नई दिल्ली. चीन दूसरों पर अपनी मनमानी थोपने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहा है. चीनी संविधान में साफ लिखा है कि अल्पसंख्यक समूहों को अपनी भाषा के इस्तेमाल और उसके विकास का कानूनी अधिकार है, लेकिन चीन अपने ही संविधान के खिलाफ ज्यादती पर उतर गया है. चीन, तिब्बत की संस्कृति और भाषा को पूरी तरह से मिटाने पर तुला है. दरअसल खबरों के मुताबिक चीन के कब्जे वाले तिब्बत में जिन स्कूलों में शिक्षा का माध्यम तिब्बती भाषा है, उन्हें बंद कराया जा रहा है. पश्चिमी चीन के सिचुआन प्रांत के अधिकारी तिब्बती भाषा में पढ़ाने वाले निजी तिब्बती स्कूलों को बंद कर रहे हैं और छात्रों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने के लिए मजबूर किया जा रहा है. सरकारी स्कूलों में बच्चों को मंडारिन भाषा पढ़ाया जाता है.
चीन द्वारा स्कूलों को बंद कराने का ये काम साल 2020 के आखिर से ही चल रहा है. चीन अपनी संस्कृति और भाषा को जबरन लोगों पर थोपने में लगा है. जानकारी के मुताबिक सिचुआन के दजाचुखा क्षेत्र में पहले कई निजी स्कूल थे, जहां तिब्बती भाषा और संस्कृति सिखाई जाती थी. इन स्कूलों को बिना किसी कारण के बंद करा दिया गया. सूत्रों का कहना है कि पाठ्यपुस्तकों और शिक्षण सामग्री के उपयोग में समानता को बढ़ावा देने के नाम पर यह कदम उठाया जा रहा है. वैसे तो चीन ने कब्जाए हुए इलाकों में अपनी भाषा का प्रसार करने के लिए सभी जगह चाहे वो रेलवे हो, बस स्टेशन हो, शॉपिग मॉल या पोस्टर होर्डिंग सभी जगह अब इंग्लिश के अलावा मंडारिन भाषा में सब कुछ लिखा होता है.
चीनी राष्ट्रपति शी जिंगपिंग के 2035 शिक्षा प्लान के तहत पूरे चीन में प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम सामग्री में व्यापक सुधार के नाम पर चीनी विशेषताओं को जोड़ना है. इसके लिए बाकायदा तेजी से काम जारी है. इससे पहले चीन के कब्जे वाले मंगोलिया जिसे इनर मंगोलिया कहा जाता है, वहां भी स्थानीय लोगों ने चीन के खिलाफ जबरदस्त प्रदर्शन किया था. ये प्रदर्शन इनर मंगोलिया ऑटोनोमस रीजन में चीन द्वारा जबरन अपनी नीतियों को थोपने के विरोध में था. चीन वहां की मूल भाषा को बदल कर मंडारिन को प्राथमिक भाषा के तौर पर लागू कर रहा है. स्कूल में उनकी भाषा की पढ़ाई को कम कर के चीनी भाषा की पढ़ाई को तरजीह दी जा रही है.
मंडारिन को अनिवार्य और मंगोलियन भाषा को दूसरे दर्जे में रखा गया है. तीन ऐसे इलाके हैं, जहां चीन की बर्बरता सबसे ज्यादा है, जिनमें शिंजियांग, तिब्बत और इनर मंगोलिया. चीन में अलग अलग अल्पसंख्यक समूह और जातियां है, जोकि 80 से ज्यादा अलग अलग भाषाएं बोलती हैं. हान, ह्यू और मानचू ही मंडारिन को अपनी भाषा के तौर पर इस्तेमाल करते हैं, जबकि 12 अन्य समूह जिनमें मंगोलिया, तिब्बती, वीगर, कजाक, किर्गिज, कोरियन, यी, लाहू जिंगपो, शीबो और रूसी अपनी भाषा का इस्तेमाल बोलचाल और लिखने में करते हैं, लेकिन अब सभी को मंडारिन भाषा बोलने और लिखने के लिए मजबूर किया जा रहा है.
चीन ने इस नीति की शुरुआत 1950 में कर दी थी, जब उसने सभी अल्पसंख्यक ऑटोनोमस रीजन में स्थानीय भाषा के स्कूलों के समानांतर मंडारिन भाषा में पढ़ाए जाने वाले स्कूल खोले थे. इन इलाकों में स्थानीय भाषा, मुख्य और आधिकारिक भाषा थी, लेकिन अब कई ऑटोनोमस रीजन में मंडारिन को प्राइमरी और स्थानीय भाषा को दूसरी भाषा में बदल दिया गया है. चीन के एक डॉक्यूमेंट के मुताबिक दुनिया भर में कुल 7000 अलग अलग तरह की भाषाएं बोली जाती है और इक्कीसवीं शताब्दी के खत्म होते-होते इन भाषाओं की संख्या 4500 रह जाएगी और इसमें एक बड़ा हाथ चीन का होगा.
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