– ऋतुपर्ण दवे
तो क्या चमोली में जो कुछ हुआ वह जलवायु परिवर्तन का नतीजा है या बेहद विकसित और साधन संपन्न होती दुनिया के लिए अभी भी चेत जाने की दस्तक? सच यह है कि 8 महीने पहले ही वैज्ञानिकों ने आगाह कर दिया था और इसको लेकर जर्नल साइँस एडवांस 2019 में एक रिसर्च भी छपी थी, जिसमें बड़े इलाके में ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने तथा इसे लेकर 40 वर्षों के अध्ययन जिसमें सैटेलाइट सर्वेक्षण और तस्वीरों के विश्लेषण का नतीजा भी शामिल है, उसमें अंदेशा जताया गया था कि ग्लोबल वार्मिंग से हिमालय के ग्लेशियर पिघल रहे हैं। इसे अनदेखा किया गया। आँकड़े और अध्ययन बताते हैं कि पिछले 25 वर्षों यानी 1975 से 2000 तक के मुकाबले 2000 से 2016 तक वहाँ का तापमान लगभग एक डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। जहाँ वर्ष 2000 तक यानी बीते 25 वर्षों में केवल ग्लेशियरों से चौथाई मीटर तक बर्फ पिघलती थी, वहीं 2000 के बाद पिघलन दर दोगुनी से भी ज्यादा हो गई। स्वाभाविक है कि सारा कुछ ग्लोबल वार्मिंग का खेल है। लेकिन हैरानी है कि गुपचुप ग्लेशियर पानी में तब्दील होते रहे और सभी बेखबर रहे! उन्हीं ग्लेशियरों का नतीजा रविवार को अपने रौद्र रूप में सात साल, सात महीने, 25 दिन बाद फिर सामने आया। इसबार भी देवभूमि उत्तराखंड ही निशाना बनी।
दुनिया के तीसरे ध्रुव के नाम से पहचाने जाने वाले हिमालय को लेकर जितनी जानकारी है उससे यह संकट खत्म होने से रहा क्योंकि न तो ज्यादा डेटा है और न ही रिसर्च। आर्कटिक और अंटार्टिका के बाद दुनिया का तीसरा ध्रुव इसी हिमालय क्षेत्र को हिन्दू कुश भी कहते हैं। जो हिमालय क्षेत्र अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, चीन, भारत, किर्गिजस्तान, मंगोलिया, म्याँमार, नेपाल, पाकिस्तान, ताजिकिस्तान और उज्बेकिस्तान तक यानी लगभग 5 मिलियन वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला है। विशेषताओं की बात करें तो इस पूरे क्षेत्र में सांस्कृतिक रूप से संपन्न एक बड़ी आबादी रहती है। हाँ, यही वो अकेला क्षेत्र है जो ध्रुवीय क्षेत्रों से अलग बाहर की दुनिया में सबसे ज्यादा बर्फ इकट्ठा करता है इसीलिए इसको द थर्ड पोल भी कहते हैं। ऐसे में घूम-फिरकर वही सच्चाई सामने आ जाती है कि हिमालय के ग्लेशियरों में जो चल रहा है उसकी क्या वजह है और उसे कैसे रोका जा सकता है? इसपर न तो कोई प्रमाणित शोध ही है और न ही पूरी गंभीरता से कुछ किया गया दिखता है। हालांकि इसबार सर्दियों में यह हादसा हुआ है जिसपर कई लोगों को आश्चर्य होना स्वाभाविक है।
चमोली का सच वैज्ञानिक शोध का विषय है लेकिन सवाल वही कि कि हम हादसों से कब सीख लेंगे? यूँ तो ग्लेशियरों पर ग्लोबल वॉर्मिंग यानी जलवायु परिवर्तन के असर को लेकर लंबे समय से विस्तार से अध्ययन किया जा रहा है, जिससे पता चला कि हिमालय के हिंदुकुश क्षेत्र में पारा बढ़ रहा है। इससे वैश्विक तापमान की वृध्दि का असर ज्यादा ऊंचाई पर होने से हिमालय पर कुछ ज्यादा ही हो रहा है। कुछ महीने पहले ही इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटिग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट यानी आईसीआईएमओडी की हिंदुकुश हिमालय असेसमेंट रिपोर्ट में आशंका जताई गई थी कि साल 2100 तक अगर वैश्विक उत्सर्जन में कमी नहीं आई तो हिमालय के ग्लेशियर्स का काफी हिस्सा (दो-तिहाई तक) पिघल जाएगा।
यकीनन चमोली या केदारनाथ जैसी त्रासदी ग्लोबल वॉर्मिंग का नतीजा है लेकिन यह भी सही है कि एशियाई देशों में लकड़ी और कोयला भी बहुतायत में जलाए जाने का सीधा असर वायुमण्डल में कार्बन बढ़ जाने से होता है। जब यही प्रदूषित धुएँ के बादल पर्वतों के ऊपर छा जाते हैं तो सौर्य ऊर्जा को तेज़ी से सोखते हैं। इसके चलते पहाड़ों पर जमी बर्फ भी खूब पिघलने लगती है।
अलकनंदा-धौलीगंगा नदियों में इस मौसम में बाढ़ तपोवन क्षेत्र में ग्लेशियर में हुई टूट की वजह से आई जिससे पूरे क्षेत्र में जहाँ तबाही मची वहीं निजी स्वामित्व वाली 130 मेगावाट की ऋषि गंगा पनबिजली प्रोजेक्ट पूरी तरह तबाह हो गया है। वहीं, निर्माणाधीन 520 मेगावॉट की तपोवन विष्णुगाड जल विद्युत परियोजना को भी भारी नुकसान हुआ है। अमूमन जब ग्लेशियर के पिघलने से बने हिमनद एकाएक झील में तब्दील हो जाते हैं तो काफी पानी जमा हो जाता है और जमी हुई बर्फ को थामे ग्लेशियर या तो वजन से या फिसलन से टूट जाते हैं। इन्हीं वजहों से एकाएक भारी मात्रा में पानी निकलता है और वह बाढ़ का शक्ल ले लेता है। चूंकि ग्लेशियर काफी ऊँचे स्थानों पर होते हैं ऐसे में काफी ऊंचाई पर होने वाली इन घटनाओं के चलते ऐसी बाढ़ की भयावहता और नुकसान ज्यादा होने की आशंका रहती है। चमोली में भी ऐसा हुआ।
ग्लेशियर कब, क्यों और कैसे टूटते हैं इसके कई कारण हो सकते हैं। जैसा कि कटाव, पिघला हुआ या जमा हुआ पानी का भारी दबाव, बर्फ या चट्टानों का स्खलन या बर्फ के नीचे भूकंप के झटके। यह तब भी हो सकता है जब पास में ग्लेशियर का कोई बड़ा हिस्सा टूटने की वजह से हिमनद से बनी झील में जमा पानी की भारी मात्रा अपने स्थान से खिसकने लग जाए। हालांकि ग्लेशियरों का सामान्य और परंपरागत तौर पर पिघलना उतना हानिकारक नहीं है जितना वायुमंडल में प्रदूषण के चलते से तेजी से पिघलना है। चमोली में यही हुआ। विकास के नाम पर वहाँ संवेदनशील स्थानों से खूब छेड़छाड़ हुई, पहाड़ों के स्वरूप बिगड़ने शुरू हुए, रास्तों के नाम पर पत्थरों और पहाड़ों की जहाँ-तहाँ तोड़फोड़ और होटल व दूसरे निर्माण और बड़े-बड़े बाँध तेजी से बने। नतीजतन पहाड़ भी कमजोर हुए और कहीं न कहीं वहाँ की जलवायु पर असर पड़ा होगा। धीरे-धीरे ग्लेशियर पिघलता रहा, पता भी नहीं चला। पानी भी दरारों में इकट्ठा होता रहा और अचानक जब वजन बढ़नें से दरारें भी फटीं और जमा पानी तेज बहाव से नीचे आया तो न केवल मलबा, पत्थर, पहाड़ और वह सब साथ में बहा ले गया जो भी रास्ते में पड़ा।
जो बड़े कारण दिखते हैं उनमें घटते जंगल, जंगलों से जुड़े ग्रामीण समुदायों को हतोत्साहित करना, तेज विकास और पर्यटन से कमाई के नाम पर कंक्रीट के जंगल खड़े करना, वाहनों के बढ़ते काफिले, उनका और जेनरेटरों का धुँआ, लकड़ी और कोयला का बेतहाशा जलाया जाना आदि वो कारण हैं जो कहीं न कहीं चमोली और केदारनाथ जैसी तबाहियों की गुमनाम वजहों में शामिल हैं। फिर भी सबकुछ जानकर अनजान रहना और बड़ी-बड़ी विपदाओं को भुला देना और फिर किसी नए हादसे की ओर चल पड़ना, जहाँ भावी पीढ़ी के साथ-साथ पूरी मानव सभ्यता व उसी प्रकृति के साथ अन्याय है जिसने हमें यह जीवन दिया। काश इस हादसे के बाद प्रकृति का स्वाभाव, जलवायु परिवर्तन और धरती की तपन की सच्चाई समझ आ पाती!
एक सच्चाई यह भी है कि पठारी इलाकों में तापमान बढ़ने से हवा ज्यादा आर्द्र यानी नम होती है। सर्दियों में बर्फ ज्यादा गिरती है जिससे बढ़ता वजन हिमस्खलन का कारण बनता है। वहीं गर्मियों में बारिश का पानी दरारों में लॉक हो जाता है जिससे मिट्टी और बर्फ में फिसलन पैदा होती है और हिमस्खलन होता है। वैज्ञानिक दृष्टि से यह बड़े कारण हो सकते हैं लेकिन उससे भी ज्यादा यह कि ऐसी परिस्थितियाँ एकाएक क्यों निर्मित होने लगीं? जहाँ भू-गर्भीय, धरातल में होने वाली गतिविधियों की निगरानी और जानकारी के लिए जिस तरह से कई उपकरण और तंत्र हैं, काश ग्लेशियरों में होने वाली गतिविधियों को दर्ज करने के लिए भी ऐसे ही आर्टिफीसियल इण्टेलीजेन्स विकसित किए जाते जो असंभव नहीं है। दुख इस बात का है कि देश में ही नामीगिरामी तकनीकी संस्थाओं के बावजूद इसपर किसी का ध्यान नहीं गया। वहीं पेरिस क्लाइमेट समझौता भी जल्द अमल में लाया जाता जिससे ग्लोबल वार्मिंग के बीच तापमान को 2 डिग्री तक कम किया जा सकता और डेढ़ डिग्री से ज्यादा न बढ़े यह व्यवस्था हो पाती। लेकिन ज्यादातर देशों ने संयुक्त राष्ट्र को इसपर अपनी कोई योजना ही नहीं दी है न ही अमल में लाया। काश इन सबसे भी ग्लेशियर क्षेत्रों में होने वाली बड़ी जन और धन हानियों को रोका सकता।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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