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    भोपाल गैस त्रासदी: जहरीले कचरे का निस्तारण बड़ी चुनौती

  • December 02, 2020

    भयावह त्रासदी (03 दिसम्बर) के 36 वर्ष

    – योगेश कुमार गोयल

    भोपाल शहर में वर्ष 1984 में हुई भयानक गैस त्रासदी, पूरी दुनिया के औद्योगिक इतिहास की सबसे बड़ी और हृदयविदारक औद्योगिक दुर्घटना मानी जाती है। 2-3 दिसम्बर 1984 को आधी रात के बाद यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड (यूसीआईएल) से निकली ‘मिथाइल आइसोसाइनाइट’ नामक जहरीली गैस ने हजारों लोगों की जान ले ली। लाखों की संख्या में लोग प्रभावित हुए। दुर्घटना के चंद घंटे के भीतर कई हजार लोग मारे गए। मौतों का सिलसिला उस रात से शुरू होकर लंबे अरसे तक अनवरत चलता रहा। इस हादसे के 36 साल बीत जाने के बाद भी इसका असर पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। यह इस कदर विचलित कर देने वाला हादसा था कि इसमें मारे गए लोगों को सामूहिक रूप से दफनाया या अंतिम संस्कार किया गया। करीब दो हजार जानवरों के शवों को विसर्जित करना पड़ा। आसपास के सभी तरह के पेड़ बंजर हो गए थे।

    एक शोध में यह तथ्य सामने आया है कि भोपाल गैस पीड़ितों की बस्ती में रहने वालों को दूसरे क्षेत्रों में रहने वालों की तुलना में किडनी, गले तथा फेफड़ों का कैंसर 10 गुना ज्यादा है। इस बस्ती में टीबी तथा पक्षाघात के मरीजों की संख्या भी बहुत ज्यादा है। इस गैस त्रासदी में पांच लाख से भी ज्यादा लोग प्रभावित हुए थे, जिनमें से बड़ी संख्या में लोगों की मौत मौके पर ही हो गई थी। जो जिंदा बचे, वे विभिन्न गंभीर बीमारियों के शिकार होकर जीवित रहते हुए भी तिल-तिलकर मरने को विवश हुए। इनमें से बहुत से लोग कैंसर सहित अन्य गंभीर बीमारियों से जूझ रहे हैं और सालों बाद भी इसके दुष्प्रभाव खत्म नहीं हो रहे।

    गैस त्रासदी के 36 साल बीत जाने के बाद भी इस त्रासदी से पीड़ित होने वालों के जख्म हरे हैं। विषैली गैस के सम्पर्क में आने वाले लोगों के परिवारों में इतने वर्षों बाद भी शारीरिक और मानसिक रूप से अक्षम बच्चे जन्म ले रहे हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक गैस त्रासदी से 3787 की मौत हुई और गैस से करीब 558125 लोग प्रभावित हुए थे। हालांकि कई एनजीओ का दावा रहा है कि मौत का यह आंकड़ा 10 से 15 हजार के बीच था तथा बहुत सारे लोग अनेक तरह की शारीरिक अपंगता से लेकर अंधेपन के भी शिकार हुए। विभिन्न अनुमानों के मुताबिक करीब 8 हजार लोगों की मौत तो दो सप्ताह के भीतर हो गई थी जबकि करीब 8 हजार अन्य लोग रिसी हुई गैस से फैली संबंधित बीमारियों के चलते मारे गए थे।

    बताया जाता है कि कारखाने के टैंक संख्या 610 में निर्धारित मात्रा से ज्यादा एमआईसी गैस भरी हुई थी और गैस का तापमान निर्धारित 4.5 डिग्री के स्थान पर 20 डिग्री था। पाइप की सफाई करने वाले हवा के वेंट ने काम करना बंद कर दिया था। इसके अलावा बिजली का बिल बचाने के लिए मिक को कूलिंग स्तर पर रखने के लिए बनाया गया फ्रीजिंग प्लांट भी बंद कर दिया गया था। 03 दिसम्बर 1984 को इस कार्बाइड फैक्टरी से करीब 40 टन गैस का जो रिसाव हुआ, उसका एक बड़ा कारण माना गया कि टैंक नंबर 610 में जहरीली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस के साथ पानी मिल जाने से रासायनिक प्रतिक्रिया होने के परिणामस्वरूप टैंक में दबाव बना और टैंक का अंदरूनी तापमान 200 डिग्री के पार पहुंच गया। इससे धमाके के साथ टैंक का सेफ्टी वाल्व उड़ गया और जहरीली गैस देखते ही देखते पूरे वायुमंडल में फैल गई। अचानक हुए जहरीली गैस के रिसाव से बने गैस के बादल हवा के झोंके के साथ वातावरण में फैल गए और इसकी चपेट में आनेवाले लोग मौत की नींद सोते गए।

    इस दुर्घटना के चार दिनों बाद 7 दिसम्बर 1984 को यूसीआईएल अध्य्क्ष एवं सीईओ वारेन एंडर्सन की गिरफ्तारी हुई थी किन्तु विडम्बना देखिये कि इतने भयानक हादसे के मुख्य आरोपी को गिरफ्तारी के महज छह घंटे बाद मात्र 2100 डॉलर के मामूली जुर्माने पर रिहा कर दिया गया था। उसके बाद वह अवसर का लाभ उठाते हुए भारत छोड़कर अपने देश अमेरिका भाग गया, जिसे भारत लाकर सजा देने की मांग निरन्तर उठती रही लेकिन भारत सरकार अमेरिका से उसका प्रत्यर्पण कराने में सफल नहीं हुई। अंततः 29 सितम्बर 2014 को वारेन एंडर्सन की मौत हो गई। इस हादसे पर वर्ष 2014 में ‘भोपाल: ए प्रेयर फॉर रेन’ नामक फिल्म भी बन चुकी है।

    भले ही गैस रिसाव के करीब आठ घंटे बाद भोपाल को जहरीली गैस के असर से मुक्त मान लिया गया था किन्तु हकीकत यह है कि इस गैस त्रासदी के 36 वर्षों बाद भी भोपाल उससे उबर नहीं पाया है। हादसे से पर्यावरण को ऐसी क्षति पहुंची, जिसकी भरपाई सरकारें आजतक नहीं कर पाई हैं। सरकारों का इस पूरे मामले में रुख संवेदनहीन ही रहा है। कई रिपोर्टों में इस क्षेत्र में भूजल प्रदूषण की पुष्टि होने के बाद भी सरकार द्वारा जमीन में दफन जहरीले कचरे के निष्पादन की कोई ठोस नीति नहीं बनाई गई है।

    दरअसल इस भयावह गैस त्रासदी के बाद हजारों टन खतरनाक अपशिष्ट भूमिगत दफनाया गया था और सरकारों ने भी स्वीकार किया है कि यह क्षेत्र दूषित है। विभिन्न रिपोर्टों में बताया जाता रहा कि यूनियन कार्बाइड संयंत्र के आसपास की 32 बस्तियों का भूजल प्रदूषित है और यह सरकारी संवेदनहीनता की पराकाष्ठा रही कि गैस पीड़ित वर्ष 2014 तक इसी प्रदूषित भूजल को पीते रहे। हालांकि वर्ष 2014 में इन क्षेत्रों में पानी की पाइपलाइन डाली गई लेकिन तबतक जहरीले रसायन लोगों के शरीर में गहराई तक घुल चुके थे। स्थिति यह है कि पानी की कमी होने पर लोग आज भी इस दूषित जल का उपयोग कर लेते हैं।

    हालांकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर यूनियन कार्बाइड कारखाने के 10 टन कचरे का निस्तारण इन्दौर के पास पीथमपुर में किया जा चुका है लेकिन पर्यावरण पर उसका क्या असर पड़ा, यह एक रहस्यमयी पहेली है। यहां जहरीली गैसों का खतरा अभी भी बरकरार है क्योंकि उस त्रासदी के 346 टन जहरीले कचरे का निस्तारण अब भी बड़ी चुनौती बना हुआ है, जो हादसे की वजह बने यूनियन कार्बाइड कारखाने में कवर्ड शेड में मौजूद है। इसके खतरे को देखते हुए यहां आम लोगों का प्रवेश वर्जित है। जहरीली गैस के कारखाने से निकले खतरनाक कचरे के निपटान के लिए सरकार कोई गंभीर प्रयास नहीं कर पाई और करीब 36 सालों से पड़ा यह कचरा कारखाने के आसपास की जमीन, जल और वातावरण को प्रदूषित कर रहा है। इस जहरीले कचरे का निस्तारण बड़ी चुनौती इसलिए है क्योंकि भारत के पास इसके निस्तारण की तकनीक और विशेषज्ञ मौजूद नहीं हैं।

    (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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