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कांग्रेस आलाकमान कमलनाथ को दिल्ली बुलाने को बैचेन लेकिन वह तैयार नहीं, पीछे है बड़ा कारण

August 18, 2021

 

भोपाल। कांग्रेस (Congress) के अंदर ‘इंटरनल पॉलिटिक्स’ (“Internal Politics”) बहुत धारदार होती है। पिछले काफी समय से कमलनाथ (Kamalnath) को दिल्ली (Delhi) शिफ्ट कराने की कोशिशें चल रही हैं। मगर कमलनाथ (Kamalnath) हैं कि दिल्ली (Delhi) आने को तैयार नहीं हैं। दिल्ली आने का मतलब मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) छूट जाना है और वह किसी भी कीमत पर दोबारा मुख्यमंत्री बनकर ज्योतिरादित्य सिंधिया (Jyotiraditya Scindia) से अपना हिसाब चुकता कर लेना चाहते हैं।

कहा जा रहा है कि जब उन पर नैशनल पॉलिटिक्स में भूमिका निभाने का दबाव बढ़ गया तो उन्होंने अपने लिए नई भूमिका की पेशकश की, जिससे वह नैशनल पॉलिटिक्स में भी आ जाएं और मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) भी उनसे न छूटने पाए। वह हिंदी राज्यों के दलों के साथ समन्वय की जिम्मेदारी लेना चाहते हैं। ज्यादातर हिंदी राज्यों में कांग्रेस (Congress) की स्थिति कमजोर है और वहां के इलाकाई दलों के साथ भी कांग्रेस का बेहतर कोआर्डिनेशन नहीं बन पा रहा है।

यूपी, जहां से 80 लोकसभा की सीटें आती हैं, वहां पर कांग्रेस की दोनों दलों-एसपी और बीएसपी से दूरी बनी हुई है। 40 सीट वाले बिहार में भी आरजेडी का कांग्रेस के साथ अनुभव अच्छा नहीं रहा है। विधानसभा चुनाव में सत्ता से दूर रहने की वजह वह कांग्रेस को ही मानती है। पार्टी के कई सीनियर नेता यह बयान भी दे चुके हैं कि विधानसभा चुनाव में अगर कांग्रेस ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने की जिद न करती तो एनडीए को हराया जा सकता था।

कमलनाथ के राजनीतिक अनुभव और अन्य दलों के नेताओं के साथ उनके बेहतर संबंधों को देखते हुए माना जा रहा है कि वह कांग्रेस के लिए उन दलों से तालमेल कर सकते हैं। देखने वाली बात होगी कि उनके इस नए प्रस्ताव पर कांग्रेस आलाकमान का क्या फैसला होता है? आलाकमान अगर उनकी इस भूमिका के लिए हामी भरता है तो उन्हें फौरी तौर पर यूपी के लिए अन्य दलों के साथ रास्ता बनाना होगा।

डेरा डालने का मकसद

कांग्रेस नेतृत्व ने भले ही टीएस सिंह देव को बता दिया हो कि सीएम बदला जाना अभी मुमकिन नहीं है और चुनाव के वक्त अगर ढाई-ढाई साल मुख्यमंत्री रहने का कोई वादा किया भी गया था, तो उसे भूल जाना ही बेहतर होगा। लेकिन टीएस सिंह देव ने अभी अपनी उम्मीदें नहीं छोड़ी हैं। पिछले सप्ताह वह ऑफिस नहीं आ रहे थे। शुरू में तो यह समझा गया कि हो सकता है कोई स्थानीय व्यस्तता हो। लेकिन जब यह जानकारी मिली कि वह तो छत्तीसगढ़ में हैं ही नहीं, दिल्ली में डेरा डाले हुए हैं तो सीएम कैंप में भी हड़कंप मच गया।

यह टटोलने की कोशिश शुरू हुई कि उनके दिल्ली में डेरा डालने का प्रयोजन क्या है, वह किसके भरोसे दिल्ली में हैं और अब तक किन-किन नेताओं से उनकी मुलाकात हो चुकी है। वैसे मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के लिए तसल्ली की बात यह है कि दिल्ली में अब तक उनके समीकरण अनुकूल चल रहे हैं। पिछले कई राज्यों के चुनाव में वह कांग्रेस पार्टी की कई तरह की जरूरतों में काफी हद तक मददगार भी बने।

लेकिन कांग्रेस पार्टी के लिए टीएस सिंह देव का दिल्ली में डेरा डालना इस वजह से चिंता का सबब हो सकता है कि वह अब सिर्फ ढाई साल की नहीं सोच रहे हैं। उन्होंने राज्य में अपने सियासी भविष्य की बाबत भी फिक्र शुरू कर दी है। उन्हें मालूम है कि अगर बघेल पांच साल का कार्यकाल पूरा करते हैं तो पार्टी अगला चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में लड़ेगी। अगर पार्टी दोबारा सत्ता में आ जाती है तो जीत का श्रेय बघेल को ही जाएगा और मुख्यमंत्री पद भी उन्हीं का होगा। तब तो उनके लिए मुख्यमंत्री पद पर पहुंचने की सभी संभावनाएं खत्म हो चुकी होंगी। जब कोई व्यक्ति इतनी दूर की सोचने लगे तो उसका फैसला भी दूरगामी ही होता है।

प्रधान ने क्यों बताई जाति?

पिछले संसद सत्र के दौरान शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने सदन के भीतर अपनी जाति बताई। कहा कि वह भी कुर्मी हैं। कुर्मी पिछड़ी जाति में आते हैं। उन्होंने पेट्रोलियम मंत्री रहने के दौरान के बहुत सारे आंकड़े भी प्रस्तुत किए कि किस तरह से उनके कार्यकाल में गैस एजेंसी और पेट्रोल पंप के आवंटन में पिछड़ी जाति के युवाओं को तरजीह मिली। प्रधान का अपनी जाति बताना सियासी गलियारों में चर्चित इस वजह से हुआ कि उनकी जाति को लेकर अभी तक खासा भ्रम बना हुआ था।


यूपी में अगले छह महीनों के भीतर विधानसभा के चुनाव होने हैं। वहां पिछड़ी जाति में आने वाले कुर्मी बहुत प्रभावशाली माने जाते हैं। उनका समर्थन बनाए रखने के लिए ही बीजेपी ‘अपना दल’ को केंद्र से लेकर प्रदेश तक में सत्ता में साझेदार बनाने को मजबूर हुई है। कहा जाता है कि इसी वजह से प्रधान ने भी अपनी जाति सार्वजनिक की। लेकिन एक दूसरी राय भी है। इसके मुताबिक पेट्रोलियम मंत्रालय से शिक्षा मंत्रालय में आना प्रधान को रास नहीं आया है।

जब मोदी सरकार को ओबीसी सरकार कहा जाता हो तो प्रधान ने भी इशारों-इशारों में यह बताने की कोशिश की कि वह भी पिछड़ी जाति के हैं, पेट्रोलियम मंत्री रहते उन्होंने पिछड़ों के लिए काफी कुछ किया भी था, फिर उनका मंत्रालय क्यों बदल दिया गया? सीधे तौर पर तो वह शिकायत दर्ज कराने की स्थिति में हैं नहीं, इसलिए ओबीसी बिल पर जब उन्हें बोलने का मौका मिला तो उन्होंने मौके का फायदा उठा लिया। इसी को कहते हैं कि कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना।

साइड इफेक्ट तो समझ लें

यूपी में पिछले दिनों बीजेपी ने बीएसपी के एक पूर्व विधायक को सदस्यता दी। एक हफ्ते के भीतर ही उनकी सदस्यता इस वजह से निरस्त करनी पड़ गई कि 2009 में वह तत्कालीन कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी का घर जलाने के आरोपी रहे हैं। रीता बहुगुणा जोशी अब बीजेपी सांसद हैं और उन्होंने अपने घर जलाने वाले को बिना उनकी सहमति के पार्टी में लेने पर गहरी नाराजगी जताई तो पार्टी की टॉप लीडरशिप को दखल देना पड़ा और स्टेट यूनिट को पूर्व विधायक की सदस्यता निरस्त करनी पड़ी।

खैर, यह सब तो पुरानी बात है, इसका नया अध्याय यह है कि पूर्व विधायक ने इस पूरे घटनाक्रम को अपने सम्मान से जोड़ लिया है। वह इसका बदला लेना चाहते हैं। बदला लेने के लिए उन्हें एक अदद मजबूत प्लैटफॉर्म चाहिए। कहा जा रहा है कि उन्होंने समाजवादी पार्टी से संपर्क किया है। वह चाहते हैं कि पार्टी उन्हें न केवल अपनी सदस्यता दे, बल्कि टिकट भी पक्का करे। उनके खिलाफ बीजेपी का जो भी उम्मीदवार होगा, उसे हराने की गारंटी उनकी।

समाजवादी पार्टी की लीडरशिप को यह ऑफर बुरा नहीं लग रहा है, लेकिन वह इसके साइड इफेक्ट्स का अच्छी तरह आंकलन कर लेना चाहती है। उधर बीजेपी की इस तरह की फजीहत पहली बार नहीं हुई है। पूर्व के वर्षों में भी बाहुबली डीपी यादव और एनआरएचएम घोटाले के आरोपी कुशवाहा को सदस्यता दिए जाने पर हुई फजीहत के बाद उसे उनकी सदस्यता रद्द करनी पड़ी थी। सवाल यह है कि किसी को पार्टी में शामिल करने से पहले स्कैनिंग इतनी लचर क्यों? केंदीय नेतृत्व ने इसी के मद्देनजर राज्य नेतृत्व को अच्छे से पड़ताल के बाद ही किसी को जॉइन कराने का निर्देश दिया है।

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