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एनजीओ पर नकेल

October 02, 2020

– प्रमोद भार्गव

संसद के बीते सत्र में विधेयक विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम (एफसीआरए) पारित हुआ है। अभीतक एनजीओ, मसलन गैर-सरकारी संगठनों को विदेश से धन प्राप्त करने की खुली छूट थी। जबकि यह धन देशद्रोह, नक्सलवाद, सांप्रदायिक दंगे, धर्मांतरण एवं मनी लॉड्रिंग तक में उपयोग किया जाता रहा है। विकास विरोधी गतिविधियों में भी इस धन का इस्तेमाल हुआ है। इसलिए ऐसे संगठनों पर नकेल डालना जरूरी था।

अब भारत सरकार ने एफसीआरए कानून में संशोधन कर प्रावधान कर दिया है कि एनजीओ के सभी लेन-देन केवल भारतीय स्टेट बैंक के माध्यम से होंगे और धन खर्च में पारदर्शिता बरतनी होगी। संगठन के सभी सदस्यों के आधार नंबर भी देने होंगे। यह नियंत्रण इसलिए जरूरी हो गया था क्योंकि जब नागरिकता संशोधन विधेयक पारित हुआ था, तब कई संगठनों को इस विधेयक के विरुद्ध आंदोलन चलाने के लिए पैसा मिला था। साफ है, विदेशी धन के बूते चलने वाले दर्जनों एनजीओ राष्ट्रघाती काम में लगे हुए थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में इन एनजीओ पर निगरानी रखते हुए, इनकी कार्यप्रणाली का आकलन किया गया। नतीजतन 20,674 एनजीओ बंद और 1300 के एफसीआरए लाइसेंस रदद् कर दिए। अभी भी 19,000 एनजीओ ने लेखा-जोखा प्रस्तुत नहीं किया है। फिलहाल 22,457 एनजीओ सक्रिय हैं।

देश में स्वयंसेवी संगठनों को सरकार की जटिल शासन प्रणाली के ठोस विकल्प के रूप में देखा गया था। उनसे उम्मीद थी कि वे एक उदार और सरल कार्यप्रणाली के रूप में सामने आएंगे। इस परिप्रेक्ष्य में विकास संबंधी कार्यक्रमों में आम लोगों की सहभागिता की अपेक्षा की जाने लगी और उनके स्थानीयता से जुड़े महत्व व ज्ञान परंपरा को भी स्वीकारा जाने लगा। वैसे भी सरकार और संगठन दोनों के लक्ष्य मानव के सामुदायिक सरोकारों से जुड़े हैं। समावेशी विकास की अवधारणा भी खासतौर से स्वैच्छिक संगठनों के मूल में अतर्निहित है। जबकि प्रशासनिक तंत्र की भूमिका कायदे-कानूनों की संहिताओं से बंधी है। जबकि स्वैच्छिक संगठन किसी आचार संहिता के पालन की बाध्यता से स्वतंत्र हैं। इसलिए वे धर्म, सामाजिक कार्याे और विकास परियोनाओं के अलावा समाज के भीतर मथ रहे उन ज्वलंत मुद्दों को भी हवा देने लग जाते हैं, जो उज्ज्वल भविष्य की संभावनाओं और परियोजनाओं के संभावित खतरों से जुड़े होते हैं।

इन संगठनों की स्थापना के पीछे एक सुनियोजित प्रचछन्न मंशा थी, इसलिए इन्होंने कॉरपोरेट एजेंट की भूमिका निर्वहन में कोई संकोच नहीं किया, बल्कि आलिखित अनुबंध को मैदान में क्रियान्वित किया। गैर सरकारी संगठनों का जो मौजूदा स्वरूप है, वह देशी अथवा विदेशी सहायता नियमन अधिनियम के चलते राजनीति से जुड़े दल विदेशी आर्थिक मदद नहीं ले सकते हैं। लेकिन स्वैच्छिक संगठनों पर यह प्रतिबंध लागू नहीं है। हालांकि 1976 तक विदेशी मदद लेने पर प्रतिबंध था। इसलिए खासतौर से पश्चिमी देश अपने प्रच्छन्न मंसूबे साधने के लिए उदारता से भारतीय एनजीओ को अनुदान देने में लगे रहते हैं। ब्रिटेन, इटली, नीदरलैण्ड, स्विटजरलैण्ड, कनाड़ा, स्पेन, स्वीडन, ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम, फ्रांस, ऑस्ट्रिया, फिनलैण्ड और नार्वे जैसे देश दानदाताओं में शामिल हैं। आठवें दशक में इन संगठनों को समर्थ व आर्थिक रूप से संपन्न बनाने का काम काउंसिल फॉर एडवांसमेंट ऑफ पीपुल्स एक्शन (कपार्ट) ने भी किया। कपार्ट ने ग्रामीण विकास, ग्रामीण रोजगार, महिला कल्याण, गरीबी उन्मूलन, शिक्षा, साक्षरता, स्वास्थ्य, जनसंख्या नियंत्रण, एड्स और कन्या भ्रूण हत्या के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए संगठनों को दान में धन देने के द्वार खोल दिए। पर्यावरण संरक्षण एवं वन विकास के क्षेत्रों में भी इन संगठनों की भूमिका रेखांकित हुई।

भूमण्डलीय परिप्रेक्ष्य में नव उदारवादी नीतियां लागू होने के बाद और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भारत में आगमन का सिलसिला परवान चढ़ने के बाद तो जैसे एनजीओ के दोनों हाथों में लड्डू आ गए। खासतौर से दवा कंपनियों ने इन्हें काल्पनिक महामारियों को हवा देने का जरिया बनाया। एड्स, एंथ्रेक्स और बर्ड फ्लू की भयवहता का वातावरण रचकर एनजीओ ने ही अरबों-खरबों की दवाओं के लिए बाजार और उपभोक्ता तैयार करने में उल्लेखनीय किंतु छद्म भूमिका निभाई। चूंकि ये संगठन विदेशी कंपनियों के लिए बाजार तैयार कर रहे थे, इसलिए इनके महत्व को सामाजिक ‘गरिमा’ प्रदान करने की चालाक प्रवृत्ति के चलते संगठनों के मुखियाओं को न केवल विदेश यात्राओं के अवसर देने का सिलसिला शुरू हुआ, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मान्यता देते हुए इन्हें संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा आयोजित विश्व सम्मेलनों व परिचर्चाओं में भागीदारी के लिए भी आमंत्रित किया जाने लगा। इन सौगातों के चलते इन संगठनों का अर्थ और भूमिका दोनों बदल गए। जो सामाजिक संगठन लोगों द्वारा अवैतनिक कार्य करने और आर्थिक बदहाली के पर्याय हुआ करते थे, वे वातानुकूलित दफ्तरों और लग्जरी वाहनों के आदी हो गए। इन संगठनों के संचालकों की वैभवपूर्ण जीवन शैली में अवतरण के बाद उच्च शिक्षितों, चिकित्सकों, इंजीनियरों, प्रबंधकों व अन्य पेशेवर लोग इनसे जुड़ने लगे। जिन आईएएस, आईपीएस और आईएफएस की पत्नियां सरकारी नौकरियों में नहीं थीं, वे भी एनजीओ रजिस्टर्ड करवाकर उसकी संचालक बन गईं। इन वजहों से इन्हें सरकारी विकास एजेंसियों की तुलना में अधिक बेहतर और उपयोगी माना जाने लगा। देखते-देखते ये संगठन सरकार के समानांतर एक बड़ी ताकत के रूप में खड़े हो गए। बल्कि विदेशी धन और संरक्षण मिलने के कारण ये न केवल सरकार के लिए चुनौती साबित हुए, आंखें दिखाने का काम भी करने लगे।

स्वैच्छिक संगठनों को देशी-विदेशी धन के दान ने इनकी आर्थिक निर्भरता को दूषित तो किया ही, इनकी कार्यप्रणाली को भी अपारदर्शी बनाया। इसलिए ये विकारग्रस्त तो हुए ही अपने बुनियादी उद्देश्यों से भी भटक गए। कुडनकुलम परमाणु बिजली परियोजना में जिन संगठनों पर कानूनी शिकंजा मोदी सरकार में कसा गया है, उन्हें धन तो विकलांगों की मदद और कुष्ठ रोग उन्मूलन के लिए मिला था, लेकिन इसका दुरुपयोग वे परियोजना के खिलाफ लोगों को उकसाने में कर रहे थे। इसी तरह पूर्व केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद के न्यास ने विकलांगों के कल्याण हेतु जो धन भारत सरकार से लिया, उसका मंत्री जैसे दायित्व को संभाले हुए भी ठीक से सदुपयोग नहीं किया। आंध्र-प्रदेश के सांसद रघु कृष्णा राजू ने स्वीकारा है कि आंध्र-प्रदेश में धर्मांतरण विदेशी धन से कराया जा रहा है। ओड़िशा के एक एनजीओ में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा रोकने के लिए बड़े वकील किए थे। जाकिर नाइक विदेशी धन से ही मुस्लिम युवकों को धार्मिक रूप से कट्टर बनाने का काम कर रहा था। अब मुबंई स्थित उसके एनजीओ में ताला पड़ा है और जाकिर विदेश में फरारी काट रहा है।

हमारे देश में प्रत्येक 40 लोगों के समूह पर एक स्वयंसेवी संगठन है, इनमें से हर चौथा संगठन धोखाधड़ी के दायरे में हैं। नरेंद्र मोदी सरकार जब केंद्र में आई तो उसने इन एनजीओ के बही-खातों में दर्ज लेखे-जोखे की पड़ताल की। ज्यादातर एनजीओ के पास दस्तावेजों का उचित संधारण ही नहीं पाया गया। लिहाजा, ग्रामीण विकास मंत्रालय के अधीन काम करने वाले कपार्ट ने 1500 से ज्यादा एनजीओ की आर्थिक मदद पर प्रतिबंध लगा दिया और 833 संगठनों को काली सूची में डाल दिया। इनके अलावा केंद्रीय स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक न्याय मंत्रालयों एवं राज्य सरकारों द्वारा काली सूची में डाले गये एनजीओ अलग से हैं।

भू-मण्डलीकरण के पहले 1990 तक हमारे यहां केवल 50 हजार एनजीओ थे जबकि 2012 में इनकी संख्या बढ़कर लाखों में हो गई थी। चूंकि इन्हें विदेशी आर्थिक सहायता मिलती है, इसलिए इनके उद्देश्यों में छिपी गतिविधियों पर नजर रखना जरूरी है। कोरोना काल में इनकी प्रभावी भूमिका सामने नहीं आने से यह भी पता चला है कि ये संगठन केवल अनुकूल स्थितियों में ही समाज सेवा करने के आदी हैं।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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