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महाकुंभ से कनेक्शन… बिहार में मौजूद है सागर मंथन का सबूत

January 03, 2025

नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के प्रयागराज (Prayagraj) में महाकुंभ-2025 (Mahakumbh-2025) की तैयारियां पूरी हो चुकी हैं. श्रद्धालुओं के कदम प्रयागराज (Prayagraj) के पवित्र संगम तट (Holy Sangam Beach) की ओर बढ़ चले हैं. मानव जीवन के लिए जल तो वैसे भी अमृत है और तीन नदियों का संगम स्थल प्रयागराज (Prayagraj) तो वैसे भी वह जगह, जिसका अमृत से सीधा संबंध है. विष्णु पुराण और स्कंद पुराण में जिस कथा का वर्णन हुआ है, उसके मुताबिक सागर मंथन से जब अमृत निकला तो उसे पाने के लिए देवों और असुरों के बीच छीना झपटी होने लगी. इसी छीना-झपटी में अमृत कलश से छलककर अमृत चार स्थानों पर गिरा, जिसमें संगम तट भी एक है।


सागर मंथन के लिए क्या हुई तैयारी?
अमृत पाने के लिए सागर मंथन कैसे हुआ, इसकी कथा भी रोचक है. पुराणों में वर्णित कहानी के अनुसार, देवराज ने भगवान विष्णु की सलाह मानकर असुरों को समुद्र मंथन के लिए मना लिया. इसकी सूचना जैसे ही त्रिलोक में फैली तो सागर मंथन के लिए तैयारियां की जाने लगीं. सवाल उठा कि इतने विशाल सागर को मथा कैसे जाए? इसका उपाय भी भगवान विष्णु ने बताया. उन्होंने मंदार पर्वत को इस कार्य के लिए मथानी की तरह प्रयोग करने का सुझाव दिया. अब अगला सवाल उठा कि इतने विशाल पर्वत के लिए रस्सी कैसी होनी चाहिए. इस समस्या का समाधान महादेव शिव ने किया. उनके कंठहार नागराज वासुकी ने इस विशाल मथानी के लिए रस्सी बनना स्वीकार किया. इस तरह सागर मंथन की तैयारी पूरी हो गई।

नारद मुनि की एक चाल से बची देवताओं की जान
अब तय दिन सभी देवता और असुर समुद्र के किनारे पहुंचे, लेकिन एक समस्या और थी. समुद्र मंथन के समय पहाड़ की रगड़ से वासुकी नाग को जब खरोंच लगती तो वह कई बार गुस्से में डंस भी सकता था. यह उसका प्राकृतिक स्वभाव था. इसलिए वासुकी नाग को मुंह की ओर से पकड़ना खतरे से खाली नहीं था. तब देवताओं की समस्या का समाधान नारद मुनि ने दिया. उन्होंने कहा कि, असुरों के आने से पहले ही सभी देवता वासुकी के मुख की ओर खड़े हो जाएं. देवता इसका आशय समझ नहीं सके, लेकिन उन्होंने वैसा ही किया, जैसा देवर्षि नारद ने कहा था।

अब जैसे ही असुर वहां पहुंचे तो उन्होंने देखा कि देवता पहले से ही वासुकी नाग के मुख की ओर खड़े हैं. उन्होंने इसका विरोध किया और कहा कि, इन देवताओं ने हमें हमेशा ही कमतर समझा है. दोयम दर्जे का माना है. इसीलिए इन्हें वासुकी का मुख पकड़ने को दिया गया है और हमें इसकी पूंछ. आखिर हम किसी के चरण क्यों पकड़ें? नारद मुनि के सिखाए अनुसार देवता भी इस बात पर अड़े रहे कि, वासुकी नाग का मुख तो वही पकड़ेंगे. पूंछ का भाग असुरों को पकड़ना होगा।

इस पर काफी देर तक तर्क-वितर्क चलता रहा. बात बिगड़ती देखकर नारद मुनि मध्यस्थता के लिए आए और देवराज इंद्र को समझाने के अंदाज में बोले, कि हमारा लक्ष्य अमृत पाना है. आप थोड़ा बड़प्पन दिखाइए, असुरों को कह दीजिए कि वही वासुकी का मुख पकड़ें. देवराज इंद्र ने ऐलान किया कि देवताओं ने असुरों से हार नहीं मानी है, लेकिन देवर्षि नारद की बात के सम्मान में वह और अन्य देवता पूंछ की ओर होने के लिए तैयार हैं। नारद मुनि की इस चालाकी का असर ये हुआ कि अभिमानी असुरों को सागर मंथन के दौरान कई बार नागराज वासुकी के मुख से निकलने वाले जहर का सामना करना पड़ा. देवता इससे बच गए।

…जब भगवान विष्णु ने लिया कूर्म अवतार
दोनों पक्षों में कौन किस ओर रहेगा यह तय होने के बाद जब मंथन शुरू हुआ तब एक और परेशानी सामने आ खड़ी हुई. मंदार पर्वत को जैसे ही सागर में उतारा गया वह स्थिर नहीं रह सका और इसके तल की ओर डूबता ही चला गया. अब जबतक पर्वत स्थिर न हो तो सागर मंथन कैसे हो? इस समस्या के समाधान के लिए फिर से सभी ने भगवान विष्णु को पुकारा. करुण पुकार सुनकर और शिवजी के निवेदन को मानकर भगवान विष्णु ने इसी दौरान एक प्रमुख अवतार लिया।

दशावतारों में दूसरा है कूर्म अवतार
भगवान विष्णु एक विशाल कछुए के रूप में आए और उन्होंने मंदार पर्वत को अपनी पीठ पर धारण किया. इस तरह पर्वत स्थिर हो सका और सागर तल में डूबने से बच गया. भगवान विष्णु का यह अवतार उनके दस अवतारों में से दूसरा है. इसे कूर्म अवतार के नाम से जाना जाता है. मानव विकास के क्रम को देखें तो यह दूसरा अवतार जल और स्थलीय प्राणियों के बीच की एक कड़ी है. कछुआ जल और स्थल दोनों में रह सकता है. इससे पहले भगवान विष्णु का पहला अवतार मत्स्य यानी मछली का था जो कि पूर्ण विकसित जलीय प्राणी है. कूर्म अवतार के नाम पर ही 18 पुराणों में से एक कूर्म पुराण की रचना की गई है. इस पुराण में भी सागर मंथन की कथा का विस्तार से जिक्र मिलता है।

अब कहां है मंदार पर्वत?
पौराणिक मान्यता के अनुसार, जिस मंदार पर्वत (या मंदराचल) का उपयोग सागर मंथन के दौरान मथानी के रूप में किया गया था, वह आज के समय में बिहार राज्य के बांका जिले में स्थित है और इसे मंदार हिल के नाम से जाना जाता है. यह भागलपुर से लगभग 45 किमी दूर है. हालांकि यह स्थल हिंदू और जैन दोनों के लिए पवित्र है. हिंदू मान्यता के अनुसार, यह वही पर्वत है जिसे सागर मंथन में प्रयोग किया गया था तो जैन धर्म में इसे भगवान वासुपूज्य (12वें तीर्थंकर) से जोड़ा जाता है. मंदार पर्वत पर सर्प कुंड और अन्य प्राकृतिक चिह्न मौजूद हैं, जिन्हें सागर मंथन की घटनाओं से जोड़ा जाता है।

कहते हैं कि इस पर्वत के चारों ओर आज भी वासुकी नाग की रगड़ के निशान हैं. पर्वत पर ऊपर चोटी तक सर्पिल आकार की रेखाएं दिखाई देती हैं और इन्हें लेकर मान्यता है कि यही वो निशान हैं जो सागर मंथन के दौरान वासुकी नाग की रगड़ से लगे थे।

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