नई दिल्ली । आज 14 अप्रैल है, भारत के संविधान निर्माता,(Constitution Makers of India) समाज सुधारक और भारत रत्न (Bharat Ratna)डॉ. भीमराव आंबेडकर(Dr. Bhimrao Ambedkar) की जयंती। उनके जीवन के कई पहलू प्रेरणा से भरे हुए हैं, लेकिन एक किस्सा ऐसा है, जो न केवल उनकी पीड़ा को उजागर करता है, बल्कि उनके असाधारण आत्मबल और ज्ञान की लालसा को भी दिखाता है।
बचपन में जब डॉ. आंबेडकर स्कूल जाते थे, तो उन्हें कक्षा में बैठने के लिए चटाई तक नहीं दी जाती थी। बरसात के दिनों में कीचड़ और पानी में बैठकर पढ़ना उनकी नियति बन चुका था। जातिगत भेदभाव इतना गहरा था कि स्कूल में उच्च जाति के छात्र या शिक्षक उन्हें किताबें हाथ से नहीं देते थे। किताब देने के लिए लकड़ी की छड़ी का इस्तेमाल होता था—ताकि उनका ‘स्पर्श’ न हो। यह वाकया डॉ. आंबेडकर ने अपनी आत्मकथा “Waiting for a Visa” में लिखा है, यह दर्शाता है कि कैसे बचपन में उन्होंने छुआछूत और जाति भेदभाव झेला।
किताब छूने की इजाजत नहीं
जिस बच्चे को कभी किताब तक छूने की इजाज़त नहीं थी, उसी ने आगे चलकर एशिया की सबसे बड़ी निजी लाइब्रेरी खड़ी कर दी। मुंबई स्थित अपने निवास ‘राजगृह’ में उनके पास करीब 50000 किताबों का कलेक्शन था। ये किताबें उन्होंने दुनियाभर से मंगवाई थीं, जो अर्थशास्त्र, राजनीति, समाजशास्त्र, धर्म, कानून से लेकर साहित्य तक हर विषय पर थीं।
आठ साल की पढ़ाई 2 साल में पूरी
एक बार उन्होंने कहा था, “मेरी असली दौलत ये किताबें हैं।” उनकी ज्ञान-पिपासा का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पढ़ते वक्त उन्होंने 8 साल का सिलेबस सिर्फ 2 साल में पूरा कर लिया था।
जब खुद तांगा चलाकर पहुंचे आंबेडकर
यह घटना उस समय की है, जब डॉ. आंबेडकर किसी काम से शहर गए थे। स्टेशन से उतरने के बाद उन्हें जाने के लिए तांगा लेना था। लेकिन जैसे ही तांगेवालों को यह पता चला कि वह एक ‘अछूत’ माने जाने वाले समुदाय से हैं, सभी तांगेवाले मुकर गए। डॉ. आंबेडकर ने उनसे विनती की, पैसे ज़्यादा देने की बात भी कही, लेकिन जाति के नाम पर कोई तांगा उन्हें ले जाने को तैयार नहीं हुआ। आखिरकार, उन्होंने खुद ही तांगा हांकना शुरू कर दिया और अपने गंतव्य तक पहुंचे।
©2025 Agnibaan , All Rights Reserved