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    थाली पीटने भर से मंगलमय नहीं होगा नया साल

  • December 28, 2020

    –  सियाराम पांडेय ‘शांत’

    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्ष के अंत में अपने मन की आखिरी बात की। उनकी मन की बात का दिल्ली सीमा पर आंदोलित किसानों ने थाली बजाकर विरोध किया। तर्क दिया कि मोदी जी ने कहा था कि ताली और थाली बजाने से कोरोना भाग जाएगा। हम थाली इसलिए बजा रहे हैं कि कृषि कानून भाग जाए और हमारा नववर्ष मंगलमय हो जाए। सवाल उठता है कि किसानों को कानून चाहिए या नहीं। अपनी बात मनवाने के लिए वे पूरे एक माह से आंदोलन कर रहे हैं। इससे देश की अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गई है।

    किसान कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री अपने मन की बात कहकर चले जाते हैं लेकिन हमारी बात नहीं सुनते। उनके समर्थक नेता भी कुछ इसी तरह की बात करते हैं कि उनके मन की बात सुनी जाए। लोग अपने तरीके से अपने मन की बात करते भी हैं। इस देश का हर व्यक्ति कुछ न कुछ बोलता हो लेकिन उसके सुने जाने की अपनी सीमा होती है। बात सब सुनें, इसके लिए पात्रता तो जरूरी होती ही है, बात में दम भी होना चाहिए। इस बात को कदाचित कोई समझना नहीं चाहता। तिस पर शिकायत यह कि कोई उसकी बात नहीं सुन रहा है। तर्क और तथ्य के आईने में कही गई बात ही संसार गौर करता है।

    प्रधानमंत्री होने के नाते नरेंद्र मोदी को सबके मन की बात सुननी चाहिए। यह उनका धर्म भी है और दायित्व भी। अगर वे हर माह अपने मन की बात कहकर इस देश की जनता का मनोबल बढ़ाते हैं, उन्हें कुछ नया करने की प्रेरणा देते हैं। कुछ नवोन्मेष करने की बात करते हैं। कौशल प्रशिक्षण और अपने में काबिलियत पैदा करने की सलाह देते हैं तो इसमें गलत क्या है? भारतीय संस्कृति में ताली तब बजाई जाती है जब किसी का अभिवादन करना हो, किसी को शाबासी देनी हो। थाली तब बजाई जाती है जब परिवार में कोई मंगल अवसर उपस्थित हुआ हो लेकिन यहां विरोध की थाली बज रही है, यह बात समझ से परे है। जो लोग अपने हित के लिए देश के हितों को ताक पर रख रहे हैं। टोल नाका फ्री कराए बैठे हैं, वे देश का कितना नुकसान कर रहे हैं, शायद इसकी उन्हें कल्पना नहीं।

    रही बात कानून की तो वह व्यक्ति के काम करने और रहन-सहन की सीमा निर्धारित करता है। उसके लिए क्या उचित है और क्या अनुचित, यह तय करता है। कानून कुछ नहीं, व्यक्ति की जीवनशैली का नियमन है। व्यक्ति खुद नियंत्रित हो जाए तो उसे पुलिस और अदालत की वैसे भी कोई जरूरत नहीं होती लेकिन जब देश का हर आदमी ऐसा करेगा तभी इसकी अहमियत है। वर्ना जो कुछ भी होगा, वह किसी बुरे सपने और भयावह मंजर से कम नहीं होगा।

    कानून के साथ एक सच यह भी है कि वह किसी व्यक्ति को स्वच्छंद नहीं रहने देता। संसार में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो बंदिशों को पसंद करता हो। सबकी एक ही कोशिश होती है कि उसपर किसी का नियंत्रण न रहे। ‘परम स्वतंत्र न सिर पर कोई’ वाली भावभूमि ही सबको अच्छी लगती है लेकिन अगर कानून न हो, संविधान न हो, जीवन जीने की कोई आचार संहिता न हो तो क्या होगा? बेहद अराजक माहौल सृजित हो जाएगा। सब अपने-अपने हित पर आमादा हो जाएंगे और संसार से शांति का नामोनिशान मिट जाएगा। सबको केवल ‘अपना कहा, अपना किया’ ही अच्छा लगेगा। लोग एक-दूसरे के हितों पर भारी पड़ने लगेंगे।

    मन की बात तो सभी कहना चाहते हैं लेकिन कह कितने लोग पाते हैं, यह भी किसी से छिपा नहीं है। मन की बात को कहना बहुत आसान नहीं है। मन हमेशा सुख की ही अनुभूति करे, ऐसा मुमकिन तो नहीं। सुख-दुख दोनों भाई हैं। दोनों के स्वभाव और प्रभाव अलग-अलग हैं। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। यूं समझें कि एक पेट है और दूसरा पीठ है। पेट-पीठ को जैसे एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता, वैसे ही सुख-दुख को भी व्यक्ति के जीवन से अलग नहीं किया जा सकता।

    अधिकांश लोग कहते हैं कि लोकतंत्र खतरे में है। संविधान खतरे में है लेकिन किसके चलते तो सबका एक ही जवाब होगा कि सरकार के चलते। सरकार किसने बनाई, इस तरफ कोई सोचता नहीं। सरकार जब आपने बनाई है तो सरकार के काम के लिए उत्तरदायी कौन है, इसका जवाब कौन देगा? जनता को सरकार से परेशानी है तो सरकार नाम की व्यवस्था समाप्त कर दी जाए। संविधान से परेशानी है तो संविधान खत्म कर दिया जाए। पुलिस-प्रशासन से परेशानी है तो पुलिस प्रशासन की व्यवस्था खत्म कर दी जाए। ऐसे में बचेगा क्या? जनता और उसकी स्वच्छंदता। जनता का मतलब व्यक्ति और उसकी गतिविधियां। जब कोई काम का मूल्यांकन करने वाला ही नहीं होगा तो कौन किसकी बात मानेगा? यह अपने आप में बड़ा किंतु जटिल सवाल है और इसका जवाब आम जनमानस की ओर से आना ही चाहिए।

    प्रधानमंत्री देशवासियों से अपील कर रहे हैं कि वे देश में बनाए सामानों का ही इस्तेमाल करें जिससे देश के कारीगरों को,उत्पादकों को लाभ हो। कुछ लोगों का तर्क है कि वे सरकार से बात भी करेंगे और मानेंगे भी नहीं। यह तो वही बात हुई कि ‘पंचों की राय सिर माथे लेकिन खूंटा नहीं उखड़ेगा।’ ऐसी वार्ता का कोई मतलब नहीं है। सरकार को लगता है कि उसने अच्छा कानून बनाया है और देश के अधिकांश किसानों, बुद्धिजीवियों को लगता है कि पहली बार किसानों के लिए कुछ विशेष हुआ है, लेकिन मुट्ठी भर किसान ऐसे हैं जो इस बहाने सरकार पर दबाव बना रहे हैं। इसमें कुछ राजनीतिक दल भी नीम पर करेले की तरह चढ़ गए हैं। वे दरअसल बात बनने नहीं दे रहे हैं।

    किसान नेता यह तो चाहते हैं कि उनका नववर्ष मंगलमय हो लेकिन वे नए कृषि कानूनों को हटवाकर ही दम लेना चाहते हैं। सरकार की समस्या यह है कि वह एकबार झुकी तो राजनीतिक दल उसे सही ढंग से काम नहीं करने देंगे। छोटी-छोटी समस्या लेकर लोग सड़कों पर उतरने लगेंगे। इन कानूनों को खत्म करने का मतलब है, बड़े आढ़तियों और बड़े व्यापारियों की दुरभिसंधि का सफल होना। इससे देश मजबूत नहीं होगा, वरन कमजोर ही होगा। थाली और ताली पीटने से नहीं, अपने और देश के बारे में सोचने और तदनुरूप काम करने से ही किसानों का नववर्ष मंगलमय होगा। उनका भी और देश का भी।

    (लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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