– प्रभुनाथ शुक्ल
‘लोकतंत्र’ बस एक ‘शब्द’ रह गया है। अब इसकी न कोई परिभाषा न भाषा। गरिमा और गौरवमयी संस्था का क्षरण लोकतंत्र और उसके भविष्य के लिए घातक है। लोकतंत्र, जनतंत्र और राजतंत्र जैसी संस्थाओं का एक दूसरे प्रति विश्वास घट गया है। तीनों के सामंजस्य और समायोजन से राजतंत्र की स्थापना होती है। गणराज्य के संचालन में सभी की अहम भूमिका होती है। लेकिन बदले माहौल में सभी संस्थाओं का नैतिक पतन हो चला है। राजतंत्र में सेवा, समर्पण और नैतिकता खत्म हो चली है। राजतंत्र, जनतंत्र के विश्वास का गला घोट रहा है। सत्ता और कुर्सी की लोलुपता में सब कुछ अनैतिक हो चला है। लोकतांत्रिक मूल्यों और मर्यादाओं की बात बेईमानी है। आज की सियासत छद्म, पाखंडवाद की पोषक हो चली है। राजनीति में जनसेवा सिर्फ खोखला नारा है। उत्तर प्रदेश राज्य विधानसभा चुनाव में इसका पतन देखने को मिल रहा है।
पांच राज्यों में चुनावी घोषणा बाद पाला और दलबदल का सिलसिला चल निकला है। राजनेताओं को अब दलित, शोषित, वंचित, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का शोषण याद आने लगा है। भाजपा, सपा, बसपा और कांग्रेस जैसे दलों के निर्वाचित प्रतिनिधि सत्ता की लोलुपता में पाला बदल रहे हैं। जबकि निरीह जनतंत्र उनका तालियों और हार से स्वागत करने को बेताब है। ऐसे लोगों से कोई सवाल पूछने को तैयार नहीं है। सत्ता की चाकी कभी स्थिर नहीं रहती है जबकि यहीं स्थिरता पाला बदल का मूल है। दलितों, अल्पसंख्यकों और पिछड़ों के मसीहा बनने वाले भावनात्मक मुद्दों को उछाल कर संबंधित जातियों के वोटबैंक से सत्ता में आने की जुगत लगा रहे हैं। उत्तर प्रदेश के राज्य विधानसभा चुनाव में पाला बदल चरम पर है। कल यही राजनेता मंच से जिसे गालियां देते थे आज उन्हें गले लगा रहे हैं। जनता सब कुछ जानते हुए भी उनका आलिंगन करने को बेताब है। लोकतंत्र की सबसे बड़ी विडंबना यही है।
स्वामी प्रसाद मौर्य पिछड़ों के कद्दावर और दिग्गज नेता माने जाते हैं। उनकी राजनीतिक जमीन भी बेहद मजबूत है। बहुजन समाज पार्टी छोड़कर उन्होंने समर्थकों के साथ भगवा चोला धारण किया था। लेकिन पांच साल सत्ता का सुख भोगने के बाद समाजवाद की लंबरदारी करने को बेताब दिखते हैं। कांग्रेस और भाजपा का बोया बबूल आज उन्हीं को चुभ रहा है। आज पाला बदलने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य और अन्य निर्वाचित विधायकों को दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यकों के अधिकार याद आने लगे हैं।
स्वामी प्रसाद मौर्य पांच साल पूर्व इसी न्याय को आगे बढ़ाने के लिए मौर्य भाजपा में आए थे। यहां भी उनके मकसद पूरे नहीं हुए। अब समाजवादी पार्टी की तरफ जाते दिखते हैं। दलितों, अल्पसंख्यकों और पिछड़ों का वह कितना कल्याण कर सकते हैं यह तो वक्त बताएगा। उन्हें दलितों, पिछड़ों की इतनी ही चिंता थी तो साल भर पूर्व भाजपा को क्यों नहीं छोड़ा। चुनाव की घोषणा के बाद आखिर पाला बदल क्यों। क्या उन्हें मालूम है कि भाजपा सत्ता में आनेवाली नहीं है। दलितों की मसीहा मायावती आज कहाँ खड़ी हैं यह सभी जानते हैं। लेकिन दलित समाज कितना बदला है यह वहीं जानता है। लेकिन उसी शोषित और दलित की बात करने वाली बसपा बदले सियासी दौर में हाशिए पर है जबकि मौर्य तीसरे दल की आरती में हैं। क्या यही दरिद्रनारायण की सेवा है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में सबका अपना अधिकार है। व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता के अनुसार जीने को स्वतंत्र है। लेकिन दलितों, अल्पसंख्यकों और पिछड़ों की दुहाई देकर लोकतांत्रिक संस्थाओं का गला घोंटने वाले किसी का नहीं हो सकते। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सब का समान अधिकार है। संवैधानिक संस्थाओं में सभी को बराबर की हिस्सेदारी और अधिकार मिले हैं। दलितों, वंचित, शोषित,पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की आड़ में सत्ता की परिक्रमा करने वाले लोग खुद का हित साधते हैं। राजनीति में आने के पूर्व ऐसे व्यक्तियों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति का आकलन होना चाहिए। जाति-धर्म की दुहाई देने वालों ने क्या कभी सोचा कि जिस दलित,अल्पसंख्यक और पिछड़े समाज की दुहाई देकर वह सत्ता में आते हैं उनके निजी संवृद्धि एवं विकास की तुला में वे कहाँ ठहरते हैं। क्या ऐसे वंचित वर्ग कि भी सामाजिक और आर्थिक स्थिति उतनी तेजी से बदलती है जीतने की उनके राजनेता की। समाज के लोगों को इस तरह के राजनेताओं को जातीय मसीहा मानने के बजाय सवाल करने चाहिए। अगर ऐसा नहीं है तो फिर उस समाज को ठगने की कोरी साजिश है।
लोकतान्त्रिक व्यवस्था में दल बदल कानून अप्रासंगिक हो चले हैं। इसका महत्व अब सिर्फ सरकार बचाने के लिए राज्य विधानसभा में व्हीप के वक्त किया जता है। समय के साथ दलबदल कानून निर्बल हो गया है। मेरे विचार में लोकतांत्रिक व्यवस्था में नियंत्रण होना चाहिए। क्योंकि वक्त के साथ इसमें बेतहाशा गिरावट महसूस की गई है। चुनाव आयोग के पास इसकी सीधी नकेल होनी चाहिए। किसी भी दूसरी संवैधानिक संस्था का इसमें हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। व्यक्ति और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर संवैधानिक संस्थाओं का गला नहीं घोटा जाना चाहिए। अगर नौकरी में सेवनिवृति, निलंबन जैसे कानून हैं तो दलबदल के लिए भी होने चाहिए। हत्यारे को अगर फांसी जायज है तो लोकतंत्र की हत्या करने वालों के लिए सजा क्यों नहीं। दल बदल की एक निश्चित सीमा तय हो। निर्धारित वक्त के पूर्व किसी को दल बदलने की अनुमति नहीं होनी चाहिए। कोई भी व्यक्ति दो राष्ट्रीय दलों से अधिक दलबदल नहीं कर सकता। घपले-घोटाले में दोषी पाए जाने पर उसकी राजनीति पर आजीवन प्रतिबंध लगना चाहिए। जाति, धर्म, भाषा, नस्ल, की आड़ में दल गठित करने की मनाही होनी चाहिए।
चुनाव आयोग के पास यह स्वतंत्रता होनी चाहिए कि कोई भी व्यक्ति चुनाव के वक्त दल नहीं बदल सकता उस स्थित में जब चुनावों की घोषणा हो गयी हो। आयोग के पास यह अधिकार होना चाहिए कि एक निश्चित जनमत हासिल करने वाला व्यक्ति या संगठन ही किसी सियासी दल का गठन कर सकता है। आयोग की मंजूरी के बिना किसी को राजनैतिक दल बनाने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए। राजनेताओं की हर पांच साल बाद आर्थिक स्रोतों की समीक्षा होनी चाहिए। आय से अधिक संपत्ति मिलने पर आजीवन राजनीति पर प्रतिबन्ध लगना चाहिए।
जनता की सेवा के बहाने राजनीति में आने वाला व्यक्ति कुछ ही सालों में इतना दौलतमंद कैसे बन जाता है इस पर भी विचार होना चाहिए। राजनैतिक संस्थाओं और दलों के लिए भी नियम होने चाहिए। ऐसी संस्थाएं और लोग सबको नियंत्रित करना चाहते हैं लेकिन खुद अनियंत्रित होते हैं। लोकतंत्र को सबसे बड़ा खतरा ऐसी ही राजनीतिक संस्थाओं और राजनेताओं से है। आयोग को सिर्फ चुनावी घोषणा के दायरे से अलग करना होगा, उसे और अधिकार देने की आश्यकता है। लोकतान्त्रिक व्यवस्था में अब चुनाव आयोग की भूमिका और उसके अधिकार पर भी नए सिरे से विमर्श की जरूरत है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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