– कुसुम चोपड़ा
कोरोना काल से पहले तक साइकिल को अमूमन गरीब तबके की सवारी के तौर पर देखा जाता था। लग्ज़री गाड़ियों में बड़ी शान से सवार लोग पास से निकलते साइकिल सवार को दया भरी नजरों से तो देखते ही थे, खुद के पास शानदार गाड़ी होने का दंभ भरते हुए दुनिया का सबसे खुशकिस्मत इंसान समझते थे। लेकिन, कोरोना वायरस ने बहुत ही कम समय में इंसान के इस दंभ को न सिर्फ मिट्टी में मिला दिया, बल्कि ये भी समझा दिया कि ये शानदार महंगी गाड़ियां, साइकिल के सामने रत्तीभर की भी नहीं हैं।
कोरोना के इस युग में आज जब जिम, स्पा, स्वीमिंग पूल, योगा और फिटनेस सेंटर सब बंद हैं तो लोगों को इस समय साइकिल की सवारी खूब भा रही है। शरीर को तंदुरुस्त रखने के लिए लोग जमकर इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। वैज्ञानिक जिस तरह से कोरोना के लंबे समय तक हमारे बीच रहने का दावा कर रहे हैं, उसे देखते हुए तो यही लग रहा है कि लोग जल्दी से फिटनेस सेंटरों का रुख नहीं करने वाले। ऐसे में साइकिल ही शारीरिक फिटनेस बनाए रखने का सबसे सटीक और मजबूत विकल्प दिखाई दे रही है। शायद इसी वजह से अचानक पिछले कुछ दिनों से साइकिल की मांग में भारी इजाफा हुआ है। लगातार बढ़ती मांग को देखकर खुद साइकिल कंपनियां भी हैरान हैं। अचानक साइकिल की बिक्री में लगभग 50 फीसदी तक का उछाल आया है। ऑल इंडिया साइकिल मैनुफेक्चर्स का तो यहां तक कहना है कि जिस तेजी से साइकिल की मांग बढ़ रही है, आने वाले समय में मांग और आपूर्ति में और भी ज्यादा अंतर देखने को मिल सकता है। हालांकि, लोगों में साइकिल के प्रति बढ़ती दिलचस्पी को देखकर कंपनियों ने पूरी तरह से कमर कस ली है और साइकिल को और भी अत्याधुनिक और सुविधा से भरपूर बनाने में जुट गई हैं। जितनी आधुनिक और सुविधाओं से लैस साइकिल, उतनी ही ज्यादा कीमत। 4000 से लेकर 50,000 रुपये तक की कीमत की साइकिलें आज बाजार में मौजूद हैं।
एक जमाना था, जब किसी के पास साइकिल होती थी तो वह संपन्न व्यक्ति माना जाता था। अपने हर जरूरी काम के लिए वह इसी साइकिल का इस्तेमाल करता था। एक गांव से दूसरे गांव जाना हो, बाजार जाना हो या फिर पत्नी के साथ उसके मायके। बड़ी शान से वह पत्नी को साइकिल के पीछे बिठाकर उसके मायके पहुंचता तो एक तरफ बच्चे उसकी साइकिल को घेरकर हैरानी भरी नजरों से उसके चारों तरफ घूमते और बड़े-बूढ़े ललचाई नजरों से साइकिल को निहारते। भारत में साइकिल के पहियों ने आर्थिक तरक्की में अहम भूमिका निभाई। 1947 में आजादी के बाद अगले कई दशक तक देश में साइकिल, यातायात व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा रही। खासतौर पर 1960 से लेकर 1990 तक भारत में ज्यादातर परिवारों के पास साइकिल थी। यह व्यक्तिगत यातायात का सबसे किफायती साधन था। गांवों में किसान साप्ताहिक मंडियों तक सब्जी और दूसरी फसलों को साइकिल से ही ले जाते थे। दूध की सप्लाई गांवों से पास से कस्बाई बाजारों तक साइकिल के जरिये ही होती थी। डाक विभाग का तो पूरा तंत्र ही साइकिल के दम पर चलता था। आज भी पोस्टमैन साइकिल से ही चिट्ठियां बांटते हैं।
1990 में देश में उदारीकरण की शुरुआत हुई और आर्थिक बदलाव का दौर शुरू हुआ। देश की युवा पीढ़ी को अब स्कूटर और मोटरसाइकिल की सवारी ज्यादा भाने लगी। शहरी मध्यवर्ग को अपने शौक पूरे करने के लिए पैसा खर्च करने में हिचक नहीं थी। शहरों में मोटरसाइकिल का शौक बढ़ रहा था। गांवों में भी इस मामले में बदलाव की शुरुआत हो चुकी थी। यह बदलाव अगले कुछ सालों में और तेज हुआ और देश में बदलाव के दोनों पहिये ही बदल गए। हालांकि, इसके बावजूद देश में साइकिल की अहमियत खत्म नहीं हुई । शायद यही वजह है कि चीन के बाद दुनिया में आज भी सबसे ज्यादा साइकिल भारत में ही बनती हैं।
नब्बे के दशक के बाद से साइकिलों की बिक्री के आंकड़ों में अहम बदलाव आया। साइकिलों की कुल बिक्री में बढ़ोतरी हुई लेकिन ग्रामीण इलाकों में इसकी बिक्री में गिरावट आने लगी। कमाई में इजाफा होने के चलते लोग मोटरसाइकिल को इन इलाकों में ज्यादा तरजीह देने लगे। 1990 से पहले जो भूमिका साइकिल की थी, उसकी जगह गांवों और शहरों में मोटरसाइकिल ने ले ली। 2002-03 में दोपहिया गाड़ियों की बिक्री (स्कूटर, मोटरसाइकिल, मोपेड, बिजली से चलने वाले दोपहिए) जहां 48.12 लाख थी, वह 2008-09 में बढ़कर 74.37 लाख हो गई।
बेशक, साइकिल की जगह दो पहिया और चार पहिया वाहनों ने ले ली और इसे बीते जमाने की चीज होने का अहसास करवा दिया। लेकिन अंग्रेजी की एक बहुत मशहूर कहावत है कि ओल्ड इज़ गोल्ड। समय का पहिया घूमा और यही कहावत आज पूरी तरह से सच होती दिखाई दे रही है। कोरोना को लेकर जब भारत के साथ-साथ पूरी दुनिया लॉकडाउन में चली गई तो उस समय यही लग्ज़री गाड़ियां पड़ी-पड़ी धूल फांकने लगी। बेशक पेट्रोल के दाम गिर गए लेकिन कोरोना का डर इतना कि पेट्रोल पंप तक जाने के नाम से भी लोगों की जान सूख रही थी। इसी दौरान, अचानक साइकिल इन महंगी गाड़ियों से भी ज्यादा कीमती लगने लगी। जिनके पास साइकिल है, वे निश्चिंत होकर आज इसका भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं।और जिनके पास नहीं थी, वे या तो इसे खऱीद चुके हैं या फिर खऱीदने का मन बना चुके हैं।
साइकिल का सफर
आज जब साइकिल हम सबको अपनी अहमियत बता ही चुकी है तो जरा इसके इतिहास पर भी एक नजर डाल लेते हैं। 1839 में स्कॉटलैंड के एक लुहार किर्कपैट्रिक मैकमिलन द्वारा आधुनिक साइकिल का आविष्कार करने से पहले यह अस्तित्व में तो थी, लेकिन इसपर बैठकर जमीन को पांव से पीछे की ओर धकेलकर आगे की तरफ़ बढ़ना पड़ता था। जिससे काफी शारीरिक ऊर्जा लगती थी और थकान का अनुभव होता था। मैकमिलन ने इसमें पहिये को पैरों से चला सकने योग्य व्यवस्था की। माना जाता है कि 1817 में जर्मनी के बैरन फ़ॉन ड्रेविस ने साइकिल की रूपरेखा तैयार की थी। यह लकड़ी की बनी साइकिल थी और इसका नाम ड्रेसियेन रखा गया था। लेकिन बहुतायत में इसका इस्तेमाल 1830 से 1842 के बीच होना शुरू हुआ। इसके बाद मैकमिलन ने बिना पैरों से घसीटे चलाये जा सकने वाले यंत्र की खोज की जिसे उन्होंने वेलोस्पीड का नाम दिया। धीरे-धीरे इसकी सवारी लोकप्रिय होने और बढ़ती माँग को देखते हुए इंग्लैंड, फ्रांस और अमेरिका के यंत्र निर्माताओं ने इसमें अनेक महत्वपूर्ण सुधार कर 1872 में एक सुंदर रूप दिया।
(लेखिका हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
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