नई दिल्ली (New Delhi) । लोकसभा चुनावों (Lok Sabha Elections) के लिए विपक्षी कवायद के जवाब में भाजपा (BJP) के नेतृत्व वाले एनडीए (NDA) ने भी मैदान संभाल लिया है। सबसे बड़ी लड़ाई ओबीसी (OBC) और दलित समुदायों (Dalit communities) के बीच पैठ बढ़ाने और समर्थन जुटाने को लेकर है। भाजपा ने उत्तर भारत में प्रभावी सामाजिक समीकरण वाले ओबीसी व दलित समुदाय में पैठ रखने वाले दलों और नेताओं को जुटाकर अपनी ताकत बढ़ानी शुरू कर दी है। इसकी पहली बड़ी झलक मंगलवार को होने वाली एनडीए की बैठक में नजर आएगी।
राजनीतिक समीकरण
विपक्ष व सत्तापक्ष दोनों जब मंगलवार को बड़ी बैठकों के जरिए अपनी अपनी ताकत दिखा रहे होंगे, तब उनके सामने 2024 का चुनावी एजेंडा होगा। इसमें उनकी रणनीति के केंद्र में पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) व दलित समुदाय रहेगा, जिसकी आबादी व ताकत सत्ता का खेल बनाने व बिगाड़ने में सबसे अहम होती है।
उत्तर प्रदेश व बिहार में तो इस लड़ाई के केंद्र में होंगे, जहां नए राजनीतिक समीकरणों ने आकार लेना शुरू कर दिया है। दोनों राज्यों में लगभग 52 फीसद ओबीसी आबादी है। ऐसे में इस वर्ग का समर्थन सबसे ज्यादा मायने रखता है। दलित समुदाय की बिहार में लगभग 16 फीसद व उत्तर प्रदेश में लगभग 22 फीसद आबादी है।
नेताओं की वापसी
बिहार में भाजपा ने पिछला चुनाव जद (यू) व लोजपा के साथ मिलकर लड़ा था और राज्य की 40 लोकसभा सीटों में 39 सीटों पर जीत हासिल की थी। उत्तर प्रदेश में भाजपा के गठबंधन को 64 सीटें मिली थी। तब से अब तक कई दल भाजपा से दूर हुए, लेकिन अब कुछ दल और नेता फिर से वापसी कर रहे हैं।
स्थानीय व क्षेत्रीय सामाजिक समीकरणों के लिहाज से यह नेता काफी महत्वपूर्ण हैं। बिहार में जीतनराम मांझी व उपेंद्र कुशवाहा एनडीए में लौट आए हैं। चिराग पासवान की भी एनडीए में वापसी हो गई है। नागमणि जैसे नेता भी भाजपा के साथ आ गए हैं।
पैठ बनाने की कोशिश
उत्तर प्रदेश में भी भाजपा के साथ अब पुराने सहयोगी अपना दल व संजय निषाद की निषाद पार्टी के साथ ओम प्रकाश राजभर की सुभासपा भी आ गई है। दारा सिंह चौहान भी सपा छोड़ कर भाजपा में शामिल हो गए हैं। इससे भाजपा को राजभर, निषाद, केवट, मछुआरे, कुर्मी व दलित वर्ग में पैठ मजबूत करने में मदद मिलेगी।
भाजपा नेताओं का दावा है कि यह तो शुरुआत है अभी ओबीसी व दलित समुदाय से आने वाले कुछ और नेता एनडीए के मंच पर खड़े होंगे। इसके पीछे उसका तर्क विकास का एजेंडा है, जो प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में बीते नौ साल में इन वर्गों तक पहुंचा है।
भाजपा विपक्षी एकता को लेकर पूरी तरह सतर्क
दरअसल, भाजपा विपक्षी एकता को लेकर पूरी तरह से सतर्क है। राजद व जदयू के साथ आने से बिहार के समीकरण तो बदले ही हैं, दूसरे राज्यों में भी विपक्षी एकता को पंख लगे हैं। सपा भी इनके साथ है। इससे बिहार के साथ उत्तर प्रदेश की राजनीति खासी प्रभावित होगी। जद (यू) के साथ छोड़ने से भाजपा के सामाजिक समीकरण गड़बड़ाए हैं। इससे बिहार में तो चिंता बढ़ी ही है, उत्तर प्रदेश पर भी असर पड़ सकता है।
बिहार: पिछले लोकसभा चुनाव में दलित आरक्षित छह सीटों पर जीता था एनडीए
बिहार में पिछले लोकसभा चुनाव में कुल 40 सीटों में दलित वर्ग की आरक्षित सभी छह सीटों पर एनडीए जीता था। इनमें भाजपा ने एक, लोजपा ने तीन व जद (यू) ने दो सीट जीती थी। राज्य में पिछले विधानसभा चुनाव में जीते 39 दलित विधायकों में भाजपा के दस, जद (यू) के आठ, हम के तीन, वीआईपी के एक, राजद के आठ, कांग्रेस के चार, सीपीआई एमएल के तीन, सीपीआई के एक व अन्य एक विधायक शामिल थे।
यूपी: लोकसभा में 17 आरक्षित सीटों में भाजपा को 15 पर मिली थी जीत
उत्तर प्रदेश में लोकसभा में 17 आरक्षित सीटों में भाजपा को 15 व बसपा को दो पर जीत मिली थी। विधानसभा में दलित वर्ग की आरक्षित 84 सीटों में भाजपा ने 64 सीटें जीती थी। बसपा को एक ही सीट मिली थी। सपा को 18 व जनसत्ता पार्टी को एक सीट मिली थी।
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