नई दिल्ली: हैदराबाद में दो दिवसीय कांग्रेस कार्य समिति (CWC) की बैठक में 2024 के लोकसभा चुनाव और इस साल होने वाले 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों के लिए रोडमैप तैयार किया गया. बीजेपी से मुकाबला करने के लिए कांग्रेस ने सीडब्ल्यूसी की बैठक में अपनी रणनीति में बड़ा बदलाव किया है. आरक्षण की निर्धारित सीमा को 50 फीसदी से बढ़ाने के साथ अब कांग्रेस ने ओबीसी राजनीति करने का मन बना लिया है, जिसके चलते ही जातिगत जनगणना की मांग को धार देने की स्ट्रेटजी बनाई गई है.
दरअसल, पीएम मोदी के फॉर्मूले से ही कांग्रेस बीजेपी को हराने का प्लान बना रही है. इसके तहत कांग्रेस अब दलित-आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदाय को साधते हुए ओबीसी वोटों को जोड़ने का खाका तैयार कर रही है. आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से बढ़ाने की डिमांड के पीछे भी कांग्रेस की ओबीसी राजनीति है. कांग्रेस का कहना है कि राहुल गांधी ने 2023 चुनाव में कनार्टक के कोलार की रैली में जिसकी जितनी संख्या उसकी उतनी हिस्सेदारी का नारा दिया था. पार्टी लगातार इस पर आगे बढ़ रही है.
नए सियासी समीकरण के साथ चुनावी रण में उतरने की तैयारी
सीडब्ल्यूसी की दो दिनों तक चली बैठक में जातिगत जनगणना के मुद्दे पर कांग्रेस ने जिस तरह से आगे बढ़ने की बात कही है, उससे एक बात तो साफ है कि कांग्रेस अब नए सियासी समीकरण के साथ चुनावी रण में उतरने की तैयारी कर रही है. इतना ही नहीं सीडब्ल्यूसी की बैठक में पार्टी ने आरक्षण की फिक्स सीमा को भी बढ़ाने की मांग रखी है. इसे लेकर कांग्रेस बकायदा अभियान भी चलाने की योजना बना रही है ताकि सरकार पर दबाव बनाने के साथ ओबीसी वर्ग के विश्वास को भी हासिल किया जा सके.
कांग्रेस यह मान रही है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में ओबीसी समुदाय महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा. पिछले दो लोकसभा चुनाव से ओबीसी समाज बीजेपी का कोर वोटबैंक बन चुका है. बीजेपी ने 2014 में नरेंद्र मोदी के चेहरे को आगे करके ओबीसी वोटों का भरोसा जीतने में सफल रही है और अपना एक मजबूत वोटबैंक बनाया है. ऐसे में कांग्रेस की रणनीति के लिहाज से ओबीसी काफी अहम हैं, जिसके चलते ही कांग्रेस ने अपना पूरा फोकस पिछड़ा वर्ग पर करने की रणनीति बनाई है.
क्यों कांग्रेस के विरोध में ओबीसी वर्ग की तमाम जातियां?
आजादी के बाद कांग्रेस का परंपरागत वोटबैंक दलित-मुस्लिम-ब्राह्मण हुआ करता था. कांग्रेस इसी जातीय समीकरण के सहारे लंबे समय तक सियासत करती रही है. ओबीसी वर्ग की तमाम जातियां कांग्रेस का विरोध करती रही हैं. ऐसे में पारंपरिक रूप से कांग्रेस को पिछड़े वर्ग और आरक्षण का विरोधी माना जाता रहा है और बार-बार राजीव गांधी के उस भाषण का हवाला दिया जाता रहा है, जिसमें उन्होंने लोकसभा में मंडल कमीशन की रिपोर्ट का विरोध किया था.
देश में ओबीसी समुदाय को आरक्षण देने के लिए मंडल कमीशन का गठन 1979 में जनता पार्टी के सरकार के दौरान हुआ था. 11 साल के बाद वीपी सिंह सरकार में 7 अगस्त 1990 को देशभर में पिछड़ी जातियों को 27 फीसदी आरक्षण देने का ऐलान किया गया. दोनों ही बार गैर-कांग्रेस पार्टी की सरकार थी. हालांकि, मंडल कमीशन को लेकर कोर्ट में चुनौती दी गई और 1992 में सुप्रीम कोर्ट से फैसला आया तो कमीशन की सिफारिशों को लागू करने के लिए कांग्रेस सरकार ने 8 सितंबर 1993 को अधिसूचना जारी कर दी.
कांग्रेस कैसे राजनीतिक हाशिए पर पहुंच गई?
मंडल कमीशन के बाद देश की सियासत ही पूरी तरह से बदल गई और ओबीसी आधारित राजनीति करने वाले नेता उभरे, जिनमें मुलायम सिंह यादव से लेकर लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, शरद यादव जैसे मजबूत क्षत्रप रहे. ओबीसी सियासत इन्हीं नेताओं के इर्द-गिर्द सिमटती गई और कांग्रेस धीरे-धीरे राजनीतिक हाशिए पर पहुंच गई. राम मंदिर आंदोलन और कांशीराम की दलित राजनीति ने कांग्रेस का सियासी खेल ही बिगाड़ दिया. मुस्लिम से लेकर दलित और ब्राह्मण वोटर भी खिसक गए.
देश में करीब आधी से ज्यादा आबादी ओबीसी समुदाय की है, जो किसी भी राजनीतिक दल का चुनाव में खेल बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखते हैं. मंडल कमीशन के लिहाज से देखें तो करीब 52 फीसदी ओबीसी समुदाय की आबादी है, जो यूपी, बिहार में पूरी तरह से कांग्रेस के खिलाफ हो गई थी. ऐसे में कांग्रेस की केंद्र में 2004 में एक बार फिर से सरकार बनी तो 2007 में उच्च शिक्षा के केंद्रीय संस्थानों में ओबीसी को आरक्षण दिया.
कांग्रेस को इस दौरान काफी विरोध झेलना पड़ा और मध्य वर्ग के बीच उसकी साख कमजोर भी हुई. इसके बावजूद ओबीसी के बीच कांग्रेस की पकड़ नहीं बना सकी. ओबीसी अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग पार्टियों के बीच बंटा हुआ है, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी नरेंद्र मोदी को पीएम का चेहरा बनाकर ओबीसी समुदाय को साधने में सफल रही. इसके बाद को ओबीसी की सियासत करने वाली क्षेत्रीय दलों के लिए भी सियासी संकट खड़ा हो गया. बीजेपी ओबीसी वोटों पर अपनी पकड़ बनाए रखने में जुटी है.
चार राज्यों में से तीन में ओबीसी समुदाय से मुख्यमंत्री
ओबीसी वोटों की सियासी ताकत को देखते हुए हुए ही कांग्रेस ने ओबीसी वोटों पर फोकस करना ही नहीं बल्कि आक्रमक राजनीति भी शुरु कर दी है. राजस्थान में अशोक गहलोत, छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और कर्नाटक में सिद्धारमैया को सीएम बनाया. इस तरह कांग्रेस चार राज्यों में से तीन में ओबीसी समुदाय से मुख्यमंत्री बना रखा है. कांग्रेस के 85वें अधिवेशन में एक बड़ा परिवर्तन अपनी नीति में किया. कांग्रेस ने सामाजिक न्याय और जातिगत जनगणना की मांग को लेकर प्रस्ताव पास किया.
ओबीसी का भरोसा जीतने के लिए कांग्रेस ने अपनी नीतियों में बड़ा बदलाव करते हुए पार्टी संगठन में ब्लॉक कमेटी से लेकर सीडब्ल्यूसी तक 50 फीसदी सदस्य दलित-ओबीसी-अल्पसंख्यक और आदिवासी समुदाय से बनाए जाने का फैसला किया था. वहीं, हैदराबाद में सीडब्ल्यूसी की दो दिनों की बैठक में कांग्रेस ने सामाजिक न्याय की दिशा में बड़ा फैसला किया, जिसमें आरक्षण की सीमा को 50 फीसदी से बढ़ाने और जातिगत जनगणना जैसे मुद्दे को एजेंडे को शामिल किया है.
कितना सफल होगा कांग्रेस का दांव?
कांग्रेस अब बीजेपी से मुकाबला करने के लिए सामाजिक न्याय की दिशा में आगे बढ़ने के लिए कदम बढ़ा रही है. इसके लिए राहुल गांधी के उस नारे को रखा जा रहा ‘जिसकी जितनी भागेदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’. इस तरह कांग्रेस आबादी के लिहाज से आरक्षण देने की पैरवी शुरू कर दी है, जिसके पीछे सियासी मकसद को भी समझा जा सकता है.
इस साल होने वाले देश के जिन पांच राज्यों में चुनाव होने हैं, उनमें देखें तो राजस्थान में 55 फीसदी, मध्य प्रदेश 52 फीसदी, छत्तीसगढ़ में भी 50 फीसदी ओबीसी समाज की आबादी है. इस तरह उत्तर प्रदेश, बिहार और देश के दूसरे राज्यों में भी 50 फीसदी के करीब ओबीसी मतदाता है, जिन्हें कांग्रेस अपने पाले में लाने की कोशिशों के तहत बड़ा बदलाव किया. देखना है कि यह दांव कितना सफल होता है?
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