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बाइडन से नाउम्मीद होना ठीक नहीं

November 10, 2020

– डॉ. प्रभात ओझा

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप एक-दूसरे के अच्छे दोस्त के तौर पर पहचान रखते हैं। अब जो बाइडन का अमेरिकी राष्ट्रपति निर्वाचित होना भारत और अमेरिका के बीच रिश्तों में क्या बदलाव लायेगा, इसे लेकर तरह- तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। हालांकि यह चिंता आमतौर पर बेमानी लगती है।

दो बड़े नेताओं की दोस्ती के साथ यह भी बड़ी सच्चाई है कि विदेश नीति के मामले में निरंतरता देखी जाती है, यह रोज बदलने वाला मसला नहीं है। चार साल पहले भी जब ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति बने तो इस तरह की चिंता जताई गई थी। देखते-देखते अमेरिकी राष्ट्रपति दुनिया में भारत की बड़ी भूमिका के पक्षधर बन गए। उससे पहले ओबामा के समय भी यही हुआ था। पीछे मुड़कर देखें तो राष्ट्रपति क्लिंटन के समय भारत ने परमाणु विस्फोट कर अमेरिका को नाराज कर दिया था। बाद में अमेरिका की नाराजगी दूर हुई और क्लिंटन भारत भी आए। फिर तो बुश के दौर में न्यूक्लियर वाले विवादित मसले पर भी दोनों देशों के बीच समझौता हुआ। आगे चलकर राष्ट्रपति ओबामा दो बार भारत आए और ट्रंप ने भी यही किया।

फिर भी कुछ मसले हैं, जिनपर अमेरिका के नए निर्वाचित राष्ट्रपति और उनकी पार्टी के नेता हमारे देश के अनुकूल नहीं लगते। भारत अमेरिका के बीच जिन मसलों को देखना होगा, उनमें एनआरसी और जम्मू-कश्मीर से धारा 370 की समाप्ति पर बाइडन का रुख भी है। इसके साथ पाकिस्तान के सवाल पर अमेरिकी रुख, एच1बी वीजा, आतंकवाद और रक्षा भागीदारी जैसे सवाल भी चर्चा के विषय हैं।

नए राष्ट्रपति बाइडन के मामले में चीन भी एक अहम मसला है। लद्दाख के साथ लगती हमारी सीमा पर चीन के साथ तनाव के सवाल पर ट्रंप प्रशासन ने खुलकर भारत का समर्थन किया था। इसके विपरीत, बाइडन अपने बयानों में चीन के प्रति नरम रहे हैं। भारत-चीन के बीच तनाव जारी है। इस मसले पर ट्रंप और बाइडन में फर्क को हमारे कूटनीतिक और राजनयिक विशेषज्ञ गौर करते रहे हैं। बाइडन का चीन के प्रति यह रुख उनकी डेमोक्रेटिक पार्टी के कारण भी है। इस पार्टी में चीन बड़ा मसला है और वहां वामपंथी ख्याल वाले इन दिनों मुखर हैं। स्वाभाविक तौर पर ये वामपंथी चीन के साथ हुआ करते हैं।

वैसे तो अमेरिकी नीति भारत के आतंरिक मामलों से दूर ही रही है, पर पिछले दिनों सीएए, धारा 370 की समाप्ति जैसे सवाल पर कमला हैरिस के साथ इन वामपंथी ख्याल सदस्यों ने आपत्ति जताई थी। याद करें कि इसी मुद्दे पर सख्ती दिखाते हुए हमारे विदेश मंत्री एस जयशंकर ने प्रमिला जयपाल जैसे डेमोक्रेट सदस्य से मिलने तक से इनकार कर दिया था। प्रमिला फिर से अमेरिकी कांग्रेस की सदस्य चुन ली गई हैं। वैसे भारत इस बात में गुंजाइश निकाल सकता है कि नए राष्ट्रपति बाइडन अपनी पार्टी की दो धुरियों में मध्यमार्गी समझे जाते हैं।

डेमोक्रेटिक पार्टी के अंदर की उथल-पुथल ही कश्मीर में धारा 370 की समाप्ति पर जो बाइडन के रुख का कारण है। डेमोक्रेटिक सदस्य मानवाधिकार की बातें किया करते हैं और उन्हें लगता है कि कश्मीर में इन कथित अधिकारों पर फर्क पड़ा है। बाइडन ने कश्मीरियों के इन कथित अधिकारों को बहाल करने की जरूरत के साथ नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए और नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन (एनआरसी) पर भी प्रतिकूल रुख अपनाया था। इसके पहले नवंबर 2010 में ओबामा ने अपने भारत दौरे के समय कश्मीर विवाद में अमेरिका की दखल से इनकार किया था। बाद में ट्रंप भी इसपर कायम रहे।

कश्मीर की बात आने पर यह भी खासतौर से गौर करने लायक है कि पिछले 14 साल में कोई भी अमेरिकी राष्‍ट्रपति पाकिस्‍तान नहीं गया। इसके विपरीत बराक ओबामा और डोनाल्ड ट्रंप ने भारत के दौरे किए लेकिन कभी पाकिस्तान नहीं गये। फिर आतंकवाद और अफगानिस्तान का मसला भी अमेरिका और पाकिस्तान के बीच उलझाव का कारण रहा है। पाकिस्तान में ही ओसामा बिन लादेन को मार गिराए जाने के बाद दोनों देशों के बीच अविश्वास और अधिक बढ़ गया। ट्रंप ने पाकिस्तान को दी जाने वाली बड़ी मदद भी रोक दी। अब पाकिस्तान 2008 में आसिफ अली ज़रदारी के राष्ट्रपति रहते जो बाइडन को पाकिस्तान के दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान ‘हिलाल-ए-पाकिस्तान’ दिए जाने को याद कर खुश हो रहा है।

यहां याद करना होगा कि एक सम्मान दिए जाने भर से कोई बड़ा नेता नरम नहीं हो जाता। आखिर लादेन को मारे जाते वक्त भी तो बाइडन अमेरिका के उप राष्ट्रपति थे। अफगानिस्तान के मसले पर बाइडन पाकिस्तान के प्रति कुछ नरम हो सकते हैं, पर आतंकवाद के मसले पर अमेरिका की सख्ती पहले की ही तरह बनी रहेगी। यह भारत के लिए सर्वथा अनुकूल ही होगा।

आतंकवाद और सुरक्षा काफी कुछ एक-दूसरे पर निर्भर हैं। अमेरिका कोई ऐसा मौका गंवाना नहीं चाहेगा, जिसमें वह भारत को रक्षा उपकरण दे सके। रही बात व्यापार, एच1बी वीजा और इमीग्रेशन के मसलों का। बाइडन दशकों तक सीनेटर और आठ साल तक उप-राष्ट्रपति रहते भारत के साथ व्यापार बढ़ाने के पक्षधर रहे हैं। वे भारत के साथ व्यापार 500 अरब डॉलर तक ले जाना चाहते हैं। यह बहुत आसान नहीं है, पर इस ओर तेजी से बढ़ने की कोशिश तो हो ही सकती है। ट्रंप के भारत दौरे पर एक बड़े समझौते की उम्मीद थी लेकिन ऐसा नहीं हो सका। अब बाइडन के कदम का इंतजार रहेगा।

व्यापार के साथ अमेरिका जाकर नौकरी करने करने वालों के मुद्दे पर बाइडन के कदम का इंतजार रहेग। एच1बी वीजा और इमीग्रेशन पर ट्रंप सख्त रहे हैं। उन्होंने दूसरे देशों से अमेरिका में नौकरी करने आनेवालों की संख्या कम करने की कोशिश की थी। परिणामस्वरूप हज़ारों लोगों की अमेरिका में नौकरी और वर्क-स्टडी की गुंजाइश खत्म हो गयी। माना जाता है कि बाइडन इस मामले में उदार रहेंगे। उम्मीद है कि यह विवाद लम्बा नहीं चलेगा। कुल मिलाकर उम्मीद है कि करीब 77 साल की वय और लंबे राजनीतिक सफर वाले बाइडन भी आमतौर पर भारत के अनुकूल ही रहेंगे।

(लेखक हिन्दुस्थान समाचार समूह की पत्रिका `यथावत’ के समन्वय सम्पादक हैं।)

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