भोपाल। मप्र में 27 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव में भाजपा और कांग्रेस के साथ ही बसपा भी चुनावी तैयारी कर रही है। बसपा की कोशिश है कि वह अपने प्रभाव वाले विधानसभा क्षेत्रों में पूरी दमदारी से चुनाव लड़े। इसके लिए पार्टी सर्वे करा रही है। बसपा नेताओं का दावा है कि उपचुनाव में पार्टी बेहतर प्रदर्शन करेगी। वहीं भाजपा और कांग्रेस को यह डर सता रहा है कि बसपा के कारण उनकी जीत का गणित न बिगड़ जाए। गौरतलब है कि जिन 27 सीटों पर उपचुनाव हो रहा है, उनमें से 16 सीटों-मुरैना, अंबाह, मेहगांव, सुमावली, ग्वालियर शहर, ग्वालियर पूर्व, गोहद, दिमनी, जौरा, डबरा, भांडेर, करेरा, पोहरी, बामोरी, अशोकनगर और मुंगावली में बसपा का प्रभाव है। वहीं 10 सीटों मेहगांव, डबरा, अशोकनगर, भांडेर, सुमावली, करैरा, जौरा, मुरैना, दिमनी और अंबाह में वह कभी न कभी फतह भी हासिल कर चुकी है।
जनाधार वापस पाने की तैयारी
प्रदेश के इतिहास के सबसे बड़े उपचुनाव में जहां भाजपा और कांग्रेस सत्ता के लिए जोर लगाएंगे, वहीं बसपा अपना जनाधार वापस पाने की तैयारी में है। उसे उम्मीद है कि वर्ष 2018 में लगे झटके से उबरकर वह वर्ष 2008 की स्थिति में आ सकती है। बसपा की संभावनाएं इन 16 सीटों के वर्ष 2003 से 2018 तक के विस चुनावों के आंकड़ों से भी स्पष्ट होती है। वह इन सीटों में से कई पर मुख्य मुकाबले में रही है। साथ ही वोट शेयर भी खासा रहा है।
2008 का इतिहास दोहराने की तैयारी
2003 में बसपा ने करैरा सीट जीती तो मुरैना, अंबाह में 20 से 28 प्रतिशत तक वोट मिले थे, जबकि सात सीटों पर 10 से 19 प्रतिशत तक वोट शेयर था। 2007 से 2012 तक बसपा प्रमुख मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं, जिसका प्रभाव सीमावर्ती विस सीटों पर रहा। 2008 के विस चुनाव में पार्टी ने 228 सीटों पर चुनाव लड़कर सात पर सफलता हासिल की। वोट शेयर बढ़कर नौ प्रतिशत हो गया। मुरैना, जौरा सहित चार सीटों पर 30 और छह सीटों पर 20 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले थे।
गिरते ग्राम ने बढ़ाई चिंता
2013 से गिर रहा ग्राफ 2013 में बसपा 227 सीटों पर लड़कर चार ही जीत सकी और वोट शेयर 6.4 प्रतिशत रह गया। इन 16 में से तीन पर 36 से 44 प्रतिशत तक वोट मिले, जबकि नौ सीटों पर आंकड़ा 20 प्रतिशत से कम था। पार्टी को बड़ा झटका 2018 में लगा, जब मुरैना, अंबाह और दिमनी में वोट शेयर 20 प्रतिशत से नीचे चला गया। पोहरी, करैरा और जौरा में ही बसपा 23 से 32 प्रतिशत तक पहुंच सकी। सात सीटों पर तो वोट शेयर इकाई में ही रहा। पार्टी मानती है कि ये गिरावट उन मतदाताओं के मुंह मोडऩे से आई, जिन्हें कांग्रेस ने भरोसा दिया था कि सरकार बनने पर वह एट्रोसिटी एक्ट के भारत बंद के दौरान उन पर दर्ज मुकदमे वापस लेगी। कमल नाथ सरकार इसे निभा नहीं सकी।
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