– रमेश ठाकुर
‘जिसका काम उसी को छाजै, और करे तो डंडा बाजै’ यह पुराना मुहावरा है। मगर इसका महत्व उत्तर प्रदेश शासन ने अब समझा है। बाल अपराध प्रकरण अब पारंपरिक पुलिस थानों को नहीं सौंपने का फैसला लिया गया है। इसके लिए अलग व्यवस्था की जा रही है। उत्तर प्रदेश राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग की सिफारिश पर किशोर अपराध से जुड़े हर प्रकरण को सुलझाने के लिए सभी जिलों में ‘बाल मित्र थाना’ खोलने का निर्णय हुआ है। माना जा रहा है कि इससे आपराधिक प्रवृति वाले किशोरों को सही रास्ते पर लाने में मदद मिलेगी। देश में जैसे महिलाओं से जुड़े मामलों के लिए ‘महिला थाने’ हैं, डिजिटल धोखाधड़ी के लिए ‘साइबर थाने’ हैं, ठीक उसी तर्ज पर ‘बाल मित्र थानों’ को स्थापित किया जाएगा। बाल अधिकार सरंक्षण से जुड़े देशभर के असंख्य कार्यकर्ता लंबे समय से इसकी मांग करते रहे हैं। वह चिल्लाते रहे हैं कि छोटे-बड़े अपराधों में नौनिहालों की संलिप्ता पर पुलिस उन्हें वयस्कों की तरह दंडित ना करे? उनके लिए अलग थाने बनाए जाएं, जहां उनकी बेहतर तरीके से सुनवाई हो और नम्रतापूर्वक काउंसलिंग की जाए, ताकि गलत रास्तों को त्यागकर बच्चे अच्छे संस्कारों की ओर दोबारा से मुड़ सकें।
बच्चों के अपराध में संलिप्त होने के कुछ बुनियादी कारण हैं। एकल परिवारों के बच्चों की वैयक्तिक स्वतंत्रता में अत्यधिक वृद्धि होने से नैतिक मूल्यों का क्षरण हो रहा है। मोबाइल फोन, कंप्यूटर और इंटरनेट की लत ने बच्चों को अवसाद के दलदल में धकेल दिया है। इससे वह अपराध जगत का हिस्सा बन रहे हैं। बाल मित्र थाने कैसे होंगे, कार्यशैली कैसी होंगी और उनमें तैनाती किन अधिकारियों की होगी, इसका खाका तैयार हुआ है। थानों में सिर्फ सामान्य कपड़ों में पुलिसकर्मी तैनात होंगे। अन्य थानों की तरह एक इंस्पेक्टर या एसएचओ, करीब आठ-दस उप निरीक्षक और एकाध महिला उप निरीक्षक रहेंगी। ये तामझाम और अतिरिक्त खर्च का भार सरकार इसलिए उठाना चाहती है, ताकि बढ़ते बाल अपराधों पर अंकुश लगाया जाए। शायद राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की मौजूदा रिपोर्ट ने ये सब करने पर मजबूर किया है।
ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक बीते एक वर्ष में नाबालिग बच्चों के खिलाफ 842 हत्या, 981 हत्या का प्रयास, 725 अपहरण के केस दर्ज हुए हैं। ये संगीन मामले हैं। इनमें उत्तर प्रदेश अव्वल है। चोरी की घटनाओं में बेहताशा इजाफा हुआ है। करीब 6081 घटनाएं दर्ज हुई हैं। लूट की 955 और डकैती की 112 घटनाएं भी सामने आईं। ये घटनाएं सभ्य समाज के लिए चिंता का विषय हैं। ये रिपोर्ट कोरोना काल की है। इस पर सभी राज्यों के बाल संरक्षण आयोग गंभीर हैं। सभी अपने स्तर पर कुछ न कुछ करने की रणनीति बना रहे हैं। हाल के वर्षों में आपराधिक वारदात में बच्चों के संलिप्ता का ट्रेंड तेजी से बढ़ा है। सरकार का प्रयास है शायद ‘बाल मित्र थानों’ के जरिए इस अपराध को थामा जाए। इन थानों में किशोरों को डराने के बजाए अपराध से दूर रखने की कवायद होगी। बिगड़ैल बच्चों की काउंसलिंग की भी व्यवस्था का प्रबंध रहेगा। थानों में खिलौने से लेकर पढ़ने वाली ज्ञानबर्धक पुस्तकें भी होंगी। पुलिसकर्मियों के अलावा बाल कल्याण समिति के लोग भी बच्चों से मिलते रहेंगे।
बढ़ते बाल अपराध गंभीर चिंता का विषय हैं। इन घटनाओं के लिए वास्तव में कच्ची मिट्टी जैसे मन वाले नौनिहाल ही जिम्मेदार हैं या कहीं न कहीं हमारे लालन-पालन व सामाजिक माहौल में व्याप्त कमियां हैं? बाल अपराधों को रोकने के लिए अभी तक सरकारी स्तर पर जितने भी प्रयास किए गए, वे उतने सफल नहीं हुए। कहा जा सकता है कि इसलिए नौनिहालों से जुड़े मसलों के निष्तारण के लिए ‘बाल मित्र थाने’ समय की दरकार हैं। अक्सर देखने में आता है कि आपराधिक प्रवृत्ति वाले बच्चों से विनम्रतापूर्वक व्यवहार नहीं किया जाता। उनके साथ थानों में पुलिसकर्मी वयस्कों जैसा बर्ताव करते हैं। इससे बच्चे सुधरने के बजाय और बिगड़ जाते हैं।
किशोर न्याय (देखभाल और संरक्षण) अधिनियम-2000 के मुताबिक एक किशोर यदि किसी भी आपराधिक गतिविधि में शामिल है तो कानूनी सुनवाई और सजा के लिए उसके साथ एक वयस्क की तरह व्यवहार नहीं किया जाएगा। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक बाल अपराधियों की संख्या बढ़ने के साथ-साथ उनके खिलाफ मामलों में भारी इजाफा हुआ है। बीते तीन वर्षों में किशोरों के खिलाफ 4,18,385 अपराध दर्ज हुए जिनमें पॉक्सो-एक्ट के तहत करीब 1,34,383 मामले हैं। ये सभी आंकड़े सोचने पर मजबूर करते हैं। काश उत्तर प्रदेश का यह प्रयोग सफल हो तो आगे की नई राह खुले।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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