– के. विक्रम राव
जानेमाने पत्रकार को घर में घुसकर पुलिस पकड़कर थाने अथवा जेल ले जाये, यह अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला नहीं माना जायेगा? उत्तर निर्भर करता है घटनाक्रम के तथ्यों और विवरण पर। साधारण मुजरिम को पकड़ने और ऐसे पत्रकार को कैद करने में अंतर स्पष्ट करना होगा। क्या वह भगोड़ा हो जाता? पकड़ के बाहर हो जाता? देश छोड़ देता? लापता हो जाता? उसकी संपत्ति क्या जब्त नहीं की जा सकती? उसका मुचलका अथवा जमानत देने वाला कोई न मिलता? क्या वह पेशेवर अपराधी है? मुलजिम और मुजरिम में अन्तर साफ समझना होगा। बिना उपरोक्त तथ्यों पर ध्यान दिये और संभावित कारणों पर विचार किये रायगढ़ (मुम्बई) पुलिस ने रिपब्लिक टीवी के प्रधान संपादक अर्णब गोस्वामी को सागरतटीय वर्ली के सत्रहवीं मंजिल वाले उनके फ्लैट से सूर्योदय के पूर्व घर में घुसकर (4 नवम्बर) गिरफ्तार कर लिया।
इसी प्रश्न के मद्देनजर बम्बई हाईकोर्ट की दो-सदस्यीय खण्डपीठ ने रिपब्लिक टीवी के प्रधान संपादक अर्णब गोस्वामी की जमानत पर सुनवाई शुरू की। उद्धव ठाकरे सरकार के वकील की जिद के बावजूद हाईकोर्ट ने अर्णब को जेल नहीं भेजा। 4 नवम्बर को रायगढ़ की मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट महोदया ने मुम्बई पुलिस की मांग को ठुकरा दिया था कि उन्हें पुलिस हिरासत में भेजा जाये। मजिस्ट्रेट ने न्यायिक हिरासत में ही रखा। पुलिस हिरासत तथा न्यायिक हिरासत (जेल) के तेरह महीनों का मुझे दुर्दान्त अनुभव है। तब आपातकाल में पुलिस हिरासत (1975-76) में तीस दिनों तक पुलिस शारीरिक यातनायें देकर सरकारी गवाह बनाने तथा झूठे गुनाह कबूल करने का प्रयास मेरे साथ करती रही थी।
अर्णब को कैद करने का कारण था कि दो वर्ष पूर्व गोस्वामी ने एक गृह सज्जाकार के 83 लाख का काम कराया तथा इसका भुगतान नहीं किया। मानसिक आघात से उस सज्जाकार ने आत्महत्या कर ली। पत्र में उस संतप्त सज्जाकार ने आत्महत्या का कारण यह दिया कि बकाया राशि न मिलने पर वह जान दे रहा है। किस्सा यहीं से शुरू होता है। पुलिस द्वारा 2018 में दर्ज मुकदमे को महाराष्ट्र की तत्कालीन भाजपा-शिवसेना सरकार ने (2018 में) ही बन्द कर दिया था। गौरतलब है कि शिवसेना दो वर्ष पूर्व भाजपा के साथ सरकार में थी और आज कांग्रेस के साथ सत्ता पर बैठी है।
मुम्बई पुलिस आयुक्त परमवीर सिंह भी गत दस माह (29 फरवरी 2020) पदासीन हैं। वे मुठभेड़ विशेषज्ञ रहे। यूं तो वे सीधे आदेश लेते हैं मुख्यमंत्री उद्धव बाल ठाकरे से मगर मातहत हैं राष्ट्रवादी कांग्रेस (शरद पवार) की पार्टी के गृहमंत्री अनिल वसंतराव देशमुख के। मुख्यमंत्री के महत्वपूर्ण आदेशों को पुलिस आयुक्त ने जारी किया था कि ”अति आवश्यक कार्य के अलावा इस कोरोना काल में कोई भी मुम्बईवासी अपने आवास से दो किलोमीटर दूर तक न जायें।” पवार-पार्टी के गृहमंत्री के विरोध पर यह निर्देश निरस्त कर डाला गया। कुछ ही दिनों बाद गृहमंत्री अनिल देशमुख ने दस पुलिस उपायुक्तों का तबादला कर दिया। खिन्न उद्धव ठाकरे ने 72 घण्टे में यह आदेश भी रद्द कर डाला। अर्थात् दो घटक दलों- शिवसेना तथा राष्ट्रवादी कांग्रेस (शरद पवार) की कलह खुलकर उभर आयी।
इसी राजनीतिक दिशाहीनता का नतीजा रहा जिससे सरकार और मीडिया के बीच टकराव बढ़ा। निवर्तमान भाजपा मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस सहृदय रहे तो मीडियाजनों से समर्थन मिलता रहा। इसलिये भी उनकी सरकार चंद दिनों में ही पलट दी गयी। कट्टर हिन्दू पार्टी शिवसेना के सरताज उद्धव ठाकरे की मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा के कारण मुम्बई की मीडिया भी बंट गयी। समर्थक और आलोचक खेमों में। इसमें रिपब्लिक-टीवी के अर्णब मुखर्जी विरोध में ज्यादा आक्रामक रहे। उन्हें पटरी पर लाने के हेतु शासनतंत्र जुट गया। एक मुकदमा दो वर्ष पूर्व दर्ज हुआ था अर्णब के विरुद्ध। उनपर किसी का उधार न लौटाने का आरोप लगा। मगर देवेन्द्र फड़नवीस के राज में यह देनदारी वाली रपट समाप्त कर दी गयी। जब ठाकरे से कलह बढ़ी तो पुरानी फाइलें पलटी गयीं।
फिलहाल यहां इस वारदात से निष्पक्ष मीडिया के संदर्भ में कुछ अति महत्वपूर्ण सिद्धांत गौरतलब बन गये। सर्वप्रथम यह कि क्या पुराने कानूनी तौर बन्द कर दिये गये मुकदमे की दोबारा जांच की जा सकती है? इसी सवाल को इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स (आईएफडब्ल्यूजे) के राष्ट्रीय विधि परामर्शदाता तथा उच्चतम न्यायालय में एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड अश्विनी कुमार दुबे ने रिपब्लिक टीवी को पेश की। प्रश्न था कि क्या बिना अदालत के आदेश के पुलिस किसी बन्द मुकदमे को खोलकर दोबारा जांच चालू कर सकती है?
फिर मसला यह है कि शिवसेना का गत चार दशकों से मीडिया के हनन और भेदभाव का रुख रहा। बाल ठाकरे अपने दैनिक ”सामना” द्वारा निष्पक्ष दैनिक (मराठी और हिन्दी) ”महानगर” को खत्म करने में जुटे रहे। प्रतिष्ठित संपादक निखिल वागले तो शिवसेना के घोर विरोधी रहे। उनपर तथा उनके साथी युवराज रोहित तथा प्रमोद निर्गुडकर पर अक्सर घातक हमले होते रहे। इसी ”सामना” दैनिक में सांसद और संपादक संजय राउत लिख चुके हैं कि भारतीय मुसलमानों को मताधिकार से वंचित कर दिया जाये। आज इसी संजय राउत का खुलेआम समर्थन सोनिया-कांग्रेस तथा पवार-कांग्रेस व शिवसेना को मिल रहा है।
‘अर्णब काण्ड” इन घटकों की टकराहट का शिकार है। मसलन महाराष्ट्र में रिपब्लिक टीवी को खत्म करना सरकार की प्राथमिकता है। अत: इस पृष्ठभूमि में प्रश्न ये है कि कानून की प्रक्रिया के तहत संपादक को दण्डित करने का प्रावधान क्यों नहीं अपनाया गया? उनके घर में तड़के घुसकर पकड़ ले जाना, धक्का-मुक्की करना, परिवार को आघात पहुंचाना, एक स्कूल को जेल घोषित कर अर्णब गोस्वामी को रात बिताने हेतु विवश करने के बजाये उन्हें पुलिस समन देकर पूछताछ कर सकती थी। पत्रकार के साथ एक अपराधी-सा व्यवहार करना अनुचित है। मुख्य दण्डाधिकारी (महिला) ने पुलिस की मांग खारिज कर दी कि अर्णब को पुलिस की हिरासत में दो सप्ताह दे दिया जाये। उन्होंने न्यायिक हिरासत में रखने का आदेश दिया जहां वे कोर्ट के संरक्षण में रहेंगे।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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