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    बैंक गरीबों की भी सुनें

  • October 04, 2020

    – आर.के. सिन्हा

    देखिए, यह सच है कि विगत कुछ वर्षों में मोदी शासन के दौरान हमारी बैंकिंग व्यवस्था में अनेक कमियां उभरकर सामने आई हैं। ऐसा बिलकुल नहीं है कि ये कमियां पहले नहीं थीं। पहले कहीं ज्यादा थीं पर पूर्ववर्ती सरकारों की “तुम भी खाओ, हम भी खायें” की भ्रष्ट नीति के कारण खुलेआम लूटपाट चलती रही। सरकारी, प्राइवेट और को-ऑपरेटिव बैंकों में लेन-देन के नाम पर सरेआम घोटाले होते रहे। बैंकों के डिजिटल होने के बाद घोटाले बढ़े हैं। कुछ बैंककर्मियों की काहिली और करप्शन को भी देश ने देखा है। इसका नतीजा यह हुआ कि बैंकों का आम ग्राहक परेशान होता रहा। उसे डर सताने लगा कि क्या बैंकों में पैसा जमा करवाना सही रहेगा अथवा नहीं? हाल ही में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने एक बाहरी बैंकिंग एक्सपर्ट चरणजीत सिंह अत्रे को अपना चीफ फाइनेंशियल ऑफिसर नियुक्त करके एक शुभ संकेत दे दिया है कि सरकारी बैंक अपनी कार्यप्रणाली में गुणात्मक सुधार लाने के प्रति अब गंभीर हैं। चरणजीत अत्रे अर्नस्ट एंड यंग में शिखर पद पर थे। चरणजीत अत्रे स्टेट बैंक के कामकाज को सुधारने और ज्यादा चुस्त-दुरुस्त करने में मदद करेंगे।

    ताकि बैंकों का कामकाज सुधरे

    यह सब जानते हैं कि स्टेट बैंक अपने आप में बाकी बैंकों के सामने उदाहरण पेश करता है। बाकी के लगभग सारे बैंक उनकी नकल भी करते हैं। वह देश का सबसे बड़ा बैंक है। उसकी देश के चप्पे-चप्पे में शाखाएं हैं। स्टेट बैंक में स्थितियां सुधरेंगी तो यह देश के बैंकिंग की दुनिया के लिए एक अच्छा संकेत होगा। सरकार की भी चाहत है कि बैंकों से अब सकारात्मक खबरें ही आएं। बैंकों को अधिक प्रतिस्पर्धी, पारदर्शी और व्यवसायिक बनाने के लिए इनमें प्रशासन संबंधी सुधार किए जा रहे हैं और एक ठोस बैंकिंग प्रणाली सुनिश्चित की जा रही है। फिलहाल सभी अनुसूचित और व्यवसायिक बैंकों के सेहत की निगरानी के लिए एक ठोस तंत्र पहले से मौजूद है और जमाकर्ताओं का पैसा सुरक्षित है।

    यह ध्यान में रखा जाना चाहिये कि बैंकों का यही काम नहीं है कि वह लोगों का पैसा अपने पास जमा रखे और उसपर ब्याज दे। यह तो उसके कुल काम का एक छोटा-सा हिस्सा है। बैंकों का असली कम है ग्राहकों की जमा पूंजी को ब्याज पर लगाना और मुनाफा कमाना। बैंकों को छोटे उद्यमियों और किसानों को लोन उपलब्ध करवाते वक्त अपने कड़े नियमों में कुछ उदारता लानी होगी। हां, उन्हें लोन की ब्याज के साथ वसूली का अधिकार है ही। इस मामले में दो राय नहीं हो सकती। पर यह न हो कि बड़े उद्योगपति या असरदार लोग लोन लेते रहें और उद्यमी बनने के ख्वाब देखने वाले गरीबों की अनदेखी हो। गुस्ताखी माफ, हमारे देश में कुछ ऐसा ही होता रहा है।

    उदहारण के तौर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र की आमसभा को संबोधित करते हुए यह गर्वपूर्वक कहा कि नारी सशक्तिकरण के क्षेत्र में माइक्रो फाइनेंस कंपनियों ने बड़ा काम किया है। जबकि, वास्तविक स्थिति भिन्न है। वित्त मंत्रालय द्वारा निर्धारित लक्ष्यों को पूरा करने के लिये बैंकों ने बिना मांगे ही ऐसी माइक्रो फाइनेंस कंपनियों को दस-दस, बीस-बीस हजार करोड़ रुपये दे दिए जिन्हें न तो जरूरत थी न ही उसका उपयोग हुआ लेकिन ऐसी छोटी माइक्रो फाइनेंस कंपनियों को दो-चार करोड़ देने में बैंक अड़ंगे पर अड़ंगे ही लगाते रहे। ऐसे सामंती मानसिकता वाले बैंकरों की पहचान कर उन्हें बाहर का रास्ता दिखाना होगा क्योंकि वे प्रधानमंत्री के शुद्ध संकल्प पर प्रहार करने में कसर नहीं छोड़ रहे। कुछ भ्रष्ट बैंकर मोटा लोन दिलवाने के बदले में अपनी जेबें भरते रहे हैं। उन्हें समाज के अंतिम इंसान से कभी मतलब नहीं रहा। गांधी जी उसी समाज के अंतिम व्यक्ति के हक में बोला करते थे।

    बैंक देखें अपने छोटे ग्राहकों को

    दरअसल, बैंकों ने अपने छोटे ग्राहकों के हितों की उस तरह से कभी चिंता नहीं की जितनी उनसे अपेक्षित थी। यह हजारों करोड़ों रुपए का लोन मारने वालों से तो अपनी नजरें चुराते रहे और छोटा-मोटा लोन वापस करने में विलंब करने वालों के पीछे पड़ गए। इन्हें उन ग्राहकों के बारे में भी सोचना होगा जिन्हें बिल्डरों ने तय समय के सालों बाद भी घर नहीं दिए। ये वक्त के मारे लोग बैंकों की ईएमआई भी भर रहे हैं और किराए के घरों का किराया भी दे रहे हैं। क्या बैंकों को इनकी ईएमआई में कुछ रियायत देने के बारे में नहीं सोचना चाहिए था? अगर ये कुछ इस तरह का कदम उठा लें तो सच में लाखों नौकरीपेशा और छोटे-मोटे कारोबारियों के साथ बहुत बड़ा उपकार करेंगे। लेकिन इन्हें तो ऐसे मालदार लोगों को ढूँढना है जो इनकी जेबें भर सकें।

    बैंक अपने कामकाज में सुधार ला रहे हैं, ऐसा लगता है या कम से कम कहा जा रहा है। वहीं बैंकों में धोखाधड़ी के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। जैसे-जैसे बैंक से जुड़े काम डिजिटल माध्यम से होने लगे हैं, ग्राहकों को आसानी तो हुई है लेकिन इसके साथ धोखाधड़ी के मामले भी सामने आ रहे हैं। ऐसे में इनसे बचने के लिए सावधानी बरतना बेहद जरूरी है। बैंकों को ग्राहकों के हितों में हमेशा सक्रिय रहना होगा। ग्राहक भी थोड़ी सावधानी बरतें तो वे धोखाधड़ी का शिकार होने से बच सकेंगे। उदाहरण के रूप में जब भी हमें बैंक से कोई पूछताछ या किसी काम के लिए संपर्क करना होता है तो अक्सर लोग उसकी डिटेल गूगल या किसी दूसरे सर्च इंजन के जरिए इंटरनेट पर खोजते हैं। पर ग्राहक यह करने की कोशिश न करें और इसकी बजाय बैंकों की अधिकृत वेबसाइट को देख लें। बैंकों से अक्सर लोगों को फोन आते हैं लेकिन ये कॉल कई बार फर्जी होती है जो आपसे आपके खाते के बारे में जानकारी लेकर आपसे पैसे लूट लेते हैं। जब भी आपको बैंक या बैंक के कॉल सेंटर से संबंधित किसी व्यक्ति का फोन आता है, उसपर आंख बंद कर भरोसा न करें। ऐसे में सावधान रहें और दूसरे व्यक्ति के कहने पर कुछ जानकारी देने से पहले अच्छी तरह सोचें।

    इस बीच, बैंक चेक से होने वाले फ्रॉड को रोकने की कोशिश कर रहे हैं। इसके तहत, 50 हजार रुपये या इससे ज्यादा की रकम का चेक जारी करते समय खाताधारक को चेक के बारे में बैंक को जानकारी देनी होगी। इसके लिए खाताधारक को चेक नंबर, चेक डेट, प्राप्तकर्ता का नाम, खाता नंबर, रकम आदि डिटेल्स के साथ चेक के अगले और पिछले हिस्से की फोटो साझा करनी होगी। जब लाभार्थी चेक को इनकैश करने के लिए बैंक में जमा करेगा तो बैंक पॉजिटिव पे सिस्टम के जरिए पहले से प्राप्त डिटेल्स से चेक की डिटेल्स मैच करेगा। अगर डिटेल्स मेल खाएगी तब ही चेक क्लियर होगा। इससे चेक से संबंधित धोखाधड़ी रोकने में मदद मिलेगी। यहां तक सब ठीक है। पर बैंकों के ऑनलाइन पेमेंट सिस्टम से भी घोटाले बढ़ रहे हैं। बैंकों को इस पहलू पर नजर रखनी चाहिए। कहना न होगा कि इन कुछ उपायों से हमारे बैंक अपने ग्राहकों को और स्तरीय सेवा दे सकेंगे।

    एक बात और करने का मन कर रहा है। सरकारी बैंकों को अपने यहां विभिन्न खेलों के श्रेष्ठ खिलाड़ियों को फिर से बड़े पैमाने पर नौकरी देनी चाहिए। एक जमाने में अजीत वाडेकर, बिशन सिंह बेदी, यशपाल शर्मा जैसे क्रिकेटर और मंजीत दुआ जैसे भारत के चोटी के टेबल टेनिस खिलाड़ियों को स्टेट बैंक में रोजगार मिला हुआ था। एक बेहतर नौकरी मिलने के बाद ये सब अपने-अपने खेलों में श्रेष्ठ प्रदर्शन करते रहे। इन्हें कम से कम नौकरी की चिंता नहीं थी। अब खिलाड़ियों को सही जगह पर नौकरी ही नहीं मिल पाती। इसलिए बैंकों को फिर से हर साल कम से कम 20-25 श्रेष्ठ खिलाड़ियों को रोजगार देना ही चाहिए। ये खिलाड़ी बैंकों के लिये डिपॉजिट भी ला सकते हैं और बेहतर रिलेशनशिप मैनेजर का काम भी कर सकते हैं।

    (लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)

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