– आर.के. सिन्हा
हिन्दी दिवस है तो स्वाभाविक है आज हिन्दी के विद्वानों, लेखकों, साहित्यकारों आदि की बातें होंगी ही। ये लगभग सारे विद्वान हिन्दी पट्टी के ही होंगे। इसमें कुछ अपवाद भी हो सकते हैं। कितना अच्छा हो कि हिंदी दिवस के इस महान अवसर पर हम उन हिन्दी सेवियों के अवदान को भी रेखांकित करें जो मूलत: भारतीय नहीं हैं। उनकी मातृभाषा भी हिन्दी नहीं है। इसके बावजूद इन्होंने हिन्दी सीखी और आगे की पीढ़ी को पढ़ाया या फिर हिंदी में लिखा भी और अपनी रचनाओं से हिंदी भाषा को समृद्ध किया।
कहना नहीं होगा कि इस तरह के हिन्दी सेवियों में पहला नाम फादर कामिल बुल्के का सामने आता है। यह असंभव है कि हिन्दी पट्टी के किसी शख्स ने उनका नाम न सुना हो या अंग्रेजी के किसी जटिल शब्द का हिन्दी में सही और उपयुक्त शब्द जानने के लिए फादर कामिल बुल्के द्वारा निर्मित शब्दकोष के पन्ने नहीं पलटे हों। फादर बुल्के आजीवन हिन्दी की सेवा में जुटे रहे। वे हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोश के निर्माण के लिए सामग्री जुटाने में सतत प्रयत्नशील रहे। आज के दिन उनका शब्दकोष सबसे प्रामाणिक माना जाता है। उन्होंने इसमें 40 हजार नये शब्द जोड़े भी और इसे आजीवन अपडेट भी करते रहे। बाइबल का भी हिन्दी अनुवाद किया। उनके अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोश को पढ़कर ही लाखों लोगों ने हिन्दी सीखी। मुझे सौभाग्य है कि अनेकों वर्ष रांची में होने वाले तुलसी जयंती समारोहों में उन्हें सुना। वे रामचरितमानस के उद्भट विद्वान थे और लगभग पूरा रामचरितमानस उन्हें कंठस्थ था। एक सौभाग्य की बात यह रही कि मेरी पत्नी उन्हीं की शिष्या रहीं और उन्हीं के मार्गदर्शन में रांची विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. किया।
इसी क्रम में 85 साल की कात्सू सान का नाम भी लिया जाएगा। वह राजधानी के रिंग रोड पर विश्व शांति स्तूप के पास रहती हैं। इससे पहले कि आप उन्हें अभिवादन करें, वे ही आपको नमस्कार करती हैं। कहती हैं,” मेरा नाम कात्सू सान है। मैं विश्व शांति स्तूप से जुड़ी हुई हूं। आपका यहां पर स्वागत है।” आप कात्सू जी की हिन्दी के स्तर और शुद्ध उच्चारण को सुनकर चकित हो जाते हैं। वार्तालाप चालू हो जाता है। वो बताती हैं, “मैं 1956 में भारत आ गई थी। भारत को लेकर मेरी दिलचस्पी भगवान बुद्ध के कारण बढ़ी थी।” कात्सू जी जापानी मूल की हैं। उनका एकबार भारत आने के बाद मन भारत में इतना रमा कि फिर उन्होंने यहीं जीवन भर बसने का निर्णय ले लिया। कहती हैं, “ अब भारत ही अपना देश लगता है। भारत संसार का आध्यात्मिक विश्व गुरु है।”
कात्सू जी ने हिन्दी काका साहेब कालेलकर जी से सीखी थी। वह अपने पास आने वाले जापान के बौद्ध भिक्षुओं को भी हिन्दी पढ़ाती हैं। कात्सू सान जैसी विभूतियां हिन्दी की सच में बड़ी सेवा कर रही हैं। इनके प्रति हिन्दी समाज को कृतज्ञ होना ही चाहिए। उन्होंने करीब 40 वर्ष पहले भारत की नागरिकता ग्रहण कर ली थी। कात्सू जी राजधानी में होने वाली सर्वधर्म प्रार्थना सभाओं का स्थायी चेहरा हैं। कुछ माह पहले राजधानी में संसद भवन की नई बनने वाली इमारत के भूमि पूजन के बाद सर्वधर्म प्रार्थना सभा का आयोजन किया गया था, जिसमें बौद्ध, यहूदी, पारसी, बहाई, सिख, ईसाई, जैन, मुस्लिम और हिन्दू धर्मों की प्रार्थनाएं की गईं। इसकी शुरूआत ही हुई थी बुद्ध प्रार्थना से। इसे कात्सू जी ने ही किया था। देखिए हिन्दी का सही विकास तो तब ही होगा, जब उसे वे लोग भी पढ़ाने लगें, जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है।
आज जिलियन राइट की चर्चा करना भी अनिवार्य है। उनका संबंध ब्रिटेन से है। वे जब हिन्दी में बातचीत शुरू करती हैं, तो आप प्रसन्न हो जाते हैं। उनकी जुबान पर सरस्वती का वास है। राइट लंदन में बीबीसी में काम करती थीं। हिन्दी को प्रेम करती हैं, पढ़ती हैं और पढ़ाती हैं। सत्तर के दशक में भारत आने के बाद डॉ. राही मासूम रजा और श्रीलाल शुक्ल के उपन्यासों क्रमश: ‘आधा गांव’ और ‘राग दरबारी’ का अंग्रेजी में अनुवाद कर दिया। वे ‘आधा गांव’ के माहौल और भाषा को ज्यादा करीब से समझने के लिए रजा साहब के परिवार के सदस्यों से मिलीं भी थीं। कई इमामबाड़ों में गईं और मर्सिया होते भी देखा और समझा। उन्हें यह सब करने से ‘आधा गांव’का अनुवाद करने में मदद मिली। उनके पसंदीदा उपन्यासों में ‘राग दरबारी’ भी है। उन्होंने भीष्म साहनी की कहानियों का भी अनुवाद किया।
उन्हें भीष्म साहनी की कहानी ‘अमृतसर आ गया है’ विशेष रूप से पसंद है। दिल्ली के बाद उन्हें उत्तर प्रदेश पसंद है। वे कहती हैं ‘आधा गांव’ और ‘राग दरबारी’ का अनुवाद करने वाला उत्तर प्रदेश से दूर कैसे जा सकता है। जिलियन जी राजधानी में एक अरसे से रहती हैं। वे यहां के दुकानदारों से लेकर सब्जीवालों तक से हिन्दी में ही मोलभाव भी करती हैं। हालांकि पहली बार जब कोई उन्हें हिन्दी में बातचीत करते हुए सुनता है, तो हैरान अवश्य हो जाता है।
हैरान होना लाजिमी है। आखिर कितने गोरे हिन्दी बोल पाते हैं ? उनका मूड खराब हो जाता है जब ताजमहल या हुमायूं का मकबरा जैसे पर्यटन स्थलों पर उनसे विदेशी समझकर अधिक एंट्री फीस मांगी जाती है। जिलियन राइट कहती हैं, ‘मैं भारतीय हूं, अपना इनकम टैक्स देती हूं, फिर आप मेरे से अधिक एंट्री फीस क्यों ले रहे हो ?’ उनकी बात तो सही है। उन्होंने तो भारत की नागरिकता ले ली है।
भारत के चीन से संबंध बहुत सौहार्दपूर्ण कभी न रहे हों, पर भारत चीन के हिन्दी प्रेमी प्रोफ़ेसर च्यांग चिंगख्वेइ के प्रति सम्मान का भाव अवश्य रखेगा। प्रो. च्यांग चिंगख्वेह ने चीन में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया है। वे दशकों से पेइचिंग यूनिवर्सिटी में हिन्दी पढ़ा रहे हैं।
यहां ब्रिटेन के प्रो. रोनाल्ड स्टुर्टमेक्ग्रेगर का उल्लेख करना समीचीन होगा। प्रो. रोनाल्ड 1964 से लेकर 1997 तक कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में हिन्दी पढ़ाते रहे। वे चोटी के भाषा विज्ञानी, व्याकरण के विद्वान, अनुवादक और हिन्दी साहित्य के इतिहासकार थे। ब्रिटिश नागरिक प्रो. रोनाल्ड स्टुर्टमेक्ग्रेगर ने आचार्य रामचंद्र शुक्ल पर भी गंभीर शोध किया है। उन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास पर दो खंड तैयार किए।
सच पूछिए तो हिन्दी दिवस पर हिन्दी के इन सच्चे सेवियों को सम्मानित किया जाए तो कितना अच्छा रहे। हिन्दी तो प्रेम और सौहार्द की ही भाषा है। ये सबको अपने साथ जोड़ती है। इसे जानने-समझने वाले अब सिंगापुर, दुबई, अबू धाबी, लंदन, टोरंटो, न्यूयार्क के बाजारों में भी मिल जाते हैं। अब हिन्दी जानने से आपका लगभग सारी दुनिया में ही काम चल जाता है। इससे सब जुड़ रहे हैं। यही हिंदी की शक्ति है।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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