– गिरीश्वर मिश्र
भारत एक विविधवर्णी संकल्पना है जिसमें धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र , रूप-रंग , वेश-भूषा, नाक-नक्श और रीति-रिवाज आदि की दृष्टि से व्यापक विस्तार मिलता है। यह विविधता यहीं नहीं खत्म होती बल्कि पर्वत, घाटी, मैदान, पठार, समुद्र, नद-नदी, झील आदि की भू-रचनाओं, जल स्रोतों और फल-फूल, अन्न-जल सहित वनस्पति और प्रकृति के सभी नैसर्गिक पक्षों में भी प्रचुर मात्रा में अभिव्यक्त है। विविध कलाओं, स्थापत्य, साहित्य, दर्शन, विज्ञान यानी सर्जनात्मकता और विचारों की दुनिया में भी यहाँ तरह-तरह की उपलब्धियाँ उल्लेखनीय हैं। एक तरह से भारत विशिष्टताओं का अनोखा पुंज है जिसका विश्व में अन्यत्र कोई साम्य ढूढ़ना मुश्किल है। इसपर मुग्ध होकर विष्णु पुराण में तो यहाँ तक कह दिया गया कि ‘देवता भी इस भारत भूमि पर जन्म लेने को तरसते हैं।’
यह अद्भुत भारत सचमुच विवधता का एक महान उत्सव सरीखा है जहां आर्य, द्रविड़ और बाहर से कभी आक्रान्ता होकर आए शक, हूण, तुर्क, मुग़ल आदि अनेक संस्कृतियों संगम होता रहा है। कालक्रम में यह देश अंग्रेजों के अधीन उपनिवेश हो गया था और तीन सदियों की अंग्रेजी गुलामी से 1947 में स्वतंत्र हुआ। एक राष्ट्र राज्य ( नेशन स्टेट ) के रूप में देश ने सर्वानुमति से सन 1950 में संविधान स्वीकार किया जिसके अधीन देश के लिए शासन-प्रशासन की व्यवस्था की गई। वैधानिक रूप में ‘स्वराज’ के कार्यान्वयन का यह दस्तावेज देश को एक गणतंत्र (रिपब्लिक ) के रूप में स्थापित करता है। एक गणतंत्र के रूप में इसकी नियति इसपर निर्भर करती है कि हम इसकी समग्र रचना को किस तरह ग्रहण करते हैं और संचालित करते हैं। यह संविधान भारत को एक संघ के रूप में स्थापित करता है और इसके अंग राज्यों को भी विभिन्न प्रकार की स्वतंत्रताएं देता है। इसमें केंद्र और राज्य के रिश्ते को अनुशासित करने के लिए अनेक तरह की व्यवस्थाएं की गई हैं और उनमें आवश्यकतानुसार बदलाव भी किया गया है।
पिछले सात दशकों में संविधान को अंगीकार करने और उसपर अमल करने में अनेक प्रकार की कठिनाइयां आईं और जन-आकांक्षाओं के अनुरूप उसमें अबतक शताधिक संशोधन किए जा चुके हैं। राज्यों की संरचना भी बदली है और उनकी संख्या भी बढ़ी है। इस बीच देश की जनसंख्या बढ़ी है और उसकी जरूरतों में भी इजाफा हुआ है। पड़ोसी देशों की हलचलों से मिलने वाली सामरिक और अन्य चुनौतियों के बीच भी देश आगे बढ़ता रहा। देश की आतंरिक राजनैतिक-सामाजिक गतिविधियाँ लोकतंत्र को चुनौती देती रहीं पर सारी उठापटक के बावजूद देश की सार्वभौम सत्ता अक्षुण्ण बनी रही। लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं बहुलांश में सुरक्षित रही हैं परन्तु राजनैतिक और सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के साथ राज्य की नीतियों में परिवर्तन भी होता रहा है।
इन सब में स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय सरोकारों और दबावों की खासी भूमिका रही है। देश ने अनेक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण उपलब्धियां दर्ज की हैं। अंतरिक्ष विज्ञान, स्वास्थ्य, विद्युतीकरण, सूचना तथा संचार की प्रौद्योगिकी और सड़क निर्माण जैसी आधार रचना के क्षेत्र में हुई क्रांतिकारी प्रगति उल्लेखनीय है। देश की यात्रा में ‘विकास’ एक मूलमंत्र बना रहा है जिसमें उन्नति के लक्ष्यों की और कदम बढ़ाने की कोशिशें होती रहीं। देश तो केंद्र में रहा परन्तु वरीयताएँ और उनकी और चलने के रास्ते बदलते रहे। पंडित नेहरू की समाजवादी दृष्टि से डॉ. मनमोहन सिंह की उदार पूंजीवादी दृष्टि तक की यात्रा ने सामाजिक-आर्थिक जीवन के ताने-बाने को पुनर्परिभाषित किया। वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण ने आर्थिक प्रतियोगिता के अवसरों और तकनीकों को नया आकार दिया जिसके परिणामस्वरूप अतिसमृद्ध लोगों की संख्या में अच्छी खासी वृद्धि दर्ज हुई है। वर्त्तमान नेतृत्व इक्कीसवीं सदी में विकास के नए क्षितिज की तलाश करते हुए भारत को एक सशक्त राष्ट्र बनाने की दिशा में अग्रसर है।
भौतिक संरचना और सामाजिक संरचना के रूप में कोई भी देश एक गतिशील सत्ता होती है। अंग्रेजों ने भारत को एक गरीब, अशिक्षित और अंतर्विरोधों से ग्रस्त बनाकर यहाँ से विदाई ली थी। साथ ही शिक्षा और संस्कृति के अनेक सन्दर्भों में पाश्चात्य परम्परा की श्रेष्ठता और भारतीय दृष्टि की हीनता को भी स्थापित किया था। विशेष तरह की शिक्षा के अभ्यास के चलते भारत के शिक्षित वर्ग का मानसिक बदलाव भी हुआ। इन सबके फलस्वरूप स्वतंत्र हुआ भारत वैचारिक रूप से वह नहीं रहा जिसने स्वतंत्रता अर्जित की थी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने जिस भारत की कल्पना की थी वह संरचना, प्रक्रिया और लक्ष्य की दृष्टि से कुछ और था। उनके द्वारा प्रस्तावित मॉडल की उपयुक्तता को लेकर शुरू से ही देश के नेताओं के मन में संशय था और उसी अनुरूप देश ने दूसरी राह पकड़ ली। आज समृद्धि के साथ गरीबी भी बढ़ी है। कृषि क्षेत्र की सतत उपेक्षा ने स्थिति को विस्फोटक बना दिया। सामाजिक सहकार की रचना में भी कई छिद्र होते गए। बेरोजगारी बढ़ी है और शिक्षा की गुणवत्ता घटी है। आर्थिक उन्नति का आकर्षण इस तरह केन्द्रीय होता गया है कि शेष मानवीय मूल्य पिछड़ते जा रहे हैं। सीमित निजी स्वार्थ की सिद्धि के लिए संस्था और समाज के हित की अवहेलना आम बात होती जा रही है। राजनैतिक परिदृश्य में राष्ट्रीय चेतना और चिंता को महत्त्व न देकर छुद्र छोटे हितों को महत्त्व देने की प्रवृत्ति क्रमश: बलवती होती गई। फलत: समाजसेवा द्वारा राजनीति और राजनीति द्वारा समाजसेवा करने की भावना पिछड़ती जा रही है। वंशवाद को प्रश्रय मिलने से राजनीति की सामाजिक जड़ें कमजोर पड़ रही हैं और अवसरवादिता को प्रश्रय मिल रहा है। अब राजनीतिज्ञ समाज से जुड़ने में कम और शासन करने में अधिक रुचि ले रहे हैं।
राजनीति की वैचारिक और मूल्य की ओर अभिमुख ताकत की जगह सत्ता, धन बल और बाहुबल का समीकरण जिस तरह मौजूं होता गया है वह भयावह स्तर तक पहुँच रहा है। आज ज्यादातर राजनैतिक दलों में उम्मीदवारी के लिए मानदंड समाजसेवा, देशभक्ति या नीतिमत्ता से अधिक जाति-बिरादरी, कुनबा, आर्थिक सम्पन्नता और बाहुबल की उपलब्धता बनते जा रहे हैं। इस राह पर चलकर सत्ता तक पहुँच बनाने वाले राजनेता अपने कर्तव्यों के निर्वहन में यदि कोताही करते हैं तो वह एक स्वाभाविक परिणति ही कही जायगी। इसके साथ ही चुनाव में बढ़ता खर्च राजनीति तक पहुँच को दूर और कठिन बनाता जा रहा है। इसपर रोक लगाने के लिए कोई तरीका काम नहीं कर रहा। कोई राजनीतिक दल चुनावी खर्च को पारदर्शी बनाने को राजी नहीं है। राजनैतिक साक्षरता और परिपक्वता की दृष्टि से ये शुभ संकेत नहीं कहे जा सकते।
यह भी गौरतलब है कि राजनीति और सामाजिक जीवन में आमजनों की भागीदारी में अपेक्षाकृत वृद्धि नहीं हो रही है। इसका कारण भारतीय राजनीति की बदलती संस्कृति है। इससे क्षुब्ध होकर बहुत से लोग खुद को राजनीति से दूर रहने में ही भलाई देखते हैं। राजनेता जनता से दूर रहते हैं और उनतक जनता की पहुँच भी घटती जा रही है। ऐसे में मध्यस्थता करने वाले राजनीति के झूठे किरदारों की पौ बारह बनी रहती है। इसका सीधा-सीधा असर आम आदमी के नागरिक जीवन की गुणवत्ता पर पड़ता है। दुर्भाग्य से राजनेता अपने इर्द-गिर्द ऐसे लोगों का दायरा बढ़ाते जा रहे हैं और सत्ता के निकट मंडराने वाले इस तरह के झूठे सच्चे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। यह आज के भारत के जटिल सामाजिक यथार्थ की एक दुखती रग है। राजनीति के क्षेत्र में योग्यता का विचार न होने का खामियाजा प्रदेश और देश की जनता को भुगतना पड़ता है। राजनैतिक सुविधा ही प्राथमिक होती जा रही है और पदों और लाभों का बंटवारा दल गत औकात पर निर्भर करता है। सत्ता का दुरुपयोग सत्ता का स्वभाव होता जा रहा है।
देश का संविधान सामाजिक विविधता का आदर करता है। कानून की नजर में हर व्यक्ति एक सा है परन्तु वास्तविकता समानता, समता और बंधुत्व के भाव की स्थापना से अभी भी दूर है। न्याय की व्यवस्था जटिल, लम्बी और खर्चीली होती जा रही है। पुलिस मुहकमा जो सुरक्षा के लिए जिम्मेदार है दायित्वों के निर्वाह को लेकर प्रश्नों के घेरे में खड़ा रहने लगा है। सरकारी कामकाज बिना परिचय और सिफारिश के सर्वसाधारण के लिए असुविधाजनक होता जा रहा है। समाज में हाशिए पर स्थित समुदायों के लोगों को वे सुविधाएं और अवसर नहीं मिलते जो मुख्यधारा के लोगों को सहज ही उपलब्च होते हैं। हाशिए के समाज की चर्चा करते हुए अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जन जाति (एसटी) सबसे पहले ध्यान में आते हैं। आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से वंचित होने का इनका पुराना इतिहास है। विस्थापित मजदूर, दिव्यांग, ट्रांसजेंडर, गरीबी की रेखा के नीचे के अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़ी जाति (ओबीसी) के लोग, स्त्रियाँ, बच्चे, वृद्ध, मानसिक रूप से अस्वस्थ, अल्पसंख्यक (मुसलमान,सिख, ईसाई, जैन) भी हाशिए के समूह हैं। जेंडर आधारित घरेलू हिंसा, सेक्स से जुड़ी हिंसा और बलात्कार आदि की घटनाएं जिस तरह बढ़ी हैं वह चिंता का कारण है। हाशिए के लोगों की आशाएं और आकांक्षाएं प्राय: अनसुनी रह जाती हैं और यह क्रम पीढी दर पीढी चलता रहता है। इसके फलस्वरूप समाज में भी उनकी भागीदारी घटती जाती है। देश के विकास का तकाजा तो ऐसे सहज वातावरण का विकास है जो सबके लिए स्वस्थ, उत्पादक और सर्जनात्मक जीवन का अवसर उपलब्ध करा सके। वस्तुतः हाशिए के समूहों की स्थिति में परिवर्तन के लिए ठोस प्रयास करने होंगे। आवश्यक संसाधनों की व्यवस्था के साथ इनके दृष्टिकोण को भी बदलना भी जरूरी है। इन समुदायों को सकारात्मक दिशा देने और समर्थ बनाने के लिए सरकारी प्रयास के साथ सामाजिक चेतना का जागरण भी आवश्यक है।
भारत जैसा गणतंत्र इकतारा न होकर एक वृन्द वाद्य की व्यवस्था या आर्केस्ट्रा जैसा है जिसमें छोटे-बड़े अनेक वाद्य हैं जिनके अनुशासित संचालन से ही मधुर सुरों की सृष्टि हो सकती है। देशराग से ही उस कल्याणकारी मानस की सृष्टि संभव है जिसमें सारे लोक के सुख का प्रयास संभव हो सकेगा। कोलाहल पैदा करना तो सरल है क्योंकि उसके लिए किसी नियम अनुशासन की कोई परवाह नहीं होती पर संगीत से रस की सिद्धि के लिए निष्ठापूर्वक साधना की जरूरत पड़ती है। कोरोना की महामारी के लम्बे विकट काल में विश्व के इस विशालतम गणतंत्र ने सीमा पर टकराव के साथ-साथ स्वास्थ्य, चुनाव, शिक्षा और अर्थव्यवस्था के आतंरिक क्षेत्रों में चुनौतियों का डटकर सामना किया और अपनी राह खुद बनाई। यह उसकी आतंरिक शक्ति और जिजीविषा का प्रमाण है। स्वतंत्रता का छंद नैतिक शुचिता और जन गण मन के प्रति सात्विक समर्पण से ही निर्मित होता है। इसके लिए दृढ संकल्प के साथ कदम बढ़ाना होगा।
(लेखक, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)
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