नई दिल्ली: लोकसभा चुनाव की तारीख जारी होते ही पार्टियां घोषणा पत्र यानी मेनिफेस्टो को तैयार करने में जुट गई हैं. फिलहाल सबसे ज्यादा चर्चा कांग्रेस के घोषणा पत्र की हो रही है. कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक के बाद इस बात की चर्चा है कि पार्टी अपने चुनावी पिटारे से सच्चर कमेटी, ओल्ड पेंशन स्कीम और जांच एजेंसियों पर कानून बनाने की घोषणाएं कर सकती है. बैठक के बाद कांग्रेस नेता सचिन पायलट ने कहा कि हम अपने घोषणा पत्र में देश के हालात के बारे में भी बताएंगे.
घोषणा पत्र को महज एक डॉक्यमेंट नहीं माना जाता, यह चुनावी रण को जीतने में अहम रोल निभाता है. घोषणाएं मतदाताओं को प्रभावित करती हैं और अक्सर चुनावों में यह टर्निंग पॉइंट साबित होती हैं. इसी बहाने आइए जानते हैं, क्या होता है घोषणा पत्र, कैसे बनाया जाता है, इसे बनाने के लिए चुनाव आयोग की किन शर्तों का पालन करना अनिवार्य है और सुप्रीम ने क्यों पार्टियों के मेनिफेस्टो पर क्या सवाल उठाए थे?
कैसे घोषणा पत्र बनाती हैं पार्टियां?
आसान भाषा में समझें तो घोषणा पत्र ऐसा दस्तावेज होता है जो चुनाव लड़ने वाली पार्टियां जारी करती हैं. इसके जरिए राजनीतिक दल बताते हैं कि सत्ता में आने पर वो क्या-क्या करेंगे. कैसे सरकार चलाएंगे. जनता को कितना फायदा होगा. इस तरह घोषणा पत्र वादों के पिटारों से कम नहीं होता, जिसे बताकर पार्टियां वोट मांगती हैं. हालांकि यह बात अलग है वो कितने पूरे होते हैं.
राजनीतिक दल इसे तैयार करने के लिए एक लम्बी-चौड़ी टीम गठित करते हैं. टीम पार्टी की नीति, मुद्दे, देश की जरूरत और दूसरी पार्टियों की कमजोरी समझने का काम करती है. इन सब पर नजर रखते हुए वो ऐसी घोषणाओं का पिटारा तैयार करती है, जो मतदाताओं को रिझाए और विरोधी पार्टियों पर भारी पड़े. इसमें कौन-कौन से मुद्दे शामिल होंगे, इसको लेकर पार्टियों में कई दौर की बैठकें चलती हैं. पदाधिकारियों की रजामंदी के बाद इसे जारी किया जाता है.
सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद बदलनी पड़ी गाइडलाइन
भारत से अलग दुनिया के दूसरे देशों में पार्टियां चुनावी पिटारे में आर्थिक नीति, हेल्थ को बेहतर बनाने की घोषणा और शासन में सुधार करने के साथ कई मुद्दों का जिक्र करती हैं, जिससे सीधे-सीधे मतदाताओं को कोई लालच नहीं दिया जाता है. लेकिन भारत में कई बार घोषणा पत्रों में ऐसे वादों का जिक्र किया गया जिसे पूरा करना या तो नामुमकिन सा था या फिर राजनीतिक दल मुफ्त रेवड़िया बांटने की बात कहते थे. इसका मामला कोर्ट में पहुंचा.
सुप्रीम कोर्ट में जुलाई 2013 एस सुब्रमण्यम बालाजी वर्सेज तमिलनाडु सरकार और अन्य मामले की सुनवाई हुई. जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस पी सतशिवम की खंडपीठ ने सुनवाई में कहा था पार्टियों के मुफ्त विवरण यानी फ्रीबिज लोगों पर असर छोड़ते हैं. देश में अब तक कोई ऐसा प्रावधान नहीं बना जो पार्टियों को ऐसा लालच देने से रोके या ऐसी घोषणाओं को नियंत्रित कर सके.कोर्ट ने कहा था कि राजनीतिक दलों से बात करके चुनाव आयोग इस पर गाइडलाइन तैयार करे. 2013 में आयोग ने इस पर गाइडलाइन भी जारी की थी.
क्या है चुनाव आयोग की गाइडलाइन?
चुनाव आयोग की गाइडलाइन कहती है, घोषणा पत्र में कुछ भी ऐसा नहीं होगा जो संविधान के सिद्धांतों का उल्लंघन करे. राजनीतिक पार्टियों को ऐसे वादों से बचना होगा जो चुनाव की प्रक्रिया पर बुरा असर डालें. राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्र में जो भी वादे बताएंगे वो कैसे पूरे होंगे इसे भी बताना पड़ेगा. वादों को पूरा करने के लिए फंड कहां से लाएंगे, यह भी बताना होगा.
दुनिया के ज्यादातर लोकतांत्रिक देशों में मेनिफेस्टो को लेकर कोई सख्त कानून नहीं है. लेकिन इलेक्टोरल अथॉरिटी के पास यह पावर होती है कि वो पार्टी के मेनिफेस्टो में घोषणाओं को हटा सकती हैं. भूटान और मैक्सिको में ऐसा होता है. वहीं, UK में अथॉरिटी ने गाइडलाइन में यह बताया है कि पार्टियां चुनावी अभियान में कितनी चीजों का इस्तेमाल करेंगी-किन चीजों का नहीं. इसमें घोषणा पत्र भी शामिल है. वहीं अमेरिका में ऐसा कोई नियम नहीं है.
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