– डॉ. रामकिशोर उपाध्याय
अयोध्या में राममंदिर का शिलान्यास होने जा रहा है। पांच अगस्त का दिन भारत के लिए सांस्कृतिक महत्व का दिन है। यह शिलान्यास केवल राममंदिर का ही नहीं अपितु उस प्राचीन संस्कृति के पुनर्निर्माण का भी है जिसने प्राणियों में सद्भावना-हो और विश्व का कल्याण-हो कहकर लोकमंगल की कामना की है। शरणागत को आश्रय देने वाली और वसुधैव कुटुम्बकम की बात करने वाली सभ्यता के पथ को फिर से बुहारे जाने का यह क्षण ऐतिहासिक होने जा रहा है। भारत के प्रधानमंत्री स्वयं वहाँ उपस्थित रहेंगे और रहना भी चाहिये, हमारे सविधान की मूल प्रति में राम जी सांस्कृतिक वैभव के रूप में सचित्र विराजमान हैं।
अपनी संस्कृति का संरक्षण और संवर्धन प्रत्येक नागरिक का संवैधानिक कर्तव्य भी है। विडंबना यह है कि वोटबैंक के लिए राम को भी पार्टी और विचारधारा से जोड़कर विवाद खड़े किये जाते रहे हैं। इस बात पर प्रत्येक भारतवासी को गर्व होना चाहिए कि केवल हमीं ऐसे देश हैं जिसके पास अपने पूर्वजों की हजारों वर्ष पुरानी गौरवमयी वंशावली सुरक्षति है। रामायण काल के भूगोल पर भी अनेक अनुसंधान हुए हैं। कनिंघम की एन्शेन्टिक डिक्शनरी से लेकर पंडित गिरीशचंद्र (लन्दन के एशियाटिक सोसाइटी जनरल) तक लेखों की एक लम्बी श्रृंखला है।
मध्यकाल में आक्रान्ताओं ने पुस्तकालयों में आग लगा दी, भगवान् राम-कृष्ण, महावीर, बुद्ध आदि देवों के मंदिर तोड़ डाले, भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान मिटाने का हरसंभव प्रयास किया गया। उसके बाद पूरे भारत में हिन्दुओं (सिक्खों और मराठों) का शासन पुनः स्थापित होता कि उसी समय अंग्रेजों का आक्रमण हुआ। उन्होंने ऐसे भ्रामक सिद्धांत गढ़े और पाठ्यक्रमों में पढ़ाये कि भारत का जनसमूह आत्मविस्मृति को प्राप्त होने लगा। अंग्रेजों ने सिखाया भारत निर्धन और असभ्यों का देश है, इनपर विदेशी लोग सदियों से शासन करते आये हैं। स्वतंत्रता के बाद भारत के नीति निर्माताओं ने भी धर्म के स्थान पर संस्कृति को ही अधिक महत्व दिया। समस्या तब उत्पन्न हुई जब कुछ लोगों ने इसे धर्म के साथ-साथ संस्कृति निरपेक्ष भी बनाना प्रारम्भ कर दिया।
संस्कृति किसी भी देश का प्राण होती है, वह हजारों-लाखों वर्षों की संचित पूँजी होती है। कहा जाता है कि यदि किसी देश का अस्तित्व समाप्त करना हो तो उसकी भाषा और संस्कृति को समाप्त कर दो। प्रत्येक देश के पूर्वजों के साथ उस देश का इतिहास और संस्कृति भी जुड़ी होती है। राम भारत की संस्कृति, सभ्यता और इतिहास के प्रतीक हैं। भारत की पहचान राम से है, बुद्ध, कृष्ण, महावीर आदि अवतारी पुरुषों से है। यदि इन देवतुल्य महापुरुषों/ भगवानों को जनमानस की स्मृति से मिटा दिया जाये तो शेष भारत के पास अपनी पहचान के नाम पर बचेगा क्या? महर्षि वाल्मीकि भारत के ही नहीं मानव इतिहास में आदि कवि हैं और रामायण प्राचीन ग्रंथों में से एक है। रामायण (24 हजार श्लोक, पांच सौ सर्ग और सात कांड) के बारे में कहा जाता है “काव्यबीजं सनातनम” अर्थात रामायण समस्त काव्यों का बीज है।
विमर्श इस बात पर होना चाहिए कि महर्षि वाल्मीकि जी के समय सम्पूर्ण संसार में और कौन-कौन ऐसे कवि हुए हैं। भगवान राम के समय संसार के अन्य देशों में भी कोई ऐसा प्रतापी राजा हुआ है, यदि नहीं तो राम जी को संसार का पहला महान राजा माना जाना चाहिये। जिन्होंने सर्वप्रथम मानव जाति के लिए उच्च मूल्यों की स्थापना की। लंका विजय के पश्चात् न राज्य छीना, न नगर लूटा और न वहाँ की धरोहरें नष्ट कीं अपितु राज्य रावण के भाई को ही दे दिया। बाली का वध किया, राज्य सुग्रीव को दे दिया और अंगद को युवराज बना दिया। समाज के वंचित वर्ग और निर्धन वनवासी तक को अपने परिवार का अंग माना। माता शबरी हों (जनजाति) हो या मित्र निषाद राज न कोई भेद न कोई अहंकार। राम की अयोध्या में कोई निर्धन नहीं, कोई ऊँच-नीच नहीं, कोई प्रताड़ित नहीं, असत्य और अन्याय का कोई स्थान नहीं। क्या संसार के किसी भी देश या जनसमूह के पास ऐसे उच्च आदर्श वाले चरित्र, राज्य और नगर हैं? यदि हैं तो उनके सद्गुणों का भी उद्घाटन किया जाना चाहिए।
यूरोप अफ्रीका आदि देशों में उस युग में लोग क्या करते थे, उनके जीवन मूल्य और जीवन स्तर क्या था? दशरथ जी के दरबार में आठ मंत्री थे, अयोध्या बारह योजन लम्बी और तीन योजन चौड़ी थी। उसके राजमार्ग पर पुष्प बिखेरे जाते थे और नित्य जल छिड़का जाता था (मुक्तपुष्पावकीर्णेन जल सिक्तेन नित्यशः)। वहाँ व्यवस्थित बाजार हैं, सभी कलाओं के शिल्पी हैं, नगर के चारों ओर गहरी खाई खुदी हुई है और सैकड़ों शतघ्नी (तोपें) भी लगी हुई हैं। वाल्मीकि जी ने अयोध्या का जो वर्णन किया है वह एक अति उन्नत, समृद्ध अन्तरराष्ट्रीय व्यापार का केंद्र भी है। कालान्तर में यह केंद्र दुर्बल होता गया, मुग़लकाल में इसे पूर्णतः ध्वस्त कर दिया गया। आज उसी सांस्कृतिक केंद्र का पुनर्निर्माण होने जा रहा है। यह क्षण केवल हिन्दुओं के लिए ही नहीं अपितु प्रत्येक भारतवासी के लिए गौरवपूर्ण है, क्योकि अपने पूर्वजों का यशगान तो सभी को प्रिय होता है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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