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    बिहार में बाढ़ की विभीषिका एवं सार्थक समाधान

  • July 30, 2020

    – याज्ञवल्क्य शुक्ल

    जहां एक ओर दुनिया वैश्विक महामारी कोविड-19 के भयंकर प्रकोप का सामना कर रही है वहीं बिहार में बाढ़ के विकराल स्वरूप ने दोहरी आपदा झेलने को विवश किया है। राज्य में इस वर्ष अबतक लगभग 12 जिलों के 10 लाख लोग बाढ़ की चपेट में आ चुके हैं और अभी भी स्थिति भयावह बनी हुई है। लोग जान बचाने के लिए घर और साजो-सामान छोड़कर नजदीक के ऊंचे स्थानों पर शरण ले रहे हैं। गंगा, कोसी, बागमती, बूढ़ी गंडक, कमला बलान, महानंदा, घाघरा नदियाँ खतरे के निशान को पार कर भीषण तबाही मचा रही हैं। बाढ़ की इस भीषण तबाही लगभग प्रतिवर्ष दिखाई देती है। मॉनसून के लगभग तीन महीने जून, जुलाई और अगस्त बिहार के लिए पिछले कई वर्षों से अभिशाप बने हुए हैं। 94,160 वर्ग किमी के क्षेत्र का लगभग 73 प्रतिशत भू-भाग अर्थात 68, 800 वर्ग किमी का क्षेत्र और लगभग 28 जिले बाढ़ के लिए अतिसंवेदनशील माने जाते हैं। इसमें उतार-चढ़ाव होता रहता है। वर्ष 1987 में 30 जिले, 2000 में 33 जिले और 2002 में 25 जिले बाढ़ से प्रभावित रहे थे। इसका अर्थ यह है कि सौभाग्यशाली जिले ही बच पाते हैं और यह उनके लिए दुर्भाग्यपूर्ण है जहाँ नदियाँ तटबंध को तोड़कर रौद्र रूप धारण कर लेती हैं। पर क्या सचमुच यह सब भाग्य के भरोसे ही है और प्रकृति की प्रतिवर्ष की इस विनाश लीला पर यूं ही मौन रह कुछ भी नहीं किया जा सकता?

    बिहार में बाढ़ के कारणों पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि ये विभीषिका केवल प्राकृतिक आपदा न होकर मानवजनित भी है। कुछ कारण जैसे कि नेपाल से नदियों का पानी एकाएक छोड़ा जाना, बाढ़ के बढ़ते क्षेत्रों की तुलना में उपयुक्त तटबन्धों की कमी पेड़ों की अन्धाधुन्ध कटाई, मैदानी भाग होने के कारण भूभाग का समतल होना, विवेकपूर्ण प्रबंधन की कमी आदि महत्वपूर्ण हैं। एक और कारण है जो नदियों की जलधारा में बदलाव और तटबन्धों से होकर मैदानी इलाकों में बाढ़ की व्याख्या कर सकता है, वो है-नदी की जलधारा में रुकावट। नदी की जलधारा का मुक्त प्रवहन भी बाढ़ की विभीषिका रोकने में सहायक हो सकता है। ए.बी. पंड्या के नेतृत्व वाली 11 सदस्यीय समिति में से एक एनआईटी पटना के डॉ. रमाकांत झा के अध्ययन में गंगा नदी में गाद के जमाव पर बताया कि यह एक बड़ी समस्या है। गाद आकार में बालू और मिट्टी के बीच के महीन कण हैं जो हिमालय से निकलनेवाली नदियों के साथ तलछट में बहकर आते हैं। कभी ये मिट्टी के रूप में, मटमैले कीचड़ के रूप में तो कभी अत्यधिक मात्रा में चट्टान के तैरते महीन कणों के रूप में भी होते हैं। ज्यादातर गाद का जमाव गंगा नदी की सहायक नदियों की संगम पर होता है। घाघरा, सोन, गंडक, कोसी और बूढ़ी गंडक के अलावा कई छोटी नदियों के मिलन स्थल पर यह जमाव अधिक है।

    चित्तले समिति ने बताया कि इसके बहुत सारे स्थानीय कारण हो सकते हैं जैसे नदी नियंत्रण के लिए बनने वाले जलाशय, पुल, बराज आदि तथा तटीय क्षेत्र पर निर्माण करने से या आसपास के क्षेत्रों के सघन कृषि कार्यों से भी गाद के निर्बाध रूप से निकल जाने में बाधा उतपन्न होती है। बहुत दिनों से जमा होते-होते जब एकबार यह ज्यादा हो जाने पर निकलता है तो नदी की अविरल धारा में रुकावट बन जाता है। ऐसे में तटबन्धों से नदियों का उफान बाढ़ का स्वरूप ले लेता है। अगर थोड़ा-थोड़ा ये सतत निकलते रहे तो नदियों में रुकावट नहीं बन पाएंगी। इसलिए बराज, पुल या अन्य निर्माण करने के साथ साथ ऐसी तकनीक को प्रयोग में अवश्य लाना चाहिए जो गाद को थोड़े थोड़े निकलते रहने दे। यदि नदी के अविरल प्रवाह में किसी तरह की बाधा न आने दें तो बहुत हद तक नदियों की भयावहता को कम किया जा सकता है।

    प्लेट विवर्तनीकी सिद्धान्त के अनुसार स्थलमण्डल परिवर्तनीय है और ऊपरी परत के नीचे दुर्बलतामण्डल में विवर्तनिकी या टेक्टोनिक प्लेटें क्षैतिज रूप से चलायमान हैं। प्रत्येक विवर्तनिक प्लेट ठोस चट्टान का विशाल व अनियमित आकार का खंड है, जो महाद्वीपीय अैर महासागरीय स्थलमंडलों से मिलकर बना हुआ है। बिहार हिमालय की तराई के क्षेत्रों जैसे नेपाल के साथ एक तरह के विवर्तनिकी या टेक्टोनिक प्लेट के अंतर्गत आता है। बिहार टेक्टोनिक प्लेट की सीमा पर पड़ता है और चारों दिशाओं में गंगा की सतहों की ओर बढ़ते हुए छह विभिन्न उपसतहों में समा जाता है। इस तरह टेक्टोनिक प्लेट के सीमावर्ती भाग में स्थित होना भी बाढ़, भूकम्प, ज्वालामुखी आदि आपदाओं के लिए खतरे का सूचक है। इन भौगोलिक तथ्यों को ध्यान में रखे बगैर नदी पर या इसके आसपास सघन कृषि, शहरीकरण नाद प्रबंधन, मृदा या जल संरक्षण का कार्य भी बाढ़ के मार्ग बदल रहा है और कई ऐसे क्षेत्र बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं जो पहले बाढ़ से अछूते थे। इसके निदानार्थ न जाने अभी तक कितनी सारी समितियाँ बनीं और कई आवश्यक सुझाव दिए गए किंतु जब भी निर्माण कार्य होता है, उसमें इन भौगोलिक तथ्यों या दिए गए सुझावों को कभी महत्व नहीं दिया जाता तभी तो समस्याएं विकराल होती चली गयी हैं।

    सीमेंटेड तटबन्धों को बनाने के बाद भी कमजोर पड़े तटबन्धों से पानी की बहाव में दबाव और बढ़ जाता है। इसलिए ऐसे उपाय कारगर ना होकर बौने पड़ते जा रहे हैं। इससे अच्छा होता यदि भारत रत्न स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी की स्वर्ण-चतुर्भुज योजना की तरह ‘नदीमाला’ की योजना पर गौर किया जाता। सभी नदियों को जोड़ने से अतिवृष्टि से कहीं बाढ़ और अनावृष्टि से कहीं सूखे को संतुलित किया जा सकता है। उत्तरी बिहार में जहां प्रतिवर्ष बाढ़ से लोग परेशान होते हैं तो दक्षिण और पश्चिम बिहार के किसान प्रायः सूखे की समस्या से जूझते हैं। ‘नदीमाला’ के सपने को यदि पूरे भौगोलिक अध्ययनों के साथ साकार किया जाए तो पूरे प्रदेश के किसानों को अपनी फसलों को बाढ़ या सूखा दोनों ही प्रकार की समस्यों से निजात दिलाई जा सकती है।

    इस तरह बाढ़ का समुचित व सार्थक समाधान संभव है। बिहार के किसान जो मुख्य फसल धान की खेती की तैयारी कर रहे थे, उन्हें इस नुकसान से निराशा हाथ लगी है। बाढ़ ने इस वर्ष डेढ़ करोड़ की सब्जी की फसल पूरी तरह बर्बाद कर दी है। बाढ़ से प्रभावित अधिकांश क्षेत्र कृषि योग्य भूमि के अंतर्गत आते हैं। इस कारण बिहार के लगभग 70% कृषि योग्य भूमि के किसान वर्ष भर में केवल एक फसल का ही लाभ ले पा रहे हैं। जिससे प्रत्येक किसान के साथ साथ बिहार राज्य और देश के कृषि उद्योग के लिए बहुत बड़ा अपूरणीय आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ रहा है। स्पष्ट है कि बिहार की जमीन काफी उपजाऊ होने के बावजूद बाढ़ के कारण यहां के किसान बदहाली व तंगहाली के शिकार होते जा रहे हैं एवं जीविकोपार्जन हेतु शहरों की ओर पलायन को विवश हो रहे हैं। इन आवश्यक उपायों को तत्काल प्रभाव से लागू करने की नितांत आवश्यकता है जिससे इन समस्याओं का विवेकपूर्ण समाधान किया जा सके।

    (लेखक अभाविप झारखंड प्रदेश संगठन मंत्री हैं।)

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