भोपाल। कुछ साल पहले तक बसपा उपचुनाव के नाम से बिदकती थी। पार्टी किसी भी उपचुनाव में उम्मीदवार नहीं उतारती थी, पर पिछले कुछ महीनों से काफी बदली-बदली दिख रही पार्टी ने मध्य प्रदेश में अक्टूबर में संभावित सभी 27 विधानसभा सीटों के उपचुनाव में उम्मीदवार लड़ाने की घोषणा करके मुकाबले में एक नया कोण पैदा कर दिया है। बसपा पहले भी मध्य प्रदेश की चुनावी राजनीति में हिस्सा लेती रही है, यद्यपि उसने नतीजों से कभी चौंकाया नहीं। बहरहाल बुंदेलखंड और चंबल क्षेत्र में इक्का-दुक्का सीटें जीतकर, जबकि कई सीटों पर मुख्य मुकाबले में रहकर पार्टी यह जरूर साबित करती रही कि मध्य प्रदेश में उसके पास पैर रखने के लिए जमीन की कमी नहीं है। वह खुद चुनाव भले न जीत सके, पर हार-जीत के समीकरणों में उलटफेर करने की हैसियत रखती है।
यह बात भी उल्लेखनीय है कि उपचुनाव की 27 में 16 सीटें ग्वालियर-चंबल क्षेत्र की हैं, जहां सामाजिक-राजनीतिक कारणों से बसपा की जमीन अधिकतर अन्य अंचलों के मुकाबले मजबूत है। इस पृष्ठभूमि में बसपा द्वारा सभी सीटों पर चुनाव मैदान में उतरने के निश्चय से न सिर्फ राजनीतिक सरगर्मी बढ़ गई है, बल्कि उसके इस पैंतरे की मंशा पर भी अटकलबाजी शुरू हो गई है। अधिकतर लोगों को लगता है कि बसपा फैक्टर की वजह से कांग्रेस की राह कठिन हो जाएगी और भाजपा की आसान। बसपा पिछले कुछ महीनों से भाजपा की केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार के प्रति नरमी दिखा रही है जिस पर अन्य विपक्षी दल, खासकर कांग्रेस कटाक्ष भी कर चुकी है। ऐसे में मध्य प्रदेश में उपचुनाव लडऩे की अप्रत्याशित योजना से बसपा पर भाजपा के साथ नजदीकी बढ़ाने की तोहमत लगना तय है। यह अलग बात है कि बसपा इस आरोप का लगातार खंडन करती आ रही है।
कमलनाथ लगातार कर रहे हैं होमवर्क
उपचुनाव के नतीजे प्रदेश में सत्ता के समीकरणों पर असर डालेंगे। कांग्रेस यदि 27 में 10-12 सीटें जीत जाती है तो वह शिवराज सरकार के सामने वैसे ही हालात पैदा करने की कोशिश करेगी, जैसे कुछ महीने पहले कमलनाथ सरकार के सामने पैदा हुए थे। पार्टी के सूत्र स्वीकार करते हैं कि इसके लिए कमलनाथ निर्दलियों और कांग्रेसी पृष्ठभूमि वाले कुछ भाजपा विधायकों के साथ होमवर्क कर रहे हैं। ये बातें भाजपा नेतृत्व से भी छिपी नहीं होंगी, इसलिए पार्टी उपचुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा साफ करने की रणनीति अख्तियार किए हुए है। ऐसे हालात में बसपा की भूमिका कई सीटों पर निर्णायक साबित हो सकती है। यह माया-जाल कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। उपचुनाव नतीजों और कमलनाथ की सत्ता में वापसी की ख्वाहिश का काफी कुछ दारोमदार इसी बात पर निर्भर करेगा कि कांग्रेस नेतृत्व बसपा फैक्टर से किस तरह पार पाता है।
कांग्रेस की बढ़ेगी परेशानी
बसपा और कांग्रेस का बैर जगजाहिर है। दलित वोटबैंक पर वर्चस्व की दृष्टि से भी बसपा चाहती होगी कि कांग्रेस इसी तरह कमजोर बनी रहे। इसके बावजूद नैतिकता के बजाय व्यावहारिकता को महत्व देने वाली बसपा उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के साथ गठबंधन करके एक बार विधानसभा चुनाव लड़ चुकी है। उस चुनाव का अनुभव उसके लिए अच्छा नहीं रहा, इसलिए दोनों पार्टियां फिर कभी दोबारा नजदीक नहीं आईं। यह माना जाता है कि 2019 लोकसभा चुनाव में बसपा की आपत्ति के कारण ही कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में अकेले चुनाव लडऩा पड़ा था जिससे उसकी खासी फजीहत हुई थी। कांग्रेस नेतृत्व समय-समय पर बसपा पर भाजपा को लाभ पहुंचाने का आरोप लगता रहा है जिसकी परवाह किए बगैर पार्टी मध्य प्रदेश के उपचुनावों में कांग्रेस की परेशानी बढ़ाने के लिए कमर कस रही है। प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ लगभग रोज कह रहे हैं कि उपचुनाव नतीजे आते ही कांग्रेस सत्ता में वापस आ जाएगी। कमलनाथ पार्टी की सॉफ्ट हिंदुत्व की लाइन को भी पकड़े हुए हैं। वह लोगों को समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि अयोध्या में श्रीराम मंदिर का निर्माण कांग्रेस के प्रयास का नतीजा है। इन प्रसंगों से समझा जा सकता है कि ये उपचुनाव कांग्रेस के लिए किस कदर महत्वपूर्ण हैं, पर शिवराज-ज्योतिरादित्य की नई जोड़ी जाने-अनजाने बसपा का कवर लेकर किस हद तक आक्रामक होगी, यह अनुमान लगाना भी कठिन नहीं है।
©2024 Agnibaan , All Rights Reserved