– देवेन्द्रराज सुथार
हाल ही में सामने आया कि बिहार के 19 जिलों के 10 लाख लोग आर्सेनिक से प्रभावित हैं। बिहार के उत्तरी भाग में गंगा के मैदान के अधिकतर जिले इसकी चपेट में हैं। केंद्रीय भूमि जल बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार, 21 राज्यों में आर्सेनिक का स्तर भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा निर्धारित 0.01 मिलीग्राम प्रति लीटर की अनुमन्य सीमा से अधिक हो गया है। गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना नदी बेसिन के साथ-साथ उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और असम इस मानव-प्रवर्तित भू-गर्भीय घटना से सबसे अधिक प्रभावित हैं।
आर्सेनिक को विषों का राजा कहा जाता है। आर्सेनिक धातु के समान एक प्राकृतिक तत्व है। पेयजल, भोजन एवं वायु के माध्यम से मानव शरीर में एक निर्धारित मात्रा (0.05 मिग्रा./ली.) से अधिक पहुंच जाने पर यह मानव शरीर के लिये जहरीला हो जाता है। मुख्यतः आर्सेनिक प्रदूषण प्राकृतिक कारणों से होता है अर्थात हैण्डपम्प जिस स्ट्रैटा से पानी लेता है उसी में प्राकृतिक रूप से आर्सेनिक उपस्थित होता है। आर्सेनिक प्रदूषण मुख्यतः सक्रिय नदीय तंत्र से प्राकृतिक रूप से जुड़ा हुआ है और सामान्यतः बड़ी नदियों के बहाव क्षेत्र के मिट्टी में पाये जाते हैं। सामान्यतः आर्सेनिक विषाक्तता के प्रारम्भिक लक्षण त्वचा सम्बन्धी समस्याओं के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। बहुधा त्वचा के रंग में परिवर्तन, तथा गहरे या हल्के धब्बे शरीर पर दिखलाई पड़ते हैं। हथेली और तलवों की त्वचा कठोर, खुरदरी तथा कटी-फटी हो जाती है। ऐसे लक्षण ज्यादातर कई वर्षों तक लगातार आर्सेनिक प्रदूषित जल के पीने से होते हैं। यदि आर्सेनिक प्रदूषित जलग्रहण करना बन्द कर दिया जाये तो ऐसे लक्षणों का बढ़ना रुक सकता है तथा यह लक्षण खत्म भी हो सकते हैं। अधिक लम्बे समय तक आर्सेनिक प्रदूषित जल पीने से त्वचा का कैंसर तथा अन्य आन्तरिक अंगों तथा फेफड़े, आमाशय तथा गुर्दे का कैंसर हो सकता है। यह महत्त्वपूर्ण बात है कि आर्सेनिक प्रदूषण के लक्षण और चिन्ह अलग-अलग व्यक्ति, जनसमूह एवं भौगोलिक क्षेत्रों में भिन्न प्रकार के हो सकते हैं। आर्सेनिक से होने वाली बीमारियों की कोई सार्वभौमिक परिभाषा उपलब्ध नहीं है।
आर्सेनिक एक ऐसा मीठा जहर है जो कभी भी स्वतंत्र रूप से प्रकृति में नहीं प्राप्त होता है, बल्कि यह संयुक्तावस्था में विभिन्न तत्वों के साथ प्राप्त होता है। सामान्य रूप से सल्फर, ऑक्सीजन, सीसा, तांबा एवं लोहा के साथ मिलता है। चट्टानों के टूटने की क्रिया या चट्टानों से जल रिसने पर आर्सेनिक भूमिगत जल के साथ मिश्रित हो जाता है। भूमिगत जल में आर्सेनिक का प्रवेश प्राकृतिक एवं मानवीय दोनों कारणों से होता है। व्यापक स्तर पर कीटनाशी एवं खरपतवारनाशी रसायनों का कृषि कार्य में उपयोग ही भूमिगत जल में आर्सेनिक की मात्रा को बढ़ाने के लिए उत्तरदायी होता है। वर्तमान समय में व्यापक स्तर पर कीड़ों से फलों को बचाने हेतु पेड़ों पर छिड़काव करने हेतु कापर साइनाइट का प्रयोग कीटनाशी की तरह एवं आर्सेनिक ऑक्साइड का प्रयोग खरपतवार नाशक के रूप में किया जा रहा है। यही नहीं बरसात के पानी से मिलकर आर्सेनिक यौगिक पृथ्वी की सतह पर आता हैं एवं रिसकर सतह के नीचे पहुंचकर भूमिगत जल में मिल जाता है। चूंकि आर्सेनिक भूमिगत जल में अविलेय है, किन्तु इतना सूक्ष्म होता है कि यह जल के साथ लटका रहता है। वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि पावर प्लांट में कोयला के जलने से भी आर्सेनिक उत्पन्न होता है जो नदियों द्वारा अपशिष्ट के रूप में बहाकर लाया जाता है। यही कारण है कि नदियों के आस-पास के क्षेत्रों में आर्सेनिक अधिक पाया जाता है। भू-वैज्ञानिकों का तो यह भी मत है कि आर्सेनिक गंगा नदी के किनारे अधिक पाया जाता है।
यह पाया गया कि शरद ऋतु में उगाई जाने वाली धान से प्राप्त चावल में आर्सेनिक के अधिक विषैले तीन-संयोजी रूप पाए जाते हैं। दूसरी ओर चावल के भूसे में आर्सेनिक के पांच-संयोजी रूप मौजूद होते हैं। इसके अलावा धान की पारंपरिक और उच्च पैदावार दोनों ही किस्मों के साथ पारबॉइलिंग और मिलिंग जैसी प्रक्रियाओं में आर्सेनिक की मात्रा बढ़ती है। जैविक खाद के माध्यम से मृदा संशोधन करने पर आर्सेनिक की मात्रा में कमी आती है। भूजल दूषित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों में पानी और आहार दोनों के माध्यम से आर्सेनिक सेवन और पेशाब में आर्सेनिक के उत्सर्जन को लेकर किए गए कई अध्ययन बताते हैं कि आर्सेनिक प्रदूषित इलाकों में सिर्फ पेयजल में आर्सेनिक की समस्या को दूर करने से आर्सेनिक सम्बंधी खतरे कम नहीं होंगे। चावल का नियमित सेवन शरीर में आर्सेनिक पहुंचने का एक प्रमुख ज़रिया है जिसका समाधान ढूंढने की ज़रूरत है। आर्सेनिक विषाक्तता के उपचार के लिए समग्र व समेकित तरीके की आवश्यकता है जिसमें खाद्य शृंखला में आर्सेनिक की उपस्थिति और पेयजल में आर्सेनिक सुरक्षित मात्रा की सीमा में रखने के मिले-जुले प्रयास करने होंगे।
लोगों को पेयजल की गुणवत्ता जांचने के मामले में जागरूक करना और परीक्षण करने के लिए प्रेरित करना महत्वपूर्ण है। गंभीर त्वचा-घाव से प्रभावित लोगों के स्वास्थ्य खतरे और परेशानी को ध्यान में रखते हुए आर्सेनिक मुक्त पेयजल की आपूर्ति के साथ राज्य अस्पतालों में इन रोगियों के निशुल्क उपचार की व्यवस्था बीमारी को कम करने में मदद कर सकती है। यह ध्यान रखने की ज़रूरत है कि आर्सेनिक से प्रभावित लोग बहुत गरीब हैं व दूरस्थ ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। आर्सेनिक प्रदूषित भूमिगत जल के अत्यधिक उपयोग के कारण मिट्टी और खाद्य शृंखला में काफी आर्सेनिक प्रदूषण हुआ है। आर्सेनिक प्रदूषित जल का उपयोग कम करने और इसके उपायों के बारे में किसानों को जागरूक बनाने में काफी समय लगेगा।
विविध संस्थाओं और विविध विषयों को जोड़कर कार्यक्रमों को मज़बूत करना होगा, तभी आर्सेनिक-दूषित संसाधनों पर निर्भरता को कम करने के लिए दीर्घकालिक तकनीकी विकल्प विकसित हो सकेंगे। सरकार व गैर सरकारी संगठनों को पेयजल और कृषि उत्पादों के लिये आर्सेनिक मुक्त जल सुनिश्चित करने के लिये अधिक व्यापक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को इस विषय पर अनुसंधान को सुगम बनाने की दिशा में काम करना चाहिए जो फसलों में आर्सेनिक के संचय की जाँच कर सके और प्रभावित क्षेत्रों की कृषि चिंताओं को दूर कर सके।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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