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    सांस्कृतिक राष्ट्रभाव के जागरण का उत्सव

  • October 16, 2021

    – डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

    दशहरा का महत्व असत्य और अधर्म प्रवृत्ति पर विजय तक सीमित नहीं है। इसमें भारत की सांस्कृतिक विरासत का भी समावेश है। प्रभु श्री राम ने लंका पर विजय प्राप्त की थी। विभीषण सहित सभी प्रमुख लोगों ने प्रभु राम से लंका का अपने साम्राज्य में सम्मलित करने का निवेदन किया था। किंतु प्रभु राम ने ऐसा नहीं किया। इतना ही नहीं, मंदोदरी सहित वहां की सभी महिलाओं को सम्मान दिया। उनके किसी भी सैनिक ने लंका की नारियों के साथ कोई दुर्व्यवहार नहीं किया। अपने मत और उपासना पद्धति का रंचमात्र भी प्रसार नहीं किया। जबकि प्रभु राम एवं उनकी सेना के समक्ष ऐसा करने का पूरा अवसर था। ऐसा करना भारतीय संस्कृति की अवहेलना होती। प्रभु राम तो युद्ध प्रारंभ होने के पहले ही विभीषण का राज्याभिषेक कर चुके थे। स्पष्ट है कि लंका के लोगों को तलवार की नोक पर गुलाम बनाने की उन्होने कल्पना तक नहीं की थी। उन्होंने अपने आचरण से मर्यादा एवं भारतीय संस्कृति का सन्देश दिया। इस संस्कृति में सम्पूर्ण सृष्टि समाहित है। इसमें मानव मात्र के कल्याण की कामना है।

    आइ बिभीषन पुनि सिरु नायो।
    कृपासिंधु तब अनुज बोलायो॥
    तुम्ह कपीस अंगद नल नीला।

    जामवंत मारुति नयसीला।
    सब मिलि जाहु बिभीषन साथा।
    सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा॥

    पिता बचन मैं नगर न आवउँ। आपु सरिस कपि अनुज पठावउँ॥
    सुंदर कांड का सुंदर प्रसंग है-

    श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
    त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर॥

    जदपि सखा तव इच्छा नहीं। मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥
    अस कहि राम तिलक तेहि सारा। सुमन बृष्टि नभ भई अपारा॥

    रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
    जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड॥

    जो संपति सिव रावनहि
    दीन्हि दिएँ दस माथ।

    सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ॥
    अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना। ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना॥
    निज जन जानि ताहि अपनावा। प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा॥

    विजयादशमी राष्ट्रीय भावना के जागरण का ही पर्व है। इस विचार से प्रेरित होकर ही विजयादशमी पर आरआरएस की स्थापना हुई थी। इसके संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार सक्रिय स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी थे। उन्हें विश्व गुरु एवं सोने की चिड़िया का परतन्त्र होना विचलित करता था। उन्होंने इस प्रश्न पर व्यापक एवं गम्भीर शोध किया था। वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि राष्ट्रीय गौरव,स्वाभिमान एवं एकता के अभाव का भारत को नुकसान हुआ। विदेशी आक्रांताओं ने इसका लाभ उठाया। राष्ट्रीय भाव एवं सामाजिक समरसता के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना की गई। राष्ट्र को पुनः परम् वैभव के पद पर आसीन करना इसका लक्ष्य बनाया गया। संघ अनवरत इस दिशा में कार्य कर रहा है। पिछले कुछ दिनों में हुए महत्वपूर्ण समाधान को उन्होंने सराहनीय बताया। इसमें श्री राम जन्म भूमि पर मंदिर निर्माण का भूमि पूजन,अनुच्छेद तीन सौ सत्तर की समाप्ति एवं नागरिकता संशोधन कानून शामिल है।

    राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त होना अभूतपूर्व रहा। समाज ने इस पर संयम दिखाया। लेकिन नागरिकता संशोधन कानून पर नकारात्मक राजनीति हुई। इसमें किसी भारतीय की नागरिकता समाप्ति के एक शब्द भी नहीं था। यह तो पड़ोसी देशों में उत्पीड़ित बन्धुओं को नागरिकता देने का कानून था। फिर भी इस पर भ्रम फैलाया गया। अराजकता फैलाने का प्रयास किया गया। लेकिन कोरोना के कारण यह आगे नहीं बढ़ सका। जबकि ऐसे सभी समाधान भारतीय चिंतन के अनुरूप थे। इसमें सर्वे भवन्तु सुखिनः,सर्वे सन्तु निरामयःकी कामना की गई। इसी के अनुरूप कोरोना काल में जरूरतमंदों की सहायता प्रदान की गई। इस अवधि में सरकार ने समय पर उचित निर्णय लिए। संघ की यही विचार दृष्टि है। स्वयं सेवक का भाव भी इसी को रेखांकित करता है। निःस्वार्थ सेवा का विचार ही किसी को स्वयंसेवक बनाता है। सेवा कार्य में कोई भेदभाव नहीं होता। संघ के स्वयंसेवक पूरे देश में सेवा प्रकल्प चलाते रहे हैं। सभी आनुषंगिक संघटन इस समय इसी कार्य में तन मन धन से समर्पित रहे है। समाज और देश को स्वदेशी को अपनाना होगा। संकट को अवसर के रूप में समझने की आवश्यकता है। इसी से बेतरह भारत की राह निर्मित होगी। स्वदेशी उत्पाद में क्वालिटी पर ध्यान देने की आवश्यकता है। विदेशों पर निर्भरता को कम करना होगा।स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करना चाहिए। वर्तमान परिस्थिति में आत्मसंयम और नियमों के पालन का भी महत्व है।

    समाज में सहयोग,सद्भाव और समरसता का माहौल बनाना आवश्यक है।भविष्य की चुनौतियों के लिए भी तैयारी करनी होगी। नए सिरे से रोजगार की व्यवस्था करनी होगी। अर्थनीति, विकासनीति की रचना अपने सिस्टम के आधार से करना होगी। यह किसी के विरोध का समय नहीं है। मोहन भागवत ने कहा कि जरूरतमंदों की निस्वार्थ सहायता करनी चाहिए। यह हमारे देश का विषय है। इसलिए हमारी भावना सहयोग की रहेगी। एक सौ तीस करोड़ का समाज भारत माता का पुत्र है। हमारा बंधु है। देश में कोरोना के फैलने के कारण हम जानते हैं। लेकिन यह कुछ विशेष लोगों की गलती थी। इसके आधार पर पूरे समाज को उस पर आरोपित नहीं करना है। अपने स्वार्थ के लिए भारत तेरे टुकड़े होंगे, यह कहने वाले भी हमारे बीच बहुत हैं। बहुत से लोग अवसर की ताक में हैं। ऐसे में हमें अपने मन में क्रोध और अविवेक के कारण इसका लाभ लेने वाली अतिवादी ताकतों से सावधान रहना हैं।

    प्रभु श्री राम ने भी मर्यादा का मार्ग दिखाया-
    रिपु रन जीति सुजस सुर गावत। सीता सहित अनुज प्रभु आवत॥
    सुनत बचन बिसरे सब दूखा। तृषावंत जिमि पाइ पियूषा॥
    तासु तेज समान प्रभु आनन। हरषे देखि संभु चतुरानन॥
    जय जय धुनि पूरी ब्रह्मंडा। जय रघुबीर प्रबल भुजदंडा॥
    बरषहिं सुमन देव मुनि बृंदा। जय कृपाल जय जयति मुकुंदा॥

    आज भी राष्ट्रीय सुरक्षा और समाज सुधार के प्रति जागरूक रहने की आवश्यकता है। पिछले दिनों वीर सावरकर को लेकर भी चर्चा शुरू हुई। इसका भी यही सन्दर्भ था। रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने वीर सावरकर के राष्ट्रीय सुरक्षा संबन्धी विचारों को बहुत महत्वपूर्ण और प्रासंगिक बताया था। उनके विचार आज अधिक प्रासंगिक हैं। मोहन भागवत ने कहा कि वीर सावरकर के सर्वांगीण स्वीकार्य का यह अवसर है। पहले देश की रक्षा नीति विदेश नीति के पीछे चलती थी। सरकार के फैसले इस आधार पर तय होते थे कि दुनिया हमारे बारे में क्या सोचेगी और क्या कहेगी। वर्तमान सरकार ने इस नीति में बदलाव किया।वीर सावरकर ने देश के युवाओं को सैन्य प्रशिक्षण दिए जाने पर जोर दिया था। यह वह समय था, जब सरकार में बैठे कुछ लोग यह दलील दे रहे थे कि सेना को कल कारखाने चलाने के काम में लगाया जाना चाहिए। चीन युद्ध ने लोगों की आंखे खोल दी थी। देश की रक्षा के बारे में सावरकर ने चिंता आखिरकार सही साबित हुई।

    वीर सावरकर की आलोचना और विरोध भारत की राष्ट्रीयता के खिलाफ सुनियोजित अभियान है। वर्तमान सरकार उचित दिशा में कदम बढ़ा रही है। राष्ट्रीय हित में बड़े निर्णय लिए जा रहे हैं। इसके पीछे वीर सावरकर के विचार और आदर्श हैं। इसलिए मौजूदा दौर को सावरकर युग कहना गलत नहीं होगा। यह युग देशभक्ति का युग है। यह युग राष्ट्रीय गौरव और देश की असली पहचान के गुणगान का युग है। यह कालखंड इस बात की उद्घोषणा है कि धर्म, भाषा,जाति,पंथ के मतभेदों से ऊपर उठकर सभी देशवासी अधिकार और कर्तव्य के बराबर के सहभागी हैं। देश की स्वतंत्रता के बाद से ही वीर सावरकर को बदनाम करने की मुहिम चली। वीर सावरकर ने राष्ट्रीय एकता का सूत्र दिया। वे देश की एकता और अखंडता के प्रतीक थे। वीर सावरकर ने देश के विभाजन को रोकने का प्रयास किया था। विभाजन का विचार भारतीयता के बिल्कुल उलट है। सावरकर जी को बदनाम करने की कोशिश की गयी।अंग्रेजों की विभाजनकारी नीति के तहत शोध और पाठ्यक्रमों के जरिये ऐसा किया गया। कई महापुरुषों के योगदान का उल्लेख सिरे से नदारत है।

    डॉ. हेडगेवार भी स्वतंत्रता आंदोलन से निकले लेकिन यह पाठ्यक्रम में नहीं दिखता। इसलिए पाठ्यक्रम को भी बदलने की जरूरत है। सावरकर जी के राष्ट्रवाद में सबको समान अधिकार का चिंतन है। उसमें कोई सौदा नहीं है। देश हमें सब कुछ देता है तो हमें भी देना है। वह नहीं देता है तब भी हमें देना ही है। वीर सावरकर के राष्ट्रवाद में त्याग का यह जज्बा था। महापुरुषों को भी बांटने की साजिश चल रही है। जबकि हमारे देश के महापुरुष बड़े उदार और प्रजातांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाले व्यक्तित्व रहे। डॉ.भीमराव अंबेडकर और वीर सावरकर के बीच भी इसी तरह के टकराव की बेबुनियादी बात कही गयी, जो सच नहीं है।मतों में भेद हो सकता है। लेकिन एक दूसरे से वैमनस्य नहीं था। तब अंग्रेजी राज में जिले के अधिकारियों ने संघ की शाखाओं का जिक्र करते हुए लिखा कि ये बड़े खतरनाक दिखते हैं। सच यह है कि ऐसा संघ की राष्ट्रभक्ति के चलते कहा गया। वीर सावरकर पहले ही संग्राम में शामिल थे। डॉ.हेडगेवार तो इसी शाखा से निकलकर स्वाधीनता आंदोलन में गए। बाबा साहब भीमराव आंबेडकर का गुरु जी से सम्पर्क था। डॉ आंबेडकर शाखा में शामिल हुए थे। गुरुजी के साथ उन्होंने भोजन भी किया था। आज भी बांटो और राज करो के तहत इतिहास को गलत तरीके से रखने की साजिश जारी है। इसे ठीक करने के लिए पाठ्य पुस्तकों में बदलाव बहुत जरूरी है।

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