प्रमोद भार्गव
है न आश्चर्य की बात कि बौद्ध भिक्षु रूस के अंतरिक्ष विज्ञानियों को योग के ऐसे तरीके सिखा रहे हैं, जिनके जरिए हफ्तों तक अर्ध-सुप्तावस्था या शीतनिद्रा में रह सकें। भिक्षुओं की ये ज्ञान पद्धतियां भविष्य में लंबी दूरी के मंगल, शुक्र, बृहस्पति जैसे अंतरिक्ष अभियानों में यात्री उपयोग में लाएंगे, जिससे उनकी यात्रा सरल हो जाए। मॉस्को स्टेट विवि के वैज्ञानिक दलाई लामा की अनुमति से सौ बौद्ध भिक्षुओं पर यह अध्ययन कर रहे हैं। साफ है, भारतीय योग की क्रियाएं किसी प्रकार के अंधविश्वास का हिस्सा न होते हुए, शरीर को स्वस्थ्य, चित्त को एकाग्र व मस्तिष्क को शांत बनाए रखने के उपाय है। यदि चरित्र उत्तम और आचरण शुद्ध हो तो योग का अप्रत्याशित लाभ होता है।
मार्स-500 और लंबी दूरी के रूसी स्पेस मिशन के प्रमुख प्रो, यूरी बबयेव के अनुसार ‘भिक्षुओं द्वारा योग साधना में प्रयोग की जाने वाली ‘शीतनिद्रा’ मंगल जैसे मिशन के लिए जरूरी मानी जा रही है। बबयेव का समूह मुख्य रूप से तिब्बती भिक्षुओं की टुकड़म प्रणाली अर्थात मरणोपरांत ध्यान पर काम कर रही है। इस साधना में लीन हो जाने पर भिक्षुओं को चिकित्सीय रूप में मृत घोषित कर दिया जाता है। तत्पश्चात वे बिना किसी शारीरिक तत्वों के क्षरण के सीधे बैठे रहते हैं। उनके शरीर से कोई दुर्गंध भी नहीं आती और फिर सामान्य अवस्था में भी आ जाते हैं। यह दल मानसिक चेतना की बदलती हुई अवस्थाओं पर भी अध्ययन कर रहा है।
शीतनिद्रा, योगनिद्रा, श्वासन, ध्यान और प्राणायम जैसी पद्धतियों को सीखकर ये वैज्ञानिक चयापचय (मेटाबॉल्ज्मि) की गति को नियंत्रित करने अथवा परिवर्तित करने के गुण सीख रहे हैं। ताकि लंबी दूरी की अंतरिक्ष यात्रा भोजन की कमी के बावजूद सुगमता से कर सकें और शरीर को किसी प्रकार की हानि भी न हो। भारतीय योग साधनाएं शरीर को रथ और इंद्रियों को अश्व मानती हैं। इनमें आत्मा रथी है, बुद्धि सारथी है और मन लगाम है। सारथी अश्वों की लगाम खींच कर हांक रहा है। इस रूपक से निश्चित है कि शरीर और इंद्रियों के समन्वय से ही शरीर गतिशील रहता है और इंद्रियों के माध्ययम से उसे शक्ति या ऊर्जा मिलती है। शरीर स्थूल है, किंतु इंद्रियां जिन शब्द स्पर्श, रूप, रस और गंध को ग्रहण करती हैं, वे सूक्ष्म हैं। इंद्रियों को नियंत्रित करने वाला मन और भी अधिक सूक्ष्म है। पंच-तत्वों से निर्मित शरीर में इंद्रियां भोग का प्रवेश द्वार हैं और मन इनकी संवेदना को ग्रहण कर बुद्धि को अनुभूति कराता है। इसीलिए बौद्ध मनोविज्ञान में शरीर और मन को एक-दूसरे पर निर्भर माना गया है गोया, इंद्रियों और मन पर नियंत्रण ही योग साधनाओं का मूल है।
ऐसा माना जाता है कि शीतनिद्रा या योग निद्रा की प्रेरणा ऋृषि-मुनियों ने वन्य-प्राणियों से ली है। मौसम की प्रतिकूलता और आहार की कमी के चलते ध्रुवीय भालू, सांप, कछुआ, मेंढक जैसे जीव शीत-ऋतु में कई महिनों के लिए भूमिगत होकर शीत-निद्रा में चले जाते हैं। जिससे ठंड का प्रभाव झेलना नहीं पड़े। इस समय इनकी सांस धीमी गति से चलती है और ये शरीर में पूर्व से उपलब्ध चर्बी व अन्य पोषक तत्वों से जीवन के लिए ऊर्जा लेते हैं। हिमालय में ऐसे समाधि में लीन योगियों की चर्चा देखने-सुनने में आती रहती है। विचारहीनता की यही स्थिति मन-मस्तिष्क और इंद्रियों को निश्चेत या निष्क्रिय बनाए रखने का काम करती है। इस स्थिति में शरीर का तापमान सामान्य से नीचे चला जाता है और चयापचय की क्रिया सुप्त पड़ जाती है। चिकित्सा विज्ञान में इसे ही मृत अवस्था माना जाता है, लेकिन इस स्थिति को प्राप्त योगी, योग-निद्रा में लीन होने के कारण वास्तव में जीवित होते हैं।
भारतीय योगदर्शन में साधना की इस स्थिति को आत्म-सम्मोहन की चरम स्थिति माना गया है। तिब्बती बौद्धों में इस साधना में उत्तीर्ण होने के लिए एक कठिन परीक्षा से गुजरना होता है। इसमें शिक्षार्थियों को तिब्बत के पठारों पर जब बर्फ गिरती है, तब निर्वस्त्र गिरती बर्फ के चीचे बिठाकर साधना में लीन हो जाने की आज्ञा दी जाती है। जब ये भिक्षु साधना की पूर्ण स्थिति में लीन हो जाते हैं, तब यह जानकर आश्चर्य होता है कि इनके शरीर से शून्य से नीचे तापमान होने के बाद पसीना चुचाता रहता है। शरीर और मन पर नियंत्रण की यह अद्वितीय साधना भिक्षु की अंतिम परीक्षा होती है। बहरहाल रूस के वैज्ञानियों से प्रेरित होकर भारतीय वैज्ञानिक भी क्या अंतरिक्ष अभियानों के लिए योग साधनाओं के प्रयोग को अपनाने की हिम्मत जुटाएंगे ?
चूंकि अंतरिक्ष अभियान लंबी दूरी के होते हैं इसलिए रूसी वैज्ञानिक इन योग साधनाओं को सीखकर चयापचय की स्वाभाविक क्रिया को नियंत्रण में लेना चाहते है, जिससे शरीर में ऊर्जा की बचत हो, शरीर का क्षरण भी न हो और यात्रा जारी रहे। नए वैज्ञानिक प्रयोगों से ज्ञात हुआ है कि भ्रामरी प्राणायम से नाइट्रिक ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। फलतः प्राणवायु (ऑक्सीजन) की मात्रा बढ़ जाती है। जो अंतरिक्ष में दुर्लभ होती है। इस योग साधना से खुशी को बढ़ाने वाले हर्मोनों का स्राव होता है।
दरअसल हमारा पाचन तंत्र पूरी तरह श्वांस-प्रश्वांस पर आश्रित रहता है। श्वांस द्वारा ली गई प्राणवायु आहार को पचाने में महत्वपूर्ण होती है। इसके बिना भोजन में उपलब्ध प्रोटीन और वसा ग्लूकोज में परिवर्तित नहीं हो पाते हैं। प्रश्वांस द्वारा शरीर विभिन्न क्रियाओं से उत्सर्जित विसाक्त पदार्थों को बाहर कर देता है। इसे ही विज्ञान की भाषा में कार्बनडाइ ऑक्साइड कहा जाता है। श्वांस-प्रश्वांस के शरीर में आवागमन से ही शरीर स्वस्थ्य व मन प्रसन्न रहते हैं। योग के प्राचीन ग्रंथों के अनुसार नियमित योग करने से व्यक्ति की चेतना ब्रह्मंड की चेतना से जुड़ जाती है, जो मन एवं शरीर, मानव एवं प्रकृति के बीच समन्वय स्थापित करती है। योग के बाद शरीर में बीटा एंडोर्फिन नामक हार्मोन का स्राव बढ़ जाता है, जो शरीर को दर्द और मस्ष्कि को तनाव से मुक्त करता है।
कठिन योग क्रिया ‘शक्तिपात’ के साधक डॉ. रघुवीर सिंह गौर का कहना है कि ‘योग के मार्ग में शक्तिपात क्रिया साध्य है, जो अष्टांग योग का श्रम साध्य रूप है। इसी का दूसरा रूप कृपा साध्य है, जिसे भगवान कृष्ण ने कुरुक्षेत्र में शक्तिपात के माध्यम से अर्जुन को विराट रूप दिखाया था। शक्तिपात से कुण्डलिनी जागृत और चेतना परिमार्जित होती है। परिणामतः साधक को ईश्वरानुभूति या आत्म-साक्षात्कार का अनुभव होता है। गोया, योग शरीर की ऐसी वैज्ञानिक क्रियाएं हैं, जो बिना दवा के शरीर को संपूर्ण रूप से स्वस्थ्य बनाती हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)