नई दिल्ली (New Delhi)। विपक्ष (opposition) को एकजुट (united) करने की मुहिम का हर कदम इस बार फूंक-फूंक कर बढ़ाया जा रहा है। कदम बढ़ाने से पहले इसका प्रचार न हो, इसका भी पूरा खयाल रखा जा रहा है। नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के इस अभियान के ताजा दो दौरों में इसे महसूस किया गया। चाहे कांग्रेस नेताओं (congress leaders) से मुलाकात को दिल्ली (Delhi) या ममता बनर्जी (Mamta Banerjee) और अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) से मिलने के लिए कोलकाता (Kolkata) और लखनऊ (Lucknow) का दौरा हो, दोनों दौरों की जानकारी गोपनीय रखी गई। ताकि दौरा से पहले इस पर खिचड़ी पकाने की गुंजाइश न बने।
विपक्ष को एकजुट करने की मुहिम के सफल होने पर मुख्यत तीन पहलुओं को सामने रखकर सवाल खड़े किए जाते रहे हैं। पहला कांग्रेस इसके लिए राजी होगी, दूसरा ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल, नवीन पटनायक क्या कांग्रेस के साथ विपक्षी एका के लिए सहमत होंगे, तीसरा और सबसे अहम सवाल प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन होगा? बीते एक महीने में नवीन पटनायक को छोड़ इनमें बाकी सभी नेताओं के अलावा वामदलों के नेताओं से नीतीश कुमार की मुलाकात हुई है। अब तक जो बातें सामने आई हैं, उनमें जिन सवालों को लेकर आशंकाएं जताई जाती रही हैं, कोई भी प्रथम दृष्टया बाधा बनती नजर नहीं आईं। हां, एक सुर में इन सभी नेताओं ने भाजपा के खिलाफ गोलबंद होने पर सहमति जताई। नीतीश कुमार की पहल को राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव समेत वाम दलों के नेताओं ने जमकर सराहा।
विपक्ष को एकजुट करने की मुहिम का यह पहला पड़ाव है। अभी कई अन्य क्षेत्रीय क्षत्रपों से नीतीश कुमार मिलेंगे। इनमें जितने दल साथ बैठने और चलने को सहमत होंगे, अगला पड़ाव उनकी साझा बैठक होगी। वह बैठक ज्यादा अहम होगी। उसमें मुहिम को आगे बढ़ाने के आकार- प्रकार पर चर्चा होगी। न्यूनतम साझा कार्यक्रम, सीटों का बंटवारा और नेता का चुनाव। इन सवालों पर सहमति आसान नहीं है, लेकिन अब तक के प्रयासों को मिली सफलता के मद्देनजर यह कहकर खारिज कर देना भी आसान नहीं है कि यह संभव नहीं होगा। अब तक नेताओं के सियासी पूर्वाग्रहों को सबसे बड़ी बाधा माना जा रहा था, लेकिन ऐसा अब तक सामने नहीं आया। ममता बनर्जी ने तो इसे साफ भी कर दिया कि मेरा कोई निजी ईगो नहीं है। इस बार की पहल की सबसे बड़ी विशेषता है कि मुहिम का हर कदम पूरी तैयारी के बाद बढ़ाया जा रहा है। मिलने से पहले सहमति लेने का दौर चलता है। किंतु- परंतु के पहलुओं को खंगाला जाता है, फिर अनुकूल प्रतिक्रिया के बाद मुलाकातें होती हैं।
विपक्ष को एकजुट करने के प्रयासों की पहले से तुलना जल्दबाजी होगी। पहले थर्डफ्रंट की पहल हुई थी। इस बार कांग्रेस के साथ विपक्षी एकता की बात हो रही है। देश में इस तरह का प्रयोग पहले सफल भी रहा है, जब सोनिया गांधी ने पहल की और यूपीए ने आकार लिया। यूपीए को मिली सफलता किसी से छिपी नहीं है। इस बार बिहार की धरती से इसकी पहल हुई है। लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने इसी धरती से कांग्रेस के खिलाफ बिगुल फूंका था। बहरहाल, विपक्षी दलों का एक साझा मंच कबतक और किस प्रकार आकार लेगा, इसके लिए इंतजार करना होगा।
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