प्रमोद भार्गव
देश के अनेक उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के खाली पदों पर जल्दी नियुक्ति तय करने की दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को तीन से चार सप्ताह का समय दिया है। इस समय उच्च न्यायालयों में 1080 जजों के पद निर्धारित हैं, जिनमें से 416 पद खाली है। कॉलेजियम प्रणाली के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को 196 नामों की सूची भेजी है। नियमों के मुताबिक किसी पद के रिक्त होने के छह माह पहले नाम प्रस्तावित कर देने चाहिए। जबकि 220 नाम अभीतक नहीं भेजे गए हैं। हालांकि सरकार चाहती तो 196 पदों पर नियुक्ति कर सकती थी। 2017 में कॉलेजियम प्रणाली नियुक्तियों में विसंगति व देरी दूर करने के लिए ही शुरू की गई थी, लेकिन समस्या का निदान नहीं हुआ।
दरअसल केंद्र सरकार के पास ऐसी कोई बाध्यता नहीं है कि वह तय समय सीमा में नियुक्तियां करे। नतीजतन सुप्रीम कोर्ट की सिफारिश के बावजूद नियुक्तियां लटकी रहती हैं। अब इस सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद-224-ए को लागू करने का फैसला लिया है। इस अनुच्छेद का प्छिले छह दशक से इस्तेमाल नहीं किया गया है। इसके तहत न्यायालय बड़ी संख्या में लंबित मामलों को निपटाने के लिए हाईकोर्ट में दो से पांच साल के लिए सेवानिवृत्त जजों की नियुक्ति कर सकती है। तय है, जजों की कमी एक हद तक पूरी होगी। यदि सर्वोच्च न्यायालय अपने स्तर पर कार्य-संस्कृति में बदलाव के लिए ऐसे कुछ और फैसले ले तो लंबित मामले भी जल्द से जल्द निपटने लग जाएंगे।
हमारे यहां संख्या के आदर्श अनुपात में कर्मचारियों की कमी का रोना अकसर रोया जाता है। ऐसा केवल अदालत में हो, ऐसा नहीं है। पुलिस, शिक्षा और स्वास्थ्य विभागों में भी गुणवत्तापूर्ण सेवाएं उपलब्ध न कराने का यही बहाना है। जजों की कमी कोई भी नई बात नहीं है, 1987 में विधि आयोग ने हर 10 लाख की आबादी पर जजों की संख्या 10 से बढ़ाकर 50 करने की सिफारिश की थी। फिलहाल यह संख्या 17 कर दी गई है। हालांकि हमारे यहां अभी भी 14,000 अदालतों में करीब 18,000 न्यायाधीश काम कर रहे हैं। अदालतों का संस्थागत ढांचा भी बढ़ाया गया है। उपभोक्ता, परिवार और किशोर न्यायालय अलग से अस्तित्व में आ गए हैंं। फिर भी काम संतोषजनक नहीं है। उपभोक्ता अदालतें अपनी कार्य संस्कृति के चलते बोझ साबित होने लगी हैं। बावजूद औद्योगिक घरानों के वादियों के लिए पृथक वाणिज्य न्यायालय बनाने की पैरवी की जा रही है।
न्यायिक सिद्धांत का तकाजा है कि एक तो सजा मिलने से पहले किसी को अपराधी न माना जाए, दूसरे आरोप का सामना कर रहे व्यक्ति का फैसला तय समय-सीमा में हो। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे यहां ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है। इसकी एक वजह न्यायालय और न्यायाधीशों की कमी जरूर है, लेकिन यह आंशिक सत्य है, पूर्ण नहीं मुकदमों को लंबा खिंचने की एक वजह अदालतों की कार्य-संस्कृति भी है। सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायमूर्ति राजेंद्रमल लोढ़ा ने कहा भी था ‘न्यायाधीश भले ही निर्धारित दिन ही काम करें, लेकिन यदि वे कभी छुट्टी पर जाएं तो पूर्व सूचना अवश्य दें। ताकि उनकी जगह वैकल्पिक व्यवस्था की जा सके।’ इस तथ्य से यह बात सिद्ध होती है कि सभी अदालतों के न्यायाधीश बिना किसी पूर्व सूचना के आकस्मिक अवकाश पर चले जाते हैं। गोया, मामले की तारीख आगे बढ़ानी पड़ती है। इन्हीं न्यायमूर्ति ने कहा था कि ‘जब अस्पताल 365 दिन चल सकते हैं तो अदालतें क्यों नहीं ?’ यह बेहद सटीक सवाल था। हमारे यहां अस्पताल ही नहीं, राजस्व और पुलिस विभाग के लोग भी लगभग 365 दिन ही काम करते हैं। किसी आपदा के समय इनका काम और बढ़ जाता है। इनके कामों में विधायिका और खबरपालिका के साथ समाज का दबाव भी रहता है। बावजूद ये लोग दिन-रात कानून के पालन के प्रति सजग रहते हैं।
यही प्रकृति वकीलों में भी देखने में आती है। हालांकि वकील अपने कनिष्ठ वकील से अकसर इस कमी की वैकल्पिक पूर्ति कर लेते हैं। लेकिन वकील जब प्रकरण का ठीक से अध्ययन नहीं कर पाते अथवा मामले को मजबूती देने के लिए किसी दस्तावेजी साक्ष्य को तलाश रहे होते हैं तो वे बिना किसी ठोस कारण के तारीख आगे खिसकाने की अर्जी लगा देते हैं। विडंबना है कि बिना कोई ठोस पड़ताल किए न्यायाधीश इसे स्वीकार भी कर लेते हैं। तारीख बढ़ने का आधार बेवजह की हड़तालें और न्यायाधीशों व अधिवक्ताओं के परिजनों की मौंते भी हैं। ऐसे में श्रद्वांजलि सभा कर अदालतें कामकाज को स्थगित कर देती हैं। जबकि इनसे बचने की जरूरत है। लिहाजा कड़ाई बरतते हुए कठोर नियम-कायदे बनाने का अधिकतम अंतराल 15 दिन से ज्यादा का न हो, दूसरे अगर किसी मामले का निराकरण समय-सीमा में नहीं हो पा रहा है तो ऐसे मामलों को विशेष प्रकरण की श्रेणी में लाकर उसका निराकरण त्वरित और लगातार सुनवाई की प्रक्रिया के अंतर्गत हो। ऐसा होता है, तो मामलों को निपटाने में तेजी आ सकती है। ऐसी ही सोच के चलते मुख्यमंत्रियों और न्यायधीशों के एक सम्मेलन में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एचएल दत्तू ने कहा था, ‘हम पूरी कोशिश करेंगे कि अदालतों में कोई भी मुकदमा पांच साल से ज्यादा न खिंचे।’ यह न्याय प्रक्रिया के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण था।
कई मामलों में गवाहों की अधिक संख्या भी मामले को लंबा खींचने का काम करती है। ग्रामीण परिवेश और बलवों से जुड़े मामलों में ऐसा अक्सर देखने में आता है। इस तरह के एक ही मामले में गवाहों की संख्या 50 तक देखी गई है। जबकि घटना के सत्यापन के लिए दो-तीन गवाह पर्याप्त होते हैं। इतने गवाहों के बयानों में विरोधाभास होना संभव है। इसका लाभ फरियादी की बजाय अपराधी को मिलता है। इसी तरह चिकित्सा परीक्षण से संबंधित चिकित्सक को अदालत में साक्ष्य के रूप में उपस्थित होने से छूट दी जाए। क्योंकि चिकित्सक गवाही देने से पहले अपनी रिपोर्ट को पढ़ते हैं और फिर उसी इबारत को मुहंजबानी बोलते हैं। लेकिन ज्यादातर चिकित्सक अपनी व्यस्तताओं के चलते पहली तारीख को अदालत में हाजिर नहीं हो पाते, लिहाजा चिकित्सक को साक्ष्य से मुक्त रखना उचित है। इससे रोगी भी स्वास्थ्य सेवा से वंचित नहीं होंगे और मामला बेवजह लंबित नहीं होगा। एफएसएल रिपोर्ट भी समय से नहीं आने के कारण मामले को लंबा खींचती है। फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशालाओं की कमी होने के कारण अब तो सामान्य रिपोर्ट आने में भी एक से ड़ेढ़ साल का समय लग जाता है। प्रयोगशालाओं में ईमानदारी नहीं बरतने के कारण संदिग्ध रिपोर्टें भी आ रही हैं। लिहाजा इन रिपोर्टों की क्या वास्तव में जरूरत है,इसकी भी पड़ताल जरूरी है ?
अदालतों में मुकादमों की संख्या बढ़ाने में राज्य सरकारों का रवैया भी जिम्मेवार है। वेतन विसंगतियों को लेकर एक ही प्रकृति के कई मामले ऊपर की अदालतों में विचाराधीन हैं। इनमें से अनेक तो ऐसे प्रकरण हैं, जिनमें सरकारें आदर्श व पारदर्शी नियोक्ता की शर्तें पूरी नहीं करतीं हैं। नतीजतन जो वास्तविक हकदार हैं, उन्हें अदालत की शरण में जाना पड़ता है। कई कर्मचारी सेवानिवृति के बाद भी बकाए के भुगतान के लिए अदालतों में जाते हैं। जबकि इन मामलों को कार्यपालिका अपने स्तर पर निपटा सकती है। हालांकि कर्मचारियों से जुड़े मामलों का सीधा संबंध विचाराधीन कैदियों की तादाद बढ़ाने से नहीं है, लेकिन अदालतों में प्रकरणों की संख्या और काम का बोझ बढ़ाने का काम तो ये मामले करते ही हैं।
इसी तरह पंचायत पदाधिकारियों और राजस्व मामलों का निराकरण राजस्व न्यायालयों में न होने के कारण न्यायालयों में प्रकरणों की संख्या बढ़ रही है। जीवन बीमा, दुर्घटना बीमा और बिजली बिलों का विभाग स्तर पर नहीं निपटना भी अदालतों पर बोझ बढ़ा रहे हैं। कई प्रांतों के भू-राजस्व कानून विसंगतिपूर्ण हैं। इनमें नाजायज कब्जे को वैध ठहराने के उपाय हैं। जबकि जिस व्यक्ति के पास दस्तावेजी साक्ष्य हैं, वह भटकता रहता है। इन विसंगतिपूर्ण धाराओं का विलोपीकरण करके अवैध कब्जों से संबंधित मामलों से निजात पाई जा सकती है। लेकिन नौकरशाही ऐसे कानूनों का वजूद में बनाए रखना चाहती है, क्योंकि इनके बने रहने पर ही इनके रौब-रुतबा और पौ-बारह सुनिश्चित हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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