इंसान का जन्म तभी सार्थक कहलाता है, जब वो समाज, नगर, प्रदेश या फिर देश के लिए कोई योगदान दे, वरना पशु व इंसान में कोई फर्क नहीं रह जाएगा। इसलिए तमाम देशों में जो प्रतिस्पर्धा है, वो इंसान के लक्ष्य व समाज, देश के लिए दिए जा रहे योगदान के कारण संभव हुई है। शहर, प्रदेश व देश के लिए वही व्यक्ति योगदान देता है, जिसका उद्देश्य ऊंचा हो। समाज के लिए तो बहुत से लोग कुछ न कुछ करते हैं, लेकिन नगर व प्रदेश के लिए कल्पना करना और उसे साकार रूप देने के लिए अपना संपूर्ण जीवन पल-पल न्योछावर कर बड़े सपने लेकर काम करना बड़ी बात होती है। यही सब कुछ अग्निबाण के परम श्रद्धेय व जनक श्री स्व. नरेशचंद्रजी चेलावत ने किया। उस जमाने में जेब में पैसा न हो, मुद्रा का चलन कम हो, कर्ज आसानी से न मिलता हो, ऐसे दौर में ऊर्जावान स्व. चेलावतजी ने बिना संसाधन अग्निबाण को शहर में कदम-दर-कदम फैलाने का काम किया। ये किसी आश्चर्य से कम नहीं है। सुबह से राजबाड़ा स्थित प्रेस पर आकर हर काम में हाथ बंटाते हुए तय समय पर अखबार पाठकों तक पहुंचाने का काम वनमैन इंडस्ट्री के रूप में स्व. बाबूजी ने किया।
उस जमाने में अखबार का एक-एक पन्ना छपता था, फिर फोल्ड होता था। इसके बाद दूसरी तरफ की छपाई होती थी। ट्रेडल मशीन व हैंड कंपोजिंग की मशक्कत बड़ा काम था, उसे भी बाबूजी करने में संकोच नहीं करते थे। फिर अखबार तैयार होने पर वितरकों को देना, चिल्लर गिनना, यहां तक कि जरूरत पड़ने पर अखबार बांटने निकल जाना, ये ऐसा जुनून था, जो अग्निबाण को सफलता की बुलंदी के पहले खून-पसीना बहाने का सबब बना। बाबूजी काम की शुरुआत प्रेस में स्वच्छता मिशन से करते थे। खुद झाड़ू-पोंछा लगाना, जरूरत पड़ने पर परिवार के सदस्यों को भी तैयार कर ले आते थे। बाबूजी को आलराउंडर भूमिका में देख उनकी दोस्त मंडली भी, जो कि शाम को आती थी, दंग रह जाती थी। बाबूजी के बारे में बहुत कुछ लिखा जा सकता है। आज के दौर में जो मैनेजमेंट से लेकर अन्य पढ़ाई हो रही है, इससे अच्छा मैनेजमेंट तो बाबूजी सिखा गए। कैसे वर्करों से काम लेना है, यह सब बखूबी जानते थे। जरूरत पड़ने पर वर्करों के घर जाकर प्रेस तक ले आते थे। उनका मंत्र था, यदि वर्करों को खुश रखोगे तो संस्थान में खुशियां लहराएंगी। वर्कर दु:खी होगा तो आपके संस्थान का नाम खराब होगा। वर्कर ही संस्थान की जान होता है और मालिक यदि वर्करों के साथ खुद काम करता है तो संस्थान दिनोदिन तरक्की के पायदान पर होता है। आज हम सब जो अग्निबाण की सफलता का चारों ओर शोर सुनते हैं, ये बाबूजी की कड़ी मेहनत व सीख का नतीजा है।
यहां तक कि स्व. बाबूजी ने मुट्ठीभर वर्करों से कभी भी ऊंची आवाज में बात नहीं की, वरना आज के दौर में तो जरा सा पैसा आ जाने पर टटपुंजिए सेठ जमानेभर का रौब झाड़ते हैं। अपने सतत कर्म से वे आर्थिक रूप से कुछ संभलने लगे थे तो और दरियादिल हो गए थे। धन्नासेठों के अखबारों के बावजूद अग्निबाण की यदि बड़ी इमेज है, नाम है, प्रसिद्धि है, सच से भरी खबरों पर जो हलचल मचती है, ये सब बाबूजी के सिद्धांतों की ही देन कह सकते हैं। शहर का व्यक्ति प्रदेश या देश में कहीं भी जाता है तो अग्निबाण का नाम लोग फख्र के साथ लेते हैं। ये स्व. बाबूजी की परिकल्पना की देन है, जो उन्होंने शहर ही नहीं, देश को गौरवान्वित किया। एबीसी रिपोर्ट में अग्निबाण लगातार सिरमौर रहा, ये इस शहर के लिए बड़ी उपलब्धि है, जबकि स्वच्छता में शहर ने बाद में नंबर वन का ताज पहना, लेकिन प्रसार संख्या में तो अग्निबाण ने सालों तक नंबर वन का तमगा बनाए रखा, ये शहर के लिए शानदार, दमदार उपलब्धि है। बाबूजी के साथ काम करते हुए मुझ जैसे कर्मचारी सहित अनेक कर्मचारियों ने प्रेरणा ली है। वो ऊर्जा की फैक्ट्री से कम नहीं थे। यही ऊर्जा उनके ज्येष्ठ पुत्र श्री राजेश चेलावत में भी है, जिन्होंने विरासत में मिले अखबार को तेज गति से चलाया ही नहीं, अपितु दौड़ा दिया। शहर में एकछत्र राज के साथ प्रदेश के हर कोने में अखबार पहुंचाने का उनका आइडिया सफलता हासिल करता गया। बाबूजी की कमी सदा खलती रहती है। यदि वे होते तो हर दिन अधिक खुशियों वाला होता। उन्हें याद करते हुए गर्व भी होता है कि हम कितने खुशनसीब हैं कि ऐसी शख्सियत के साथ हमने कुछ वर्ष काम किया। बाबूजी ने तो ये भी साफ कर दिया कि किसी भी काम को करना है तो हौसला बड़ा रखो और हौसला उसी का बड़ा होता है, जिसका जिगर फौलाद का हो। शायद बाबूजी में यही सब कूट-कूटकर भरा था, तभी तो ऐसा लगता ही नहीं कि आपको हमसे बिछड़े एक जमाना बीत गया। अंत में बस यही कह सकते हैं कि हवाओं के भरोसे मत उड़, चट्टानें तूफानों का भी रुख मोड़ देती हैं, अपने पंखों पर भरोसा रख, हवाओं के भरोसे तो पतंगें उड़ा करती हैं।
ठ्ठ मदन सवार
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