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आओ थोड़ा सा तुम फागुन हो जाओ

March 07, 2023

– प्रभुनाथ शुक्ल

खेतों में फसलों की रंगत बदल गई है। सरसों के पीले फूल खत्म हो गए हैं। सरसों फलियों से गदाराई है। मटर और जौ की बालियां सुनहरी पड़ने लगी हैं। जवान ठंड अब बूढ़ी हो गई है। हल्की पछुवा की गलन गुनगुनी धूप थोड़ा तीखी हो गई है। घास पर पड़ी मोतियों सरीखी ओस की बूंदें सूर्य की किरणों से जल्द सिमटने लगी हैं। प्रकृति के इस बदलाव के साथ फागुन ने आहिस्ता-आहिस्ता कदम बढ़ा दिया है। टेशू , गेंदा और गुलाब फागुन की मस्ती में खिलखिला रहे हैं। अमराइयों में आम में लगे बौरों की मादकता अजीब गंध फैला रही है।

भौंरे कलियों का रसपान कर वसंत के गीत गुनगुना रहे हैं। पेड़ों से पत्ते रिश्ते तोड़ वसंत के स्वागत में धरती पर बिछ जाने को आतुर हैं। प्रकृति और उसका एहसास फागुन के होने की दस्तक देता है। लेकिन इंसान बिल्कुल बदल चुका है। वह फागुन को जीना नहीं चाहता है। वह प्रकृति से साहश्चर्य नहीं रखना चाहता है। वह उसे भी जीतना चाहता है। खुद नियंता बनाना चाहता है। शायद यहीं उसकी भूल है। फागुन में भौजाई की ठिठोली और मसखरी जाने कहां खो गई। फागुन के गीतों पर ढोल-मंजीरे की थाप सुनाई नहीं देती है। पूर्वांचल में फागुन के गीत फगुवा को गाने वाले लोग गायब हैं। अश्लील और गंदे भोजपुरिया गीतों का राज है। फाग गीत प्रकृति से जुड़े होते थे। लेकिन आजकल के गानों में सिर्फ अश्लीलता है। सभ्य समाज में ऐसे गीत सुनने लायक भी नहीं है। समय के साथ सब कुछ बदल रहा है। यह बदलाव तथ्य और अर्थहीन है।


फागुन प्रकृति का रंगोत्सव है। फागुन में प्रकृति बदल जाती है। वह मलंग हो जाती है। उसमें अजीब मादकता आ जाती है। फागुन और वसंत के जरिए प्रकृति हमें संदेश देती है कि जिस प्रकार मैं विविधताओं से भरी हूं उसी तरह मानव जीवन में भी रंगों की विविधताएं हैं। सुख-दुःख, हर्ष, विषाद, उल्लास, उत्सव भी जीवन के अपने रंग हैं। इसको खुल कर जीना चाहिए। फागुन जैसा जीना चाहिए। प्रकृति हमें संतुलन ही नहीं संतुष्टि भी सिखाती है। अफसोस हम उसके संदेश को पढ़ नहीं पाते हैं। जब पढ़ने की कोशिश करते हैं तो फागुन यानी वसंत गुजर गया होता है और हम पतझड़ को लेकर फिर परेशान हो जाते हैं। ऐसा इसलिए कि हम सिर्फ वसंत को जीना चाहते हैं। पतझड़ को नहीं।

माघ-फागुन के मौसम में चरखी से निकले गन्ना के रस में दही मिला सीखरन तैयार होता था। फिर मटर की सलोनी के साथ उसे पीने का आनंद और स्वाद ही अलग था। अब गांवों से गन्ने की खेती गायब हो चली है। कड़ाहे गुड़ और खांड की सोंधी गंध नाक को तृप्त नहीं करती। वह वक्त भी था जब पकती खांड में हम आलू डालने जाते तो दादा की खूब डांट मिलती। लेकिन सब कुछ बदल गया है। अब गांव कंकरीट के जंगल में तब्दील हो चुके हैं। धनाढ्यों ने कई मंजिला इमारतें खड़ी कर शहरी अभिजात्य संस्कृति का आगाज किया है। घरों में टिमटिमाती ढेबरी की जगह एलईडी और इनवर्टर के प्रकाश ने ले लिया है। कभी–कभी मिट्टी का तेल यानी केरोसिन न मिलने से दादी और अम्मा कडुवा तेल का दीपक जलाती थीं। अब यह बातें कहानियां हो गई हैं।

प्रकृति में अल्हड़ फागुन जीवंत है लेकिन बदली परम्पराओं और हमारी सोच में वह बूढ़ा हो चला है। फागुन में रास है न रंग। बस होली के नाम पर औपचारिकता है। अब गालों पर गुलाल मलने की सिर्फ रस्म निभाई जाती है जबकि दिल नई मिलते। गांवों में फागुन वाली भौजाई गायब है। जब कच्चे मकान होते थे तो भौजाई और घर की औरतें माटी-गोबर लगाती थीं। पूर्वांचल में गांव की भाषा में इसे गोबरी कहते हैं। गोबरी लगाते वक्त अगर कोई देवर उधर से गुजरता था तो भौजाई दौड़ा कर मुंह और कपड़े में गोबरी लगा फागुन और होली के हुडदंग का आगाज करती थीं। देवर भी भौजाई को छेड़ने के मौके तलाशते थे। टोलियों के साथ होली मनती थी। वक्त के साथ गांव की होली भी पूरी तरह बदल गई है। होली में आजकल हुड़दंग गायब है। होली के उस हुड़दंग में एक उल्लास और अपनापन था लेकिन सब कुछ सिमटता जा रहा है। अब तो रंग उत्सव का त्योहार होली दिखावटी और बनावटी हो गया है।

वसंत लगते ही रंगत बदल जाती थी। फागुन में होने वाली शादी में दूल्हा और बाराती रंगो में नहा उठते थे। होली के दिन गुड़ में भांग मिलाकर महजूम बनाए जाते थे। भांग मिश्रित ठंढई बनती थी। बचपन में हम लोग उसे पीकर होली के हुडदंग में शामिल हो जाते। यह सब वसंत लगते ही शुरू हो जाता था। लेकिन अब न वह देवर हैं न भौजाई। वसंत पंचमी के दिन से होलिका संग्रह होने लगता। बचपन में युवाओं में होलिका को लेकर खास उत्साह होता। जिस दिन होलिका दहन होता उस दिन दादी उबटन और तेल की मालिश कर उसकी लिझी यानी मैल होलिका में डलवाती थी। लेकिन अब इस तरह के रिवाज गायब हैं। होलिका दहन अब औपचारिक हो चला है। त्यौहारों की मिठास खत्म हो चली है। आपसी प्रेम और सौहार्द गायब है। फागुन एक सोच है। वह जिंदगी को खुशगवार और सप्तरंग बनाने का संदेश है। वह उम्मीदों की नई कोंपल है। लेकिन वक्त इतनी तेजी से बदला की फागुन और उसकी ठिठोली खुद को तलाश रही है।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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