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    विकास की दौड़ में आम आदमी

  • May 20, 2022

    -सुरेश सेठ

    आजादी के बाद देश की विकास यात्रा का समय पौन सदी पार कर गया, और अब मूलभूत आर्थिक ढांचे के लक्ष्य निर्धारण के साथ, हमने उसे शताब्दी मील पत्थर तक ले जाने की घोषणा कर दी है। विश्वास कि जब सन‍् 2047 आयेगा और जन-जन का कल्याण हो जायेगा। उत्सवधर्मी हैं हम लोग। अमृत महोत्सव अपनी आजादी की उड़ान का हमने मना लिया और अब शतकीय उत्सव मनाने की उत्सुकता है। तब तक सबकी आर्थिक सामर्थ्य बढ़कर महंगाई को बौना कर देगी। इंटरनेट और डिजिटल युग का सम्पूर्ण आविर्भाव एेसी चाकचौबन्द पीढ़ी पैदा करेगा, कि लालफीताशाही को थपथपाता राजनीतिक भ्रष्टाचार मुंह छिपाने लगेगा। दुनिया का सबसे युवा और मेहनती देश है अपना भारत। आधी आबादी काम कर सकने की तय रेखा में है। स्किल्ड भारत इसे इस योग्य बना देगा कि अपनी युवा शक्ति तब अपने देश का नवनिर्माण करती नजर आयेगी।

    सन‍् 2047 में स्वर्ण युग का सपना या उसकी नयी उम्मीद कोरोना से मुक्त होते भारत को नये उत्साह से भर देती है। लोग आज के इस विकट वर्तमान में अपनी सब विडंबनाओं को धीरज के साथ सहने के लिए तैयार हो जाते हैं, ताकि पौन सदी से देश के स्थगित होते हुए मूल आर्थिक ढांचे का निर्माण उन्हें अगले पच्चीस बरसों से मिल जाये और पच्चीस साल के बाद अपना शतकीय स्वाधीनता उत्सव मनाते हुए इस देश के वासी पूरे उत्साह के साथ कह सकें,

    ‘जी हां, लो अब हमारे अच्छे दिन वास्तव में आ ही गये। तब हर काम मांगते हाथ को समुचित काम मिले। नौकरशाही का परिचय बनी संपर्क और हथेली गर्म करने वाली संस्कृति विदा होगी। भुखमरी से सुरक्षा देने वाली सरकार अब संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रेषित ये आंकड़े पढ़कर चकराती नहीं, कि इस देश में हत्याओं से अधिक आत्महत्याओं के मामले रिपोर्ट हो रहे हैं।’ लेकिन आज आजादी के पचहत्तर साल बाद उपलब्धियों का वायवीय नहीं बल्कि सही आकलन करते हैं तो पाते हैं कि कभी आजादी के बाद देश की विकास यात्रा का लक्ष्य हमारे संविधान निर्माताओं ने योजनाबद्ध आर्थिक विकास के साथ एक समतावादी समाज की स्थापना के साथ प्राप्त करने की घोषणा के साथ किया था। आज न पंचवर्षीय योजनाएं रह गयीं, न योजना आयोग। उसकी जगह नीति आयोग ने सार्वजनिक-निजी क्षेत्र की भागीदारी के तहत द्रुत आर्थिक विकास के साथ एक चमत्कारिक सफलता प्राप्त कर देने की घोषणा नीति के साथ कर दी है।



    नेहरू मॉडल की मिश्रित अर्थव्यवस्था भी अब कहीं नहीं रही। वहां क्रमश: विस्तृत होते हुए सार्वजनिक क्षेत्र की ‘न लाभ न हानि’ की नीति के तहत अपना अधिकतम जनकल्याण का लक्ष्य रखा गया था। निजी क्षेत्र का सह-अस्तित्व जिन्दा रहना था कि यह त्वरित लाभ की प्रेरणा के साथ देश के द्रुत आर्थिक विकास का जामिन होगा।

    वक्त बदला। उसके साथ-साथ सार्वजनिक क्षेत्र लाल फीताशाही से ग्रस्त हो पिछड़ता नजर आया और राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय धनकुबेरों की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भागीदारी ने देश की विकास दर को त्वरित उड़ान के पंख दे दिये। कम लागत और अत्याधिक लाभ की अन्धदौड़ इसकी वजह थी। सन‍् 1990 में डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा प्रतिपादित उदार नीति इसके दौड़ मार्ग को हमवार करने लगी।

    देश ने तरक्की की। देखते ही देखते धरती और अंतरिक्ष में हमारे उद्यमी से लेकर इसरो तक बड़ी शक्तियों के साथ आंखों में आंखें डालकर खड़े होने का दम भरने लगे। लेकिन इस बीच कोरोना महामारी के विकट काल की एक पूर्ण-अपूर्ण लॉकडाउन की ठोकर लगी और हमारी विकास दर लुढ़कने लगी। कतार में खड़ा आखिरी आदमी अच्छे दिनों के संस्पर्श से बेगाना हो गया, महंगाई कुछ इस प्रकार कुलांच भरने लगी कि रिकॉर्ड तोड़ कहलायी। बेकारी कुछ यूं बढ़ी कि बरसों से काम की उम्मीद में बैठी श्रमशक्ति अब राहत और रियायत संस्कृति की मोहताज हो गयी।

    हम तो दो आर्थिक बूस्टरों और निरंतर यथास्थिति वादी उदार साख नीति के साथ भारत को आत्म निर्भर बना रहे थे। स्टार्ट अप इंडिया बना रहे थे। स्किल्ड भारत की योजनाओं के साथ शहरी ही नहीं, करोड़ों ग्रामीण बेरोजगार हाथों को भी नया जीवन देने चले थे।

    लेकिन गिनती कुछ गलत हो गयी। आर्थिक बूस्टरों और उदार साख नीति ने स्वत: निवेश को प्रोत्साहित नहीं किया, अर्थाभाव से पैदा मंडी का भस्मासुर यहां निस्पंदता का अपना चमत्कार दिखाता। महानगरों से रोजगार के अवसर कम होने से इतनी श्रम शक्ति निठल्ली होकर अपने गांव-घरों की ओर लौट गयी कि उनके लिए अब न अपने गांव में किसी नये भविष्य की सुगबुगाहट है और न शहरों में कोई नया जीवन जागने की उम्मीद। वे वहीं त्रिशंकु की तरह अधर में लटके वह जीवन खोज रहे हैं जिसे जीने का उन्हें अधिकार है।

    इधर अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के आंकड़े कहते हैं कि यह असह्य महंगाई, पेट्रोल, डीजल और गैस के आपूर्ति असंतुलन से पैदा रिकॉर्ड तोड़ महंगाई और ऊर्जा संकट ने पैदा की है। अब इस महंगाई का नियंत्रण मौद्रिक नीति परिवर्तन और बढ़ती ब्याज दरों से हो रहा है। निश्चय ही यह निर्णय अवसादग्रस्त निवेश को हतोत्साहित करेगा। लेकिन इस समय पहली चिन्ता आम आदमी का बजट संवारने की है, जो गलत नहीं है। लेकिन एक सवाल। इस बीच कच्चे तेल के नये कुएं खोज का प्रयास क्यों नहीं हुआ? हम आज भी इसके पचासी प्रतिशत आयात पर क्यों निर्भर कर रहे हैं? इसके उत्पादक आयल एंड नैचुरल गैस कमीशन की कमाई तो महंगे पेट्रोलियम उत्पादों ने इस बरस बढ़ा दी है, लेकिन उसका उत्पादन क्यों घट गया?

    फिर इस जलती पर आग का काम इस बरस भी कोयले की कमी से पैदा गंभीर ऊर्जा और पॉवरकट संकट क्यों कर रहा है? इसके कारण चलते कल कारखानों के पक्षाघात का फिर मौसम क्यों आ गया? हर वर्ष ऊर्जा का वही संकट पैदा होता है। इस पैरवी के बावजूद कि कोयला ताप से उत्पादित विद्युत के विकल्प सोलर विद्युत, बायोगैस विद्युत और पनबिजली उत्पादन स्रोतों को पूरा विकसित किया जायेगा।

    बेशक अकादमिक स्तर पर विशेषज्ञों से लेकर देश के विधाताओं तक आज तक सब कर्णधार इसकी किताबी पैरवी करते रहते हैं, लेकिन नतीजा वही कथनी में करनी से अंतर क्यों? क्या अब समय नहीं आ गया कि 2047 के स्वर्ण शतकीय उत्सव का सपना देखने वाला भारत अपनी आर्थिक प्राथमिकताओं को बदले? अपने देश के निर्यात के रिकॉर्ड आंकड़े दिखाने का कोई अर्थ नहीं, अगर हम मूलभूत आर्थिक ऊर्जा के उत्पादन में घरेलू आत्मनिर्भरता प्राप्त नहीं करते? ये तेज आर्थिक विकास दर के आंकड़े देश को रोमांचित करते हैं, लेकिन इसके बावजूद अगर देश की वंचित-प्रवंचित जनसंख्या अपनी फटी जेब के साथ राहत बंटने के इंतजार में खड़ी रहे, तो क्या यह हमारे आत्मावलोकन का समय नहीं कि हमारी इस तेज विकास दौड़ में देश का साधारण जन पीछे न छूटे?

    लेखक साहित्यकार हैं।

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