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    चंबा प्रकृति में समृद्ध, विकास में पिछड़ा

  • August 24, 2024

    – कुलभूषण उपमन्यु

    हिमाचल प्रदेश का जिला चंबा आजादी से पहले उत्तर पश्चिमी हिमालय का एक मुख्य रजवाड़ा हुआ करता था. जो आजादी के बाद हिमाचल प्रदेश में 1948 में शामिल हुआ और जिला चंबा कहलाया। हालांकि लाहौल का भी कुछ क्षेत्र चंबा रजवाड़े का भाग हुआ करता था जिसे चंबा-लाहौल कहा जाता था। पंजाब-हिमाचल के पुनर्गठन के बाद कुल्लू लाहौल का मुख्य भाग भी जब हिमाचल में शामिल हो गया तब चंबा लाहौल वाला क्षेत्र जिला लाहौल-स्पिति में डाल दिया गया। चंबा रजवाड़ा शासन के अंतर्गत अन्य पहाड़ी रजवाड़ों से विकसित और प्रगतिशील माना जाता था। जहां 1870 से पहले राजा श्री सिंह के समय आधुनिक चिकित्सालय का निर्माण हो चुका था। राजा शाम सिंह के समय जिसे 40 बिस्तर का अस्पताल बनाया गया। राज्य के दूरदराज हिस्सों को सड़कों से जोड़ा गया। विद्यालय खोले गए। प्रतिभाशाली छात्रों को राज्य से बाहर पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति देने की व्यवस्था हुई। 1881 में एशिया का पहला कुष्ठ रोग चिकित्सा केंद्र खोला गया। राज्य में डाक व्यवस्था से संपर्क व्यवस्था खड़ी की गई। 1908 में भूरी सिंह संग्रहालय की स्थापना हुई। 1910 में जल विद्युत पॉवर हाउस बनाया गया। जब चंबा में बिजली थी तब कांगड़ा और अन्य हिमाचली रजवाड़ों में कहीं भी बिजली नहीं थी।


    आजादी के समय पहाड़ी क्षेत्रों को पंजाब के पहाड़ी क्षेत्र कह कर पंजाब में मिलाने की बात हो रही थी। उसके पीछे तर्क छोटे राज्य के लिए आर्थिक संसाधन जुटाना संभव नहीं था। उस समय हिमाचल के पूर्वी छोर पर तीन जिले मंडी, शिमला और सिरमौर ही हिमाचल में शामिल हो रहे थे। चंबा तो अलग-थलग पश्चिमी छोर पर था। किन्तु चंबा ने प्रजामंडल के माध्यम से अलग पहाड़ी प्रदेश की मुहिम में शामिल होकर हिमाचल के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और हिमाचल के गठन को संभव बनाया। बिलासपुर रजवाड़ा तो बाद में 1952 में हिमाचल में मिला। इसलिए चंबा के महत्व को उस समय के नेतृत्व ने समझा और समय के साथ चलने के लिए जरूरी विकास कार्य बखूबी हुए। बिजली को ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुंचाने का कार्य 1955 के बाद ही आरंभ हो गया। उस समय हिमाचल सी. श्रेणी राज्य था जिसे पर्याप्त केन्द्रीय सहायता प्राप्त थी। चंबा की प्रमुख ग्रामीण सड़कों का निर्माण शुरू हुआ। प्रदेश का पहला सामुदायिक विकास ब्लाक भटियात (चंबा) में खोला गया।

    स्कूलों के भवन, पटवारखाने आदि के भवन बनाए गए। दुर्भाग्य से राज्य पुनर्गठन के बाद चंबा का राजनैतिक कद छोटा होता गया। चंबा धीरे-धीरे पिछड़ता गया। आज देश के 112 सबसे पिछड़े जिलों में इसकी गणना हो रही है। हिमाचल प्रदेश में भी चंबा अंतिम पायदान पर खड़ा है। हालांकि जिला के पास विकास के लिए प्राकृतिक संसाधन प्रचुरता से उपलब्ध हैं। जिला में 2952 मेगावाट जल विद्युत् की क्षमता है, जिसमें से 1500 मेगावाट क्षमता का दोहन वर्तमान में हो रहा है। जिला का भौगोलिक स्वरूप विविधता पूर्ण है। यहां 2000 फुट से 21000 फुट तक ऊंचाई के क्षेत्र विद्यमान हैं, जहां ऊष्णकटिबंधीय से ले कर शीत मरुस्थलीय जलवायु उपलब्ध है, जिसमें हर प्रकार की फसलों, जड़ी-बूटियों और वन उपजों का उत्पादन होता है। जिला का क्षेत्रफल 6,92,419 हेक्टेयर है। आबादी 5,19080 है, जिसमें 56.65% कर्मकार आबादी है। 4,52,933 हेक्टेयर वन भूमि है। कृषि क्षेत्र 70,563 हेक्टेयर है। साक्षरता दर 72.17 प्रतिशत है।

    वर्तमान में चंबा के पिछड़ेपन के प्रमुख तीन कारण हैं। आवागमन एवं संचार व्यवस्था में कठिनाइयां, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा व्यवस्था का अभाव, स्वास्थ्य व्यवस्था का अभाव। इन तीन कमियों के कारण जो भी व्यक्ति समर्थवान हो जाते हैं वे यहां से दूसरी जगहों में बस जाते हैं। स्थायी प्रवास का आंकड़ा भी जिला में काफी होगा जिसका इशारा बढ़ते गैर आबाद गांव की संख्या से भी मिल जाता है। 2001 में गैर आबाद गांव 473 थे जो अब 481 हो गए हैं। यहां की प्रशासनिक व्यवस्था भी डांवाडोल ही रहती है। चंबा में पोस्टिंग को लोग सजा के तौर पर देखते हैं और यहां से बदली करवाने के चक्कर में रहते हैं। यही कारण है कि मेडिकल कॉलेज जैसी महत्वपूर्ण संस्थाओं में भी डाक्टरों की रिक्तियां भरी नहीं जा सकती। कृषि बागवानी आदि प्रमुख विभागों में भी ज्यादातर स्थान अमूमन खाली रहते हैं। यही कारण है कि चंबा के संसाधनों और क्षमताओं के समुचित दोहन की व्यवस्थाएं खड़ी नहीं की जा सकी हैं।

    अधिकांश क्षेत्र बागवानी और बेमौसमी सब्जियों के उत्पादन के योग्य होने के बाबजूद भी सलूणी तहसील को छोड़ कर कोई क्षेत्र पहचान नहीं बना सका है। देखते-देखते शिमला, कुल्लू, सोलन कहां पहुंच गए और चंबा कछुआ चाल से ही चल रहा है। चंबा के पास छठी शताब्दी के मन्दिरों से लेकर सुंदर पर्यटन स्थलों की भरमार है किन्तु डलहौजी के अलावा कुछ भी विकसित नहीं कर सके। चंबा शहर के मन्दिर एक हजार साल से ज्यादा पुराने हैं। संग्रहालय, पुराने महल, सुंदर चौगान, ज्म्मुहार, सूही, चामुंडा, छतराढी, भटालवा के मन्दिर अपनी क्षमता के अनुरूप पहचान को तरसते हैं। खजियार भी पूरी तरह विकसित नहीं हो सका है। भरमौर के मन्दिर छठवीं-सातवीं शताब्दी के है, जो शिव पंचायतन के रूप में स्थित हैं, जिसमें भगवान नृसिंह, सूर्य, चित्रगुप्त, के मन्दिर सामान्यत: कम ही देखे जाते हैं। मणि महेश यात्रा के विकास पर भले ही ध्यान दिया गया है, किन्तु यह मौसमी गतिविधि है। भरमौर पर्यटन को वर्ष भर के लिए विकसित किया जा सकता है।

    भटियात के कुंजर महादेव, गणेश गढ़, तारा गढ़ को विकसित किया जा सकता है। जोत में तो स्वत: स्फूर्त विकास हो रहा है, किन्तु ऐसे स्थलों पर जिम्मेदार पर्यटन के विचार पर भी कार्य होना चाहिए जिससे पर्यावरण को नुकसान न पहुंचाया जा सके। कालाटॉप, गमगुल, कुगति वन्यप्राणी अभ्यारण्यों में पर्यटन को व्यवस्थित किया जा सकता है। चंबा जैसी स्वादिष्ट मक्की आपको कहीं नहीं मिलेगी। साहो, भरमौर के माश, भरमौर के पुराने श्री धान्य स्युह्ल,चिनै,फुल्लन, भरेस आदि के खाद्य व्यंजन पर्यटन की विशिष्टता बन सकते हैं। चंबा में कई हस्तशिल्प अभी तक भी जिन्दा हैं और वैश्विक पहचान बनाने की ताकत रखते हैं किन्तु आधे-अधूरे विकसित हो पाए हैं। चंबा चित्रकला, चंबा थाल, काष्ठ कला, मूर्तिकला, चंबा रुमाल, चंबा चप्पल को व्यवस्थित प्रशिक्षण स्कूल, वर्कशॉप और इम्पोरियम खोल कर उसे पर्यटन से जोड़ कर रोजगार के नए अवसर पैदा करने के साथ विशेष पहचान दिलाई जा सकती है। जरीस और मुख शुद्ध जैसे उत्पाद चंबा की विशेषताएं हैं, इन्हें आधुनिक पैकिंग में डाल कर देश भर में बेचा जा सकता है।

    हिमाचल में पानी पर उतरने वाले हवाई जहाज प्रचलन की योजना बने तो चमेरा-1 बांध की झील को उससे जोड़ा जा सकता है। द्रमण (शाहपुर) से पांगी किलाड रस्श्त्रिय राज मार्ग को जमीन पर उतार कर और उसे बारह – मासी बनाने के लिए चुआड़ी जोत और चैह्णी सुरंगें बना कर पूरे जिला को एक छोर से दूसरे तक जोड़ा जा सकता है। इससे जिला को संगठित आवाज देने में भी मदद मिलेगी। कलाओं के विकास के कार्य हमेशा राज्याश्रय में ही हुए हैं। राजाओं ने अपने समय में इस दिशा में अच्छी भूमिका निभाई है। वर्तमान में भी राज्याश्रय देकर इन कलाओं को वैश्विक स्तर पर विख्यात किया जा सकता है और जिले के आर्थिक पक्ष को मजबूत करने में उपयोगी बनाया जा सकता है। इस दृष्टि से व्यापक कार्ययोजना बना कर कार्य हो तो चंबा न केवल पिछड़ेपन से बाहर आ सकता है बल्कि प्रदेश का अपनी तरह का अग्रणी जिला भी बन सकता है।

    (लेखक, विख्यात पर्यावरणविद् और चंबा में रहते हैं।)

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