– डॉ.अरुण कुमार
वर्ष 2014 से 25 सितम्बर पूरे देश में ‘अंत्योदय दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। अंत्योदय यानि समाज के गरीब से गरीब व्यक्ति का कल्याण। यह सुप्रसिद्ध विचारक एवं चिंतक दीनदयाल उपाध्याय का जन्म दिवस है। नीति निर्धारण में समाज के गरीब से गरीब व्यक्ति के कल्याण का दर्शन दीनदयाल जी ने 1950 के दशक में दिया। वे कहा करते थे कि सरकार में बैठे नीति-निर्माताओं को कोई भी नीति बनाते समय यह विचार करना चाहिए कि यह नीति समाज के अंतिम व्यक्ति यानि सबसे गरीब व्यक्ति का क्या भला करेगी? इसी मंत्र का पालन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार कर रही है।
‘अंत्योदय’ दीनदयाल जी के अन्तःकरण की आवाज थी। इसका प्रमुख कारण था उनके द्वारा बचपन से ही गरीबी और अभाव को झेलना। ढाई साल की आयु में पिता का साया उठ गया और सात साल की आयु में माता भी चल बसीं। माता-पिता की छत्रछाया से वंचित होकर बचपन से ही वे रिश्तेदारों के आश्रय में शिक्षा के लिए भटकते रहे। नाना के पास गये तो दस साल की आयु में नाना का भी निधन हो गया। उसके बाद मामा के घर गये तो 15 साल की आयु में मामी का निधन हो गया। 18वें साल में छोटे भाई का मोतीझरा के कारण निधन हो गया। जब दसवीं पास की तो एकमात्र सहारा नानी भी चल बसीं। बाद में ममेरी बहन के पास रहने लगे तो एम.ए. की पढ़ाई करते हुए बहन का भी निधन हो गया और इस कारण एम.ए. फाइनल की परीक्षा नहीं दे सके। 25 वर्ष की आयु तक वे 11 स्थानों पर रहे और इस तमाम तरह के कष्ट झेले। उनकी असामान्य मेधाशक्ति के पीछे जो अतिसंवेदनशील अंतःकरण था वह गरीबी की पीड़ा को समझता था। इसीलिए उन्होंने अपनी अथवा अपने परिवार की गरीबी मिटाने की बजाए पूरे देश की गरीबी मिटाने का प्रयास किया।
राष्ट्रश्रम ही राष्ट्रधर्म
दीनदयाल जी का आर्थिक चिंतन केवल किताबी और मध्यमवर्ग की विलासिता के उपकरण तैयार करने तक सीमिति नहीं था। जनसंघ की स्थापना के तुरंत बाद उनके आर्थिक चिंतन का निचोड़ उनकी पुस्तक ‘भारतीय अर्थनीतिः विकास की एक दिशा’ में सामने आया है, जिसमें उनकी प्रमुख चिंता यह है कि ‘हर हाथ को काम’ और ‘हर खेत को पानी’ कैसे मिले। न्यूनतम मानवीय आवश्यकता के सिद्धांत को उन्होंने अपनी जीवन शैली में भी प्रत्यक्ष उतारा। कार, वातानुकूलित कक्ष और कंप्यूटरों की कृत्रिम दुनिया से अलग हटकर समाज के अंतिम व्यक्ति की जिंदगी के नजदीक पहुंचना उनका लक्ष्य था। दीनदयाल जी का अंत्योदय राष्ट्रीय श्रम से प्रेरित था। वे राष्ट्रश्रम को राष्ट्रधर्म मानते थे। उनकी राय में राष्ट्रश्रम प्रत्येक नागरिक का राष्ट्रधर्म है। इसलिए कोई अलग श्रमिक वर्ग नहीं है बल्कि हम सब श्रमिक हैं। उनके आर्थिक चिंतन में हर सरकारी योजना के केन्द्र में गांव है। उनकी मान्यता थी कि स्वतंत्रता के बाद सरकार की योजनाएं ग्रामोन्मुखी न होकर नगरोन्मुखी अधिक रहीं, जिसके कारण आज गांव सूने होते जा रहे हैं तथा नगरों में रहना दूभर हो गया है। वे ग्राम और शहर के बीच संतुलित संबंध चाहते थे। दुर्भाग्य से, आजादी के बाद जो सरकारें आईं उनके चिंतन में यह भाव नहीं दिखा।
अंत्योदयी योजक
दीनदयाल जी मानते थे कि समष्टि जीवन का कोई भी अंगोपांग, समुदाय या व्यक्ति पीड़ित रहता है तो वह समग्र यानि विराट पुरुष को विकलांग करता है। इसलिए सांगोपांग समाज-जीवन की आवश्यक शर्त है अंत्योदय। मनुष्य की एकात्मता तब आहत हो जाती है जब उसका कोई घटक समग्रता से पृथक पड़ जाता है। इसलिए समाज के योजकों को अंत्योदयी होना चाहिए। दीनदयाल जी ने एकात्म मानव के अंत्योदय दर्शन को अपने व्यवहार में जीया। ‘पराशर’ उपनाम से ‘पांचजन्य’ में प्रकाशित अपने स्तंभ ‘विचार-वीथी’ में उन्होंने 11 जुलाई, 1955 को मानव श्रम एवं नवीन तकनीक के संबंध में लिखाः ”नवीन तकनीक का प्रश्न जटिल है तथा केवल मजदूरों तक सीमित नहीं है, अपितु अखिल भारतीय है। वास्तव में तो बडे़ उद्योगों की स्थापना एवं पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का आधार ही अभिनवीकरण है। आज का विज्ञान निरंतर ऐसे यंत्रों के निर्माण का प्रयास कर रहा है जिनके द्वारा मनुष्यों का कम से कम उपयोग हो। जहां जनसंख्या कम है तथा उत्पादन के लिए पर्याप्त बाजार है, वहां नये यंत्र वरदान सिद्ध होते हैं। हमारे यहां हरेक नया यंत्र बेकारी लेकर आता है।”
इसी स्तंभ में 18 जुलाई, 1955 को वे दुकानविहीन विक्रेताओं का सवाल उठाते हुए हैंः ‘दुकानदारों में ज्यादा संख्या ऐसे लोगों की है, जो बिना किसी दुकान के खोमचों, रेहड़ियों तथा ठेलों के सहारे अपनी जीविका चलाते हैं। दिल्ली नगरपालिका के उपनियमों के अनुसार इन लोगों को पटरियों पर बैठकर सामान बेचने की अनुमति नहीं है। दिल्ली के अधिकारियों के सामने ट्रैफिक की ज्यादा समस्या है, क्योंकि इन पटरीवालों और खोमचेवालों के कारण सड़क पर इतनी भीड़ हो जाती है कि मोटर आदि का निकलना ही दुष्कर हो जाता है। फिर दुकानदारों को भी शिकायत है। सामने पटरी पर बैठे व्यापारियों के कारण उनकी दुकानदारी में बाधा पहुंचती है। नगर के सौन्दर्य का भी प्रश्न है। टूटे-फूटे ठेलों और गंदे खोमचों से राजधानी की सड़कों का सौन्दर्य मारा जाता है। फलतः दिल्ली सरकार ने पटरीवालों के खिलाफ जोरदार मुहिम छेड़ दी।’ अपने इसी स्तंभ में दीनदयाल जी गरीब खोमचेवालों व पुलिस के व्यवहार, उनकी हीनग्रंथियों व उससे जनित मनोविज्ञान का वर्णन करते हुए आगे लिखते हैं,’आज देश में जिस प्रकार भूमिहीन किसानों की समस्या है, वैसे ही दुकानहीन व्यापारियों की समस्या है। हमें उनका हल ढूंढ़ना होगा।’
बात सिर्फ अखबार में स्तंभ लिखने तक ही नहीं, बल्कि 1956 में विंध्यप्रदेश जनसंघ प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक में दीनदयालजी के निर्देश पर 1956 में हीरा खदान मालिकों के विषय में एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किया गया। उस प्रस्ताव में कहा गया, ‘कार्यसमिति ने पन्ना-हीरा खदान जांच समिति की रिपोर्ट पर संतोष व्यक्त किया। समिति ने कहा कि जनसंघ उक्त जांच समिति द्वारा सुझाए गये इस प्रस्ताव से कि सरकार और जनता दोनों के सहयोग से एक स्वतंत्र निगम बनाया जाए, के पक्ष में है। कार्यसमिति ने हीरा खदानों के लीज होल्डरों को मुआवजा देने का तीव्र विरोध किया और कहा कि उन लीज होल्डरों ने मिनरल कंसेशन रूल की धारा 48 व 51 का उल्लंघन किया है। अतः धारा 53 के अनुसार उनकी लीज जब्त होनी चाहिए’।
‘अंत्योदय’ की बात करते हुए दीनदयाल जी देश की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के भारतीयकरण की भी बात करते हैं। नवम्बर 1955 में पिलानी शेखावटी जनसंघ सम्मेलन में उद्घाटन भाषण देते हुए उन्होंने कहा, ‘देश का दारिद्रय दूर होना चाहिए, इसमें दो मत नहीं, किन्तु प्रश्न यह है कि यह गरीबी कैसे दूर हो? हम अमेरिका के मार्ग पर चलें या रूस के मार्ग को अपनाएं अथवा यूरोपीय देशों का अनुसरण करें? हमें इस बात को समझना होगा कि इन देशों की अर्थव्यवस्था में अन्य कितने भी भेद क्यों न हों, इनमें एक मौलिक साम्यता है। सभी ने मशीनों को ही आर्थिक प्रगति का साधन माना है। मशीन का सर्वप्रधान गुण है कम मनुष्यों द्वारा अधिकतम उत्पादन करवाना। परिणामतः इन देशों को स्वदेश में बढ़ते हुए उत्पादन को बेचने के लिए विदेशों में बाजार ढूंढ़ने पडे़। साम्राज्यवाद-उपनिवेशवाद इसी का स्वाभाविक परिणाम बना। इस राज्य-विस्तार का स्वरूप चाहे भिन्न-भिन्न हो, किन्तु क्या रूस को, क्या अमेरिका को तथा क्या इंग्लैंड को, सभी को इस मार्ग का अवलम्बन करना पड़ा। हमें स्वीकार करना होगा कि भारत की आर्थिक प्रगति का रास्ता मशीन का रास्ता नहीं है। कुटीर उद्योगों को भारतीय अर्थनीति का आधार मानकर विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था का विकास करने से ही देश की आर्थिक प्रगति संभव है।
अल्प रोजगार भी बेकारी समान
आज विश्व की जनसंख्या करीब 7.8 अरब है, जिसमें करीब 60 करोड़ आबादी (2019 में)वंचित है। आज दुनिया में करीब 82 करोड़ लोग भूखे सोते हैं। भारत में यह संख्या करीब 20 करोड़ है। मनुष्यों के अलावा दुनिया में पशु-पक्षी और कीट-पतंग भी हैं। उनकी भी तो चिंता करनी होगी। इसलिए वैश्वीकरण और केन्द्रीयकरण जैसी बातें तब तक स्वीकार्य नहीं हो सकती जब तक विश्व में एक भी व्यक्ति वंचित है। दीनदयाल जी अंत्योदय के लिए लोकतंत्र को आवश्यक मानते हैं क्योंकि इससे राजनीति में समाज के अंतिम व्यक्ति की सहभागिता का आश्वासन मिलता है। इसी प्रकार वे आर्थिक लोकतंत्र को भी परम आवश्यक मानते हैं। वे कहते हैं, ‘प्रत्येक को वोट जैसे राजनीतिक प्रजातंत्र का निकष है, वैसे ही प्रत्येक को काम आर्थिक प्रजातंत्र का मापदंड है।’
दीनदयाल उपाध्याय का चिंतन जहां समाज के गरीब से गरीब व्यक्ति के कल्याण की बात करता है वहीं प्रत्येक क्षेत्र में देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए भी प्रेरित करता है। उनका चिंतन देश और समाज के समग्र विकास की गीता है।
(लेखक, हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय में दीनदयाल उपाध्याय अध्ययन पीठ के अध्यक्ष हैं।)
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