– डॉ. रमेश चंद शर्मा
कोरोना संकट काल ने मानव चेतना को बुरी तरह से झकझोर दिया है। घर से काम करना हो या घर बैठे ऑनलाइन पढ़ाई अथवा अन्य जीवन शैली की नई शुरुआत हो, ऐसा स्पष्ट हो गया है कि कोरोना के बाद भी इनमें से अधिकांश तौर-तरीके आने वाले वक्त में हमारे जीवन का स्थायी भाग बनकर रहने वाले हैं। इनमें शिक्षा का क्षेत्र हमेशा के लिए ऐसी परिस्थिति में आगे बढ़ने के लिए तैयार भी होगा तथा आदी भी बनेगा।
अनेक देशों में ऐसी विधि का प्रचलन रहा है। दूरवर्ती या पत्राचार से शिक्षा तो लगभग सभी देशों में रहा है लेकिन संचार माध्यमों के प्रचार-प्रसार ने इसे व्यापक आधार उपस्थित किया है, जिसे कोरोना ने अलग रूप में प्रचलित किया है। डाटा और डिजिटल युग में चाहते न चाहते भी इसे अपनाना मजबूरी बन गई है। शायद इससे बेहतर विकल्प भी नहीं था। संकटकाल में व्यवस्था को गतिशील रखने का इससे बेहतर तरीका और हो भी क्या सकता था। छात्र के पास स्मार्टफोन हो या न हो। उस क्षेत्र में सिग्नल हो या न हो। जिस फोन से बच्चों को दूर रखने के भाषण दिये जाते थे। जिस के दुष्परिणामों की दुहाई दी जाती थी उसे ही संकटमोचक के रूप में स्वीकार करने की विवशता इस युग की विडंबना सिद्ध हुई है।
इससे भी अगला कदम ऑनलाइन शिक्षा के सदैव उपयोग होने की बुनियाद बनती जा रही है। तकनीकी और गैर तकनीकी शिक्षा का निश्चित प्रतिशत आरक्षित करने के प्रावधान आरंभ हो गए हैं। सफलता या असफलता का आकलन तो भविष्य के इतिहासकार करेंगे लेकिन इस सत्य को स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं है। अध्यापक की भूमिका बदले स्वरूप में होगी। यदाकदा साक्षात्कार होगा, अधिकतर शिक्षक के स्थान पर यंत्र होगा। अन्य व्यवसाय करते हुए भी डिग्री ली जा सकेगी। ऐसे वातावरण में अनेक प्रकार के शिक्षित लोग और विषय के विशेषज्ञ रहेंगे, चाहे कला का क्षेत्र हो या इंजीनियरिंग हो अथवा अन्यान्य कोर्स हों।
ऐसे परिवेश में अपनी प्रतिभा और दक्षता को सही मंच पर उजागर करने की चुनौती भी सदा बनी रहेगी। शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक स्वास्थ्य की समस्या तो है ही उसके साथ गरीब और जरूरतमंदों की सहायता जिससे वे फोन आदि खरीद सकें ऐसी व्यवस्था रहनी चाहिए। जबतक कोरोना है तबतक तो सबकुछ ऑनलाइन है, इसके बाद भी समाज को समय और परिस्थिति के अनुरूप ढालना ही पड़ेगा।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
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