यु का जोखिम कम हो सके।
दूसरा बड़ा कारण ओमिक्रॉन की वजह से जांच पर बढ़ता भार भी है। देश के पास रोजाना 30 लाख तक सैंपल की जांच क्षमता है लेकिन जिस तरह से संक्रमण फैल रहा है उसकी वजह से पैनिक भी काफी हो रहा है। ऐसे में जांच केंद्रों पर दबाव भी काफी बढ़ गया है जिसे नियंत्रण में लाना भी जरूरी है। अन्यथा पिछली दो लहर में हमने यह भी देखा है कि इसी देश में एक सप्ताह तक मरीज को रिपोर्ट भी नहीं मिली थी।
स्वस्थ बच्चों को बूस्टर डोज की जरूरत नहीं : डॉ. स्वामीनाथन
विश्व स्वास्थ्य संगठन की मुख्य वैज्ञानिक डॉ. सौम्या स्वामीनाथन ने मंगलवार को कहा कि स्वस्थ बच्चों व किशोरों को कोविड-19 टीके की बूस्टर डोज की जरूरत साबित करता कोई वैज्ञानिक साक्ष्य सामने नहीं आया है। उन्होंने कहा कि ओमिक्रोन के संक्रमण तेजी से बढ़ने के बीच टीकों से नागरिकों को हासिल प्रतिरोधक क्षमता कुछ कम नजर आई है, फिर भी बूस्टर डोज की उपयोगिता पर अभी और अध्ययन की जरूरत है। इस्राइल ने 12 साल के ऊपर के बच्चों को बूस्टर डोज देना शुरू किया है।
अमेरिका ने भी 12 से 15 साल के बच्चों को तीसरी डोज पर जनवरी के शुरू में सहमति दी थी। जर्मनी ने हाल में 12 से 17 साल के बच्चों का टीकाकरण शुरू किया है। डॉ. स्वामीनाथन ने कहा कि बूस्टर डोज का उपयोग बेहद जोखिमपूर्ण मानी जा रही श्रेणी के नागरिकों के लिए है। इनमें बुजुर्ग, अन्य बीमारियों से ग्रस्त, आदि शामिल हैं।
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