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    21 अगस्त को भारत बंद का ऐलान, मायावती का मिला समर्थन, 35 साल बाद सड़क पर उतरेगी BSP

  • August 19, 2024

    नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (SC & ST) के आरक्षण को सब-कैटेगरी बनाने का अधिकार राज्यों को दे दिया है. साथ ही एससी-एसटी आरक्षण (SC-ST Reservation) में क्रीमीलेयर लागू करने का भी जोर दिया है. सर्वोच्च अदालत के इस फैसले को लेकर दलित संगठनों ने 21 अगस्त को भारत बंद का ऐलान कर रखा है, जिसे बसपा प्रमुख मायावती का भी समर्थन मिल गया है. बसपा के सभी कार्यकर्ता और नेता देशभर में भारत बंद आंदोलन में शामिल रहेंगे. बसपा के नेता और कार्यकर्ता करीब 35 साल के बाद सड़क पर उतरने जा रहे हैं, जिसे पार्टी की राजनीति का नया ट्रनिंग प्वाइंट माना जा रहा है.

    बसपा के नेशनल कोऑर्डिनेटर और मायावती के सियासी उत्तराधिकारी आकाश आनंद ने ऐलान किया है कि 21 अगस्त के भारत बंद में बसपा के झंडे नजर आएगे. उन्होंने कहा कि आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ एससी/एसटी समाज में काफी गुस्सा है. अदालत के फैसले के विरोध में हमारे समाज ने 21 अगस्त को भारत बंद का आह्वान किया है. हमारा समाज शांतिप्रिय समाज है. हम सबका सहयोग करते हैं. सबके सुख-दुख में हमारा समाज शामिल होता है, लेकिन आज हमारी आजादी पर हमला किया जा रहा है. 21 अगस्त को इसका शांतिपूर्ण तरीके से करारा जवाब देना है.

    आकाश आनंद ने कहा कि बसपा के कार्यकर्ता सड़क पर उतरकर सुप्रीम कोर्ट के एससी-एसटी आरक्षण के वर्गीकरण के फैसले का विरोध करेंगे. हमारी मांग है कि एससी-एसटी आरक्षण को संविधान की 9वीं सूची में डाली जाए. बसपा के कार्यकर्ता और नेता देशभर के अलग-अलग स्थानों पर भारत बंद में शिरकत करेंगे और अपनी-अपनी तहसीलों में एसडीएम को ज्ञापन देंगे, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले से आरक्षण पर प्रश्न चिन्ह लग गया है. उसके बाद से ही हमारी नेता मायावती एससी/एसटी के आरक्षण के वर्गीकरण के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है. 21 अगस्त को समाज के द्वारा हो रहे भारत बंद आंदोलन में हम सब साथ हैं और पार्टी के सभी कार्यकर्ता अनुशासन में रहकर राष्ट्रपति के नाम ज्ञापन देंगे.


    आकाश आनंद की घोषणा और बीएसपी के समर्थन ने सियासी तापमान बढ़ा दिया है. पार्टी एससी-एसटी आरक्षण के कोटा में कोटा बनाने का फैसले को सियासी मुद्दा बनाने में जुट गई हैं. आरक्षण के मुद्दे को उठाकर बसपा प्रदेश भर में संगठन को मजबूत करने की तैयारी में जुटी है. बसपा इस बहाने अपने कार्यकर्ताओं में नए तरीके से उर्जा भरने और खोए हुए जनाधार को वापस पाने की कोशिश कर रही है. बसपा की रणनीति अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग के वोटरों के बीच आरक्षण के मुद्दे को प्रभावित तरीके से स्थापित करने की है. एससी-एसटी आरक्षण के फैसले से दलित समाज को होने वाले सियासी नुकसान को बताने से ज्यादा आरक्षण खत्म किए जाने की साजिश करार देने की रणनीति है.

    बसपा के राजनीति करने का तरीका देश की दूसरी सियासी पार्टियों से बिल्कुल अलग है. बसपा के संस्थापक कांशीराम ने बसपा को एक कैडरबेस और पार्टी में काम करने का मिशनरी मैकेनिजम बनाया है, उसी तरीके से काम कर रही है. बसपा न तो मीडिया के साथ सरोकार रखती है और न ही सड़क पर उतरकर विरोध प्रदर्शन करती है. बसपा बहुत ही खामोशी के साथ अपने कैडर के बीच काम करती है, जिसके जरिए दलित और अतिपिछड़ों के बीच पैठ बनाई थी. इसके बदौलत बसपा ने सत्ता की बुलंदी को छुआ. मायावती चार बार यूपी की मुख्यमंत्री बनी. देश के अलग-अलग राज्यों में बसपा के विधायक और सांसद चुने जाते रहे, लेकिन वक्त के साथ धीरे-धीरे बसपा का ग्राफ कमजोर पड़ा.

    कांशीराम से लेकर मायावती तक सड़क पर उतरकर विरोध प्रदर्शन के बजाय जातीय समीकरण और अपने कैडर के सहारे राजनीति करते रहे. बसपा कभी दलित-ब्राह्मण गठजोड़ तो कभी दलित-मुस्लिम समीकरण के सहारे अपनी नैया पार करने की कोशिश करती रही. मायावती को लगता रहा कि सड़क पर उतरकर संघर्ष करने और लोगों के बीच जाने के बजाय जातीय समीकरण बना लेंगे और चुनाव जीत लेंगे, लेकिन बदले दौर की सियासत में मायावती का तिलिस्म बुरी तरह से टूट गया. आंदोलन से दूरी बनाए जाने का खामियाजा बसपा को भुगतना पड़ा और दलित वोटों को छिटकने के चलते पार्टी सब कुछ गंवा बैठी है. ऐसे में मायावती ने फिर से अपने खोए हुए राजनीतिक जनाधार को वापस पाने की है.

    एससी-एसटी आरक्षण के बहाने बसपा करीब 35 साल के बाद सड़क पर उतरने जा रही है. 1989 में मंडल कमीशन को लागू करने की मांग को लेकर कांशीराम के नेतृत्व में बसपा के लोगों ने दिल्ली के बोटक्लब पर बड़ा आंदोलन किया था. इसके बाद बसपा कार्यकर्ताओं ने कोई बड़ा आंदोलन नहीं किया, लेकिन 1996 में एक अखबार में छपी खबर के विरोध में लखनऊ में पार्टी कार्यकर्ताओं ने प्रदर्शन किया था. इसके बाद 2017 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले बीजेपी नेता दयाशंकर सिंह के द्वारा मायावती पर की गई विवादित टिप्पणी को लेकर पार्टी नेता सड़क पर उतरे थे. इसके अलावा बसपा का कोई विरोध प्रदर्शन पार्टी के इतिहास में नहीं मिला है.

    बसपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि उनकी पार्टी बीजेपी और सपा जैसे हिंसक संघर्ष का रास्ता इख्तियार नहीं कर सकती. इसीलिए हम सड़क पर उतरकर विरोध प्रदर्शन के बजाय कैडर के बीच में काम करते हैं. लेकिन अब जिस तरह से अदालत के जरिए आरक्षण को समाप्त करने की साजिश की जा रही है, उस पर बीजेपी से लेकर कांग्रेस तक खामोश हैं तो बसपा ने सड़क पर उतरकर दलित और आदिवासी समाज से जुड़े मुद्दों पर राजनीतिक दलों को बेनकाब करने की तैयारी की है.

    मायावती अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सियासी धार देकर जाटव समुदाय के विश्वास को बनाए रखते हुए पासी, धोबी और खटिक समाज को एकजुट करने की कोशिश में जुट गई हैं, इसे बड़ा सियासी दांव माना जा रहा है. एक बार फिर बसपा प्रमुख बहुजन समाज की तरफ रुख करती दिख रही हैं. इसके अलावा आरक्षण का मुद्दा एक बड़ा मुद्दा बनाने के लिए जिस तरह से भारत बंद का समर्थन किया है, उसके सियासी मायने काफी अहम है. साल 2018 में एससी-एसटी एक्ट के खिलाफ भारत बंद में बसपा ने शिरकत नहीं की थी. अब जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद से बसपा ने मोर्चा खोल रखा है, उसके पीछे पार्टी की सियासी मजबूरी है.

    बसपा की राजनीतिक जमीन लगातार सिकुड़ती जा रही है. उत्तर प्रदेश में भले ही दलित मतदात 21 फीसदी है और बसपा को 2019 में मिला वोट शेयर 19.43 प्रतिशत से गिरकर 9.39 प्रतिशत पर पहुंच गया. यह दिखाता है कि नॉन जाटव वोटर तो पहले ही उससे दूर हो गए थे, 2024 के लोकसभा चुनाव से जाटव मतदाता भी छिटक गए हैं. जाटव जाति के मतदाताओं का 60 फीसदी हिस्सा अभी भी बसपा के साथ रहा, लेकिन उनके 30 फीसदी वोट सपा-कांग्रेस के साथ चले गए और 10 फीसदी बीजेपी के साथ. मायावती के उत्तर प्रदेश की सत्ता से बाहर होने के बाद से पार्टी का प्रदर्शन कभी भी बेहतर नहीं हो पाया है.

    यूपी में घटते जनाधार और दलित वोटबैंक पर जंग के साथ ही बसपा के लिए चुनौती बढ़ गई है. मायावती सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है. ऐसे में मायावती ने आरक्षण को बड़ा मुद्दा बनाने की रूपरेखा बनाई है. कोटे के अंदर कोटा यानी उप वर्गीकरण के फैसले को लेकर जमीनी स्तर पर सियासी माहौल बनाने की रणनीति है. इस तरह बसपा की चिंता अपने बिखरते वोट बैंक को बचाने की है. इसीलिए अब आंदोलन की राह पर मायावती लौटी हैं और भारत बंद का समर्थन करके अपनी सियासी मंशा भी साफ कर दी है.

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