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    आओ मिलें हिन्दी के अनाम सेवियों से

  • September 12, 2020

    – आर.के. सिन्हा

    डीएमके पार्टी की सांसद कनिमोझी करुणानिधि को तो हिन्दी विरोध का कोई न कोई बहाना चाहिए होता है। पर आम और खास तमिल और बाकी समस्त दक्षिण भारतीय जनता हिन्दी को मन और हृदय से अपनाने लगी हैं। उन्हें लगता है कि हिन्दी का सामान्य ज्ञान रखने में उनका लाभ ही है। सच्चाई भी यही है कि ये हिन्दीभाषी न होने पर भी हिन्दी की अपने स्तर पर बड़ी सेवा कर रहे हैं। इन्हें हिन्दी सेवी सम्मान पाने की कोई कुछ खास चाहत भी नहीं है।

    अब शिव नाडार को ही ले लें। तमिलभाषी एचसीएल टेक्नोलॉजीस के चेयरमेन शिव नाडार जी कहते हैं हिन्दी पढ़ने वाले छात्रों को अपने करियर को चमकाने में लाभ ही मिलता है। वे कुछ समय पहले अपने खुद के पुराने सेंट जोसेफ स्कूल के एक समारोह में बोल रहे थे। वे भारत के सबसे सफल उद्यमियों में एक माने जाते हैं और लाखों पेशेवर उनकी कंपनी में काम करते हैं। उनका हिन्दी के पक्ष में खुलकर बोलना कोई सामान्य बात नहीं कहा जायेगा।

    यह भी जानना जरूरी है कि दिल्ली और देश के दूसरे भागों में भी लाखों तमिलभाषी रहते हैं। ये रोजगार की तलाश में राजधानी और देश के दूसरे भागों में जाकर बसे। इन्होंने राजधानी में भी अपने दिल्ली तमिल एजुकेशन एसोसिशन (डीटीआई) नाम से स्कूल खोले। इनमें हिन्दी के अध्यापक भी लगभग शत-प्रतिशत तमिलभाषी ही रहे हैं। ये अधिकतर चेन्नई के दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार समिति के माध्यम से हिन्दी में स्नातक और स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त कर हिन्दी के अध्यापक बन जाते हैं। इस तरह उनका हिन्दी से संबंध बनता चला जाता है। कुछ समय पहले मुझे राजधानी में एक तमिलभाषी हिन्दी की अध्यापिका से मिलने का अवसर मिला। उन्होंने तुलसी, कबीर निराला, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद वगैरह को पूरी तन्मयतापूर्वक बांच डाला है। वह चेन्नई के दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार समिति की तरफ से चलाई जा रही हिन्दी की कक्षाओं का हिस्सा रहने के चलते हिन्दी जान सकीं।

    वस्तुस्थिति यह है कि दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार सभा ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। यहां के अध्यापक हिन्दी के प्रसार-प्रचार में अभूतपूर्व योगदान दे रहे हैं। डीएमके सांसद कनिमोझी को कौन बताए कि हर साल चेन्नई की हिन्दी प्रचार सभा हजारों हिन्दी प्रेमियों को हिन्दी लिखना-पढ़ना सिखाती है। इससे जुड़े तमिल मूल के अध्यापक ही सच्चे हिन्दी सेवी हैं। सन 1918 में मद्रास में ‘हिन्दी प्रचार आंदोलन’ की नींव रखी गई थी और उसी वर्ष स्थापित हिन्दी साहित्य सम्मेलन मद्रास कार्यालय आगे चलकर दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के रूप में स्थापित हुआ। वर्तमान में इस संस्थान के चारों दक्षिणी राज्यों में प्रतिष्ठित शोध संस्थान हैं और बड़ी संख्या में दक्षिण भारतीय मूल के लोग इस संस्थान से हिन्दी में दक्षता प्राप्त कर ज़्यादातर दक्षिण राज्यों में या देश के अन्य भागों में जाकर हिन्दी की सेवा कर रहे हैं। पिछले दिनों मैं इंडोनेशिया के बाली द्वीप गया था। वहां हिन्दी साहित्य से जुड़े एक समारोह में मुझे बुलाया गया। वहां जितने भी हिंदी प्रेमी, खासकर अध्यापक उपस्थित थे वे लगभग तमिल या मलयाली ही थे। विदेशों में कार्यरत हिंदी शिक्षक ज्यादातर दक्षिण भारतीय ही होते हैं। इसके पीछे एक मुख्य कारण यह होता है कि ये हिन्दी के अतिरिक्त अंग्रेजी भाषा का भी ज्ञान ठीक-ठाक रखते हैं जिसकी आवश्यकता अंग्रेजी माध्यम से हिंदी सिखाने में पड़ती है।

    कनिमोझी जी को पता ही होगा कि उनके तमिलनाडू राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता तक ने भी एक हिन्दी पिक्चर में काम किया था। उस फिल्म का नाम ‘इज्जत’ था। उस फिल्म में वो धर्मेन्द्र की हिरोइन बनी थीं। इस तरह, हिन्दी फिल्मों के दर्शक तमिल मूल के प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता-निर्देशक मणिरत्नम से अच्छी तरह परिचित हैं। वे तमिल तथा हिन्दी दोनों भाषाओं के ख्यातिप्राप्त फ़िल्म निर्माता हैं। मणिरत्नम ऐसे निर्देशक हैं, जिनकी फिल्मों में काम करके फिल्म कलाकार अपने आप को भाग्यशाली समझता है। उन्होंने ‘रोजा’ (1992), ‘बॉम्बे’ (1995), ‘दिल से’ (1998) जैसी फिल्में दीं, जो पूरी तरह से आतंकवाद के ऊपर आधारित थीं। भारत के सभी हिस्सों में हिंदी सिनेमा को पसंद करने वाले लोग हैं। तमिल सिनेमा के पुराण पुरुषों, जैसे कमला हासन और रजनीकांत ने भी बहुत-सी हिन्दी फिल्मों में काम किया है। वैजयंती माला, हेमा मालिनी और रेखा भी तो मूल रूप से तमिल ही हैं।

    यकीन मानिए कि हिन्दी दिवस के आते ही उत्साहित होने वालों में हजारों दक्षिण भारतीय भी हैं। उनमें एक तमिल मूल के हिन्दी के कवि भास्कर राममूर्ति भी हैं। वे दिल्ली-मुंबई के कॉरपोरेट जगत में रहे हैं। भास्कर राममूर्ति बता रहे थे कि वे 60 के दशक में राजधानी के एक तमिल स्कूल में थे। उसी दौर में तमिलनाडू में हिन्दी विरोधी आंदोलन चल रहा था। पर उनके स्कूल में तमिल बच्चे हिन्दी खुशी-खुशी पढ़ते रहे थे। वह सिलसिला अब भी चल रहा है। दिल्ली में शुरुआती दौर में आए तमिलों को थिरूनेंगडम नाम के मास्टर जी ने हिन्दी सिखाई थी। उन्हीं गुरुजी की कक्षाओं में नियमित रूप से जाने के चलते हजारों तमिल छात्र- छात्राओं ने दिल्ली के तमिल स्कूल में हिन्दी सीखी और हिन्दी से जुड़े। क्यों इस तरह के हिन्दी सेवियों को कभी सम्मानित या पुरस्कृत नहीं किया जाता? हिन्दी प्रेमियों को विदेशी हिन्दी सेवियों के प्रति भी अपना आभार व्यक्त करना चाहिए। यहां ब्रिटेन के प्रो. रोनाल्ड स्टुर्टमेक्ग्रेगर का उल्लेख करना समीचिन रहेगा। प्रो. रोनाल्ड 1964 से लेकर 1997 तक कैम्बिज यूनिवर्सिटी में हिन्दी पढ़ाते रहे। वे चोटी के भाषा विज्ञानी, व्याकरण के विद्वान, अनुवादक और हिन्दी साहित्य के इतिहासकार थे।

    देखिए हिन्दी का सही विकास तो तब ही होगा, जब उसे वे लोग भी पढ़ाने लगें जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है। अब प्रो. मेक्रग्रेगर को ही लें। वे मूल रूप से ब्रिटिश नागरिक हैं। उन्होंने आचार्य रामचंद्र शुक्ल पर गंभीर शोध किया है । उन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास पर दो खंड तैयार किए। यहां चीन के प्रोफ़ेसर च्यांग चिंगख्वेइ की चर्चा होगी ही। प्रो. च्यांग चिंगख्वेह ने चीन में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया है। वे पेइचिंग यूनिर्वसिटी में हिन्दी पढ़ा रहे हैं।

    दरअसल हिन्दी विरोध के पीछे दूषित क्षेत्रवाद की राजनीति है। अब तमिलनाडू वालों को भी समझ आ गया है कि हिन्दी का ज्ञान लिए बगैर वे अपने को अखिल भारतीय स्तर पर किसी अच्छी नौकरी के लायक नहीं बना सकते। इसलिए अब तमिल या शेष दक्षिण भारत के राज्यों के युवा शौक से हिन्दी पढ़ते-सीखते हैं। सच तो यह है कि 60 के दशक की तुलना में दक्षिण राज्यों में अब तो हिन्दी का विरोध समाप्त हो चुका है। अब वहां हिन्दी का विरोध करना सिर्फ एक सियासी खानापूरी का मामला है।

    जिस तमिलनाडू में कथित तौर पर हिन्दी का विरोध हो रहा है, वहां पर आयुष्मान खुराना, रणवीर सिंह, आमिर खान और सलमान खान की फिल्में खूब देखी जा रही हैं। अब आप समझ सकते हैं कि वहां हिन्दी के विरोध का सच। हिन्दी का विरोध करने वाले याद रखें कि देश में किसी पर कोई भाषा नहीं थोपी जा रही। सभी भारतीय एक-दूसरे की मातृभाषाओं का सम्मान कर रहे हैं। तो फिर हिन्दी का विरोध क्यों होता है? क्यों हिन्दी भाषियों को कुछ राज्यों में मार तक दिया जाता है? हिन्दी भी इसी धरती की भाषा है। इसे भारत के करोड़ों लोग अपनी मातृभाषा मानते हैं। इसलिए अकारण हिन्दी का अनादर करना गलत है।

    हिन्दी दिवस पर हरेक हिन्दी भाषी को भी संकल्प लेना चाहिए कि वह कोई गैर-हिन्दी भाषी क्षेत्र की भाषा को भी अवश्य सीखेगा। इसके चलते देश और अधिक मजबूत होगा। आखिरकार, भारत के सभी भाषाओं की जननी तो संस्कृत ही है। फिर एक-दूसरे का विरोध कैसा?

    (लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)

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