नई दिल्ली । कांग्रेस का आरोप (Congress’s Allegation) है कि कर्ज को बट्टे खाते में डालना (To write off Debt) ही असली मुफ्त की गजक है (Real Freebies)। पार्टी का कहना है कि खाद्य सुरक्षा अधिनियम, मनरेगा और अन्य जैसी कल्याणकारी योजनाएं, (जो लोगों को गरीबी से ऊपर उठाने के लिए बनाई गई हैं) मुफ्त नहीं हैं ।
पार्टी ने आरोप लगाया कि पिछले पांच वर्षों में बैंकों द्वारा 9.92 लाख करोड़ रुपये के ऋण को बट्टे खाते में डाला गया, 7.27 लाख करोड़ रुपये सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का हिस्सा है। पार्टी ने आरोप लगाया कि पिछले पांच वर्षों में बैंकों द्वारा 9.92 लाख करोड़ रुपये के ऋण को बट्टे खाते में डाला गया, 7.27 लाख करोड़ रुपये सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का हिस्सा है। संसद में दिए गए जवाब में सरकार ने स्वीकार किया कि पिछले पांच वर्षों में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा बट्टे खाते में डाली गई राशि में से केवल 1.03 लाख करोड़ रुपये की रिकवरी की गई है, यानी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने पिछले पांच वर्षों में बट्टे खाते में डाली गई राशि का 14 फीसदी रिकवर किया।
यह भी मान लिया जाए कि आने वाले समय में बट्टे खाते में डाले गए कर्ज से वसूली बढ़कर 20 फीसदी हो जाएगी, लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने 5.8 लाख करोड़ रुपये के कर्ज की वसूली नहीं की है। यहां जरूरी है कि अगर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का कर्ज डूबता है, तो देश के करदाताओं का पैसा डूबता है।
पार्टी ने कहा कि खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 के आधार पर भाजपा सरकार ने कोरोना महामारी के दौरान 80 करोड़ नागरिकों को मुफ्त राशन वितरित किया। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम भी सरकार को किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खाद्यान्न खरीदने के लिए बाध्य करता है। “हम राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के खिलाफ नहीं हैं, जिसके कारण 60 प्रतिशत भारतीयों को महामारी के दौरान मुफ्त राशन मिल रहा है। हम किसानों को एमएसपी देने के खिलाफ नहीं हैं, हम इसे ‘मुफ्त की रेवाड़ी’ नहीं मानते हैं। हम उन्हें अपने देश की विकास गाथा का भागीदार बनाने के रूप में, हैंडहोल्डिंग के रूप में मानते हैं।”
पार्टी ने कहा कि गरीबों को दी जाने वाली छोटी राशि या सहायता को मुफ्त में वर्गीकृत किया जाता है, जबकि सरकार के अमीर दोस्तों को कम कर दरों, बट्टे खाते में डालने और छूट के माध्यम से जो मुफ्त मिल रहे हैं, उन्हें आवश्यक प्रोत्साहन के रूप में वर्गीकृत किया गया है, यह सरकार से हमारा सवाल है। यूपीए सरकार ने जो सहायता दी थी, उसके नतीजे भी सामने हैं- मिड डे मील योजना के कारण सरकारी स्कूलों में सकल नामांकन अनुपात दोगुना हो गया था।
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा), 2005, प्रत्येक ग्रामीण परिवार को एक वित्तीय वर्ष में न्यूनतम 100 दिनों के रोजगार की गारंटी देता है। लॉकडाउन के दौरान जब करोड़ों लोग शहरों से अपने गांवों की ओर पलायन करने को मजबूर हुए तो मनरेगा ने काम मुहैया कराया। मई 2022 में 3.07 करोड़ परिवारों ने मनरेगा के तहत रोजगार की मांग की थी। इसके बावजूद सरकार ने चालू वित्त वर्ष के लिए मनरेगा के आवंटन को घटाकर 73,000 करोड़ रुपये कर दिया।
पार्टी ने कहा कि गरीबों को दी जाने वाली छोटी राशि या मुफ्त सहायता (रेवाड़ी) है, जबकि मुफ्त में अमीर दोस्तों को कम टैक्स दरों, राइट ऑफ और छूट के जरिए हर समय मिलने वाली छूट ‘जरूरी प्रोत्साहन’ (गजक) है। वल्लभ ने कहा, “हम बुरे समय के दौरान नागरिकों का हाथ पकड़ने के खिलाफ नहीं हैं। हम हर ग्रामीण परिवार को 100 दिन का रोजगार देने के खिलाफ नहीं हैं। हम मध्याह्न् भोजन के खिलाफ नहीं हैं।”
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