नई दिल्ली: एक ओर जहां दुनिया कोरोना महामारी (Corona Pandemic) के दंश से पूरी तरह उबरी भी नहीं पाई है. अमीर देशों में तो अधिकांश आबादी का टीकाकरण हो चुका है लेकिन अफ्रीकी देशों में करोड़ों लोग कोरोना के कवच से वंचित हैं. इस बीच अमेरिकी स्वास्थ्य सेवा विभाग के अधिकारियों ने कुछ देशों में ठीक वैसी स्थितियां बनने की आशंका जताई हैं जैसे 20 साल पहले एड्स संक्रमण (AIDS Crisis) के दौर में बनी थीं.
अमेरिका की चिंता
‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक आज से करीब 20 साल पहले एक विनाशकारी वायरस उन देशों को बर्बाद कर रहा था जिनके पास अमेरिका जैसे अमीर देश के लोगों के लिए मौजूद दवाओं की कमी थी. इस वायरस को एचआईवी (HIV) नाम दिया गया था. उस दौर में इसके इलाज की दवाओं का पेटेंट हुआ और भारी कीमत तय की गई. गरीब देशों के पास इस संक्रमण की दवा और इंजेक्शन को सही तापमान पर रखने की क्षमता नहीं थी. ऐसे में ये काफी दुखद है कि इतने सालों बाद भी ऐसी स्थितियों में बदलाव नहीं आया है.
दो दशक पहले क्या हुआ था?
हालांकि उस समय तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने 2002 में गुप्त रूप से अपने शीर्ष स्वास्थ्य सलाहकारों को ये पता लगाने के लिए अफ्रीका भेजा था कि सामाजिक कार्यकर्ता इसके इलाज को चिकित्सकीय भेदभाव (Medical Apartheid) क्यों कहा जा रहा है. अब 20 साल बाद अमेरिका ने एच.आई.वी के इलाज के लिए एक वैश्विक बुनियादी ढांचा खड़ा कर दिया है. सही समय पर परीक्षण और इलाज की वजह से हर साल लाखों लोगों की जान बच रही है. दो दशक पुराने इतिहास को ध्यान में रखते हुए वर्तमान में वैश्विक स्वास्थ्य एजेंसियां और राष्ट्रपति जो बाइडेन का प्रशासन निम्न और मध्यम आय वाले देशों तक कोरोना वायरस की जांच और महंगी एंटीवायरल गोलियां जल्द से जल्द पहुंचाने के लिए काम कर रहे हैं.
इंटरनेशनल कोविड समिट में क्या होगा?
दरअसल इस हफ्ते, राष्ट्रपति बाइडेन अपने दूसरी इंटरनेशनल कोविड -19 वर्चुअल समिट में ‘उपचार के लिए वैश्विक परीक्षण’ और सभी के लिए वैक्सीनेशन की थीम पर जोर देंगे. इस दौरान व्हाइट हाउस प्रशासन के हवाले से कहा जा रहा है कि इस दौरान राष्ट्रपति बाइडेन अमीर देशों से कोरोना महामारी का मुकाबला करने के 2 अरब अमेरिकी डॉलर का दान देने की अपील करेंगे. ताकि इस रकम का इस्तेमाल गरीब देशों में ऑक्सीजन की पर्याप्त सुविधा का इंतजाम करने के साथ वहां पर कोरोना के इलाज में काम आने वाली दवाएं और उपकरण मुहैया कराए जा सकें.
दरअसल इस मुहिम पर काम कर रहे लोगों का मानना है कि WHO जैसी वैश्विक स्वास्थ्य एजेंसियों के पास फिलहाल एंटीवायरल दवाएं या कोरोना टेस्टिंग किट जैसे जरूरी उपकरणों को खरीदने के लिए फंड की कमी है. दूसरी ओर दवा कंपनियां अपने पेटेंट की सुरक्षा के नाम पर जेनेरिक दवाओं के विकल्पों की आपूर्ति को सीमित कर रही हैं. इसमें लैटिन अमेरिका का पूरा क्षेत्र भी शामिल है. ऐसे में अमेरिकी अधिकारियों का मानना है कि वर्तमान चुनौतियों और कई कोशिशों के बावजूद शायद ही अगले साल 2023 तक कोरोना के इलाज की सस्ती और असरदार जेनेरिक दवाएं गरीब देशों तक पहुंच पाएंगी.
सामूहिक प्रयास की जरूरत
ऐसे में डर की वजह ये है कि गरीब देशों की स्थितियों में उस दौर की तुलना में कोई खास बदलाव नहीं आया है ऐसे में समय रहते सम्मिलित उपाय नहीं किए गए तो कोरोना महामारी भी एड्स की महामारी की तरह लंबे समय तक बने रहने वाली बीमारी बन सकती है. दरअसल अमेरिकी शोधकर्ताओं को जून से सितंबर के बीच गरीब देशों में ओमाइक्रोन के नए मामलों में बढ़ोतरी या किसी नए कोरोना वैरिएंट से तबाही होने का अनुमान लगाया है. ऐसे में डॉ बिल रोड्रिगेज का कहना है हम सभी को जांच और इलाज दोनों के बीच समन्वय बिठाते हुए काम करना होगा. यह बेहद समान यानी ठीक वैसा ही दर्दनाक, विडंबनापूर्ण और दुखद स्थितियां होगी जैसा कि एचआईवी संकट के समय पैदा हुई थीं.
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