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    असम में शांति और विकास की एक और पहल

  • September 06, 2021

    – सियाराम पांडेय ‘शांत’

    हथियार उठाना आसान है लेकिन हथियार डालना कठिन। अलगाववाद के मुकाबले एकजुटता का जो सुख है, उसकी किसी अन्य सुख से तुलना नहीं की जा सकती। असम के उग्रवादी संगठनों को भी यह बात समझ में आने लगी है कि हथियार उठाना किसी भी समस्या का स्थायी समाधान नहीं है। इससे फायदा कम, नुकसान ज्यादा होता है। विकास के लिए शांति ही वांछित है। असम के कार्बी आंगलोंग क्षेत्र में उग्रवादी संगठनों और सरकार के बीच हुए शांति समझौते को कमोबेश इसी रूप में देखे जाने की जरूरत है।

    केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के नेतृत्व में केंद्र सरकार, राज्य सरकार और पांच उग्रवादी संगठनों केएएसी, कार्बी लोंगरी नॉर्थ कछार हिल्स लिबरेशन फ्रंट, पीपुल्स डेमोक्रेटिक काउंसिल ऑफ कार्बी लोंगरी, यूनाइटेड पीपुल्स लिबरेशन आर्मी और कार्बी पीपुल्स लिबरेशन टाइगर्स ने शांति समझौते पर हस्ताक्षर कर नए सिरे से असम का भाग्य लिखने का श्रीगणेश किया है। उम्मीद की जा सकती है कि इससे पूर्वोत्तर खासकर कार्बी आंगलोंग में शांति की स्थापना तो होगी ही, सर्वांगीण विकास का पथ भी प्रशस्त होगा। एक हजार उग्रवादियों ने आत्मसमर्पण कर समाज की मुख्यधारा में शामिल होने का जो साहस प्रदर्शित किया है, वह काबिले तारीफ है।

    केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने विश्वास जाहिर किया है कि कार्बी समझौता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘उग्रवाद मुक्त समृद्ध पूर्वोत्तर’ के दृष्टिकोण में एक और मील का पत्थर साबित होगा। उन्होंने कार्बी क्षेत्र के लिए केंद्र सरकार और असम सरकार की ओर से पांच वर्षों में एक हजार करोड़ रुपये का एक विशेष विकास पैकेज देने की भी घोषणा की है। साथ ही, इस बात का भरोसा भी दिलाया है कि इस समझौते को समयबद्ध तरीके से लागू किया जाएगा।

    पूर्वोत्तर के अन्य उग्रवादी समूहों एनडीएफबी,एनएलएफटी और ब्रू समूहों के साथ पूर्व में हस्ताक्षरित इसी तरह के शांति समझौते का हवाला देते हुए उन्होंने कहा है कि हमारी सरकार समझौते करती ही नहीं, बल्कि उन्हें पूरा करने में भी यकीन रखती है। प्रधानमंत्री बनने के दिन से ही पूर्वोत्तर नरेंद्र मोदी के चिंता के केंद्र में है। पूर्वोत्तर में शांति, समृद्धि और सर्वांगीण विकास उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता रही है। उन्होंने इस बात की प्रतीति भी दिलाई है कि हथियार छोड़कर समाज और विकास की मुख्यधारा में शामिल होने वालों के साथ केंद्र और राज्य की भाजपा सरकार न केवल और अधिक विनम्रता से पेश आती है, बल्कि उन्हें उनकी मांग से कहीं अधिक देने का भी प्रयास करती है। अपनी इसी नीति की बदौलत मोदी सरकार विरासत में मिली अनेक समस्याओं को एक-एक कर खत्म करती जा रही है।

    यह अच्छी बात है। ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती। समझौता तभी कारगर होता है जब समझौते से जुड़े सभी पक्ष अपने वायदों पर अडिग होते हैं और एक-दूसरे के हितों का ध्यान रखते हैं। समझौते में जरा सी भी ‘किंतु-परंतु’ वर्षों की मेहनत पर एक झटके में पानी फेर देती है। ऐसा न होता तो पूर्वोत्तर की अलगाववाद की समस्या कब का खत्म हो गई होती।

    रही बात कार्बी आंगलोंग की तो यहां वर्षों से उग्रवादी समूह अलग क्षेत्र की मांग को लेकर हिंसा, हत्या और अपहरण घटनाओं को अंजाम देते रहे हैं। यह समझौता असम की क्षेत्रीय और प्रशासनिक अखंडता को प्रभावित किए बिना कार्बी आंगलोंग स्वायत्त परिषद को और अधिक स्वायत्तता देगा। कार्बी लोगों की पहचान, भाषा, संस्कृति की सुरक्षा करेगा और परिषद क्षेत्र में सर्वांगीण विकास को गति देगा। सशस्त्र समूहों के कैडरों के पुनर्वास की व्यवस्था करेगा। इस लिहाज से देखें तो यह बड़ी पहल है।

    इस समझौते के तहत असम सरकार कार्बी आंगलोंग स्वायत्त परिषद क्षेत्र से बाहर रहने वाले कार्बी लोगों के विकास पर ध्यान केंद्रित करने के लिए एक कार्बी कल्याण परिषद की स्थापना करेगी। कार्बी आंगलोंग स्वायत्त परिषद के संसाधनों की पूर्ति के लिए राज्य की संचित निधि को बढ़ाएगी। कार्बी आंगलोंग स्वायत्त परिषद को समग्र रूप से और अधिक विधायी, कार्यकारी, प्रशासनिक और वित्तीय शक्तियां मिलेंगी।यह काम तो बहुत पहले ही होना चाहिए था। लंबे समय से असम में कांग्रेस का शासन रहा है। देश में कांग्रेस का शासन रहा है लेकिन इसके बाद भी उसने पूर्वोत्तर की समस्या को गंभीरता से नहीं लिया। लोगों का ध्यान बंटाने के लिए अलबत्ते उसने समझौते तो खूब किए लेकिन अमल की कसौटी पर न तो खुद को कसा और न ही समझौते में किए गए वादे निभाए।

    वर्ष 1990 के अंत में कार्बी नेशनल वॉलेंटियर्स और कार्बी पीपुल्स फोर्स ने साथ मिलकर यूनाइटेड पीपुल्स डेमोक्रेटिक सोलिडैरिटी का गठन किया था। नवंबर 2011 में यूपीडीएस ने हथियार डाल दिए थे। उसने केंद्र और असम सरकार के साथ त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। इसमें कार्बी आंगलोंग स्वायत्त परिषद को अधिक स्वायत्त बनाने और विशेष पैकेज देने की बात कही गई थी। पूर्वोत्तर में दर्जनों समझौते हुए हैं। 24 साल से शांति प्रक्रिया जारी है और इसके बाद भी अगर जमीन पर कुछ खास नहीं है तो समझा जा सकता है कि इस गंभीर समस्या के समाधान को लेकर देश में इच्छाशक्ति का कितना अभाव रहा है। आजादी के बाद से ही तमाम केंद्र सरकार विभिन्न उग्रवादी गुटों के साथ समझौते कर अपनी पीठ थपथपाती रही हैं।

    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र की भाजपा सरकार ने निचले असम के बोडो बहुल इलाकों में शांति की बहाली के लिए विभिन्न गुटों के साथ एक साल पहले एक समझौते पर हस्ताक्षर किया था। इसके बाद बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल चुनावों में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी और कुछ अन्य संगठनों के साथ मिलकर उसने बोर्ड का गठन किया था। बोडो समझौते पर उग्रवादी संगठन नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट आफ बोडोलैंड के चारों गुटों के अलावा अखिल असम बोडो छात्र संघ और यूनाइटेड बोडो पीपुल्स आर्गनाइजेशन ने हस्ताक्षर किए थे। उसके बाद सैकड़ों उग्रवादियों ने हथियार डाले और उम्मीद की जा रही थी यह तमाम संगठन अलग बोडोलैंड राज्य की मांग छोड़ देंगे, लेकिन इलाके में अब भी अलग बोडोलैंड राज्य की गूंज यदा-कदा सुनने को मिल जाती है।

    गौरतलब है कि वर्ष 1967 में बोडो आंदोलन शुरू हुआ था। वर्ष 1993 में एक समझौते के तहत बोडो प्रशासनिक परिषद का गठन किया गया था, लेकिन तीन साल बाद ही वहां दोबारा अलग राज्य की मांग उठने लगी। ज्यादातर गुटों ने समझौते को मानने से इनकार कर दिया था। उस दौरान बोडो इलाकों में बड़े पैमाने पर हिंसा और आगजनी हुई। उसके बाद वर्ष 2003 में भी एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे। वर्ष 2020 में जो समझौता हुआ, वह अपनी तरह का चौथा समझौता था।

    नागालैंड, मणिपुर और त्रिपुरा में भी अबतक हुए शांति समझौते कागजी ही साबित हुए हैं। नागालैंड में तो देश की आजादी के बाद से ही आजादी की मांग उठने लगी थी। वहां शांति बहाली के लिए वर्ष 1949, 1960 और 1975 में तीन समझौते हो चुके हैं, लेकिन अंतिम समझौते के पांच साल बाद वर्ष 1980 में राज्य में गठित नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल आफ नागालैंड 41 साल से पूर्वोत्तर में उग्रवाद का पर्याय बना हुआ है।

    जहां तक पूर्वोत्तर के सबसे चर्चित असम समझौते की बात है, उसे भी भी अब तक पूरी तरह लागू नहीं किया जा सका है। बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ के खिलाफ वर्ष 1979 से शुरू हुए इस आंदोलन के छह साल बाद 1985 में असम समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे, लेकिन इसके कई प्रावधानों को अब तक लागू नहीं किया गया है। वर्ष 2020 में इसके अनुच्छेद छह को लागू करने के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया था, लेकिन उसकी रिपोर्ट भी ठंडे बस्ते में पड़ी है। पूर्वोत्तर में अकेले मिजोरम में उग्रवाद के खात्मे के लिए वर्ष 1986 में लालदेंगा के साथ हुए मिजो समझौते को ही कामयाब कहा जा सकता है।

    केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने हाल में अपने असम दौरे पर इस बात का दावा किया था कि बोडो समझौता पूर्वोत्तर में उग्रवाद खत्म करने की शुरुआत है और इस समझौते के बाद लगता है कि असम में शांति बहाली के प्रयास और तेज हो गए हैं। गत वर्ष हुए असम के बोडो समझौते को कई उग्रवादी संगठनों को एकसाथ लाकर उन्हें मुख्यधारा में लाने वाला सबसे बड़ा समझौता अगर कहा जा रहा है, इस समझौते को बोडोलैंड टेरिटोरियल रीजन या बीटीआर अकॉर्ड कहा जा रहा है,तो इसमें गलत क्या है?

    उग्रवादी संगठनों ने अलग बोडोलैंड की मांग छोड़ दी है। बदले में केंद्र सरकार ने वादा किया है कि वह बोडो क्षेत्र को ज्यादा स्वायत्तता प्रदान करेगी और उसके विकास में केंद्र सरकार का भरपूर योगदान होगा। बोडो जनजाति की सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने में केंद्र सरकार पहल करेगी और इस बात पर नजर रखेगी कि इसे किसी तरह का नुकसान न पहुंचे। यह अपने आप में बड़ा आश्वासन है।

    इसमें शक नहीं कि बोडो उग्रवादियों के साथ पहले भी दो बड़े समझौते हो चुके हैं। 1993 में बोडोलैंड ऑटोनॉमस काउंसिल अकॉर्ड और 2003 में बोडो लिबरेशन टाइगर्स के साथ हुआ समझौता, लेकिन वर्ष 2020 के समझौते को ज्यादा बड़ा माना जा रहा है। इसके पहले बीटीआर काउंसिल में 40 सीटें थीं, जिसे बढ़ाकर 60 कर दिया गया है। 60 सीटों में से 16 सीटों को ओपन रखा गया है। इसका मतलब है कि इन सीटों पर गैरजनजातीय उम्मीदवार भी चुनाव लड़ सकते हैं। इसके अतिरिक्त बीटीआर काउंसिल में 6 नामित सदस्य भी होंगे। इसमें 2 महिला और 2 अब तक काउंसिल से बाहर रहे समुदाय को हिस्सेदारी मिलेगी। बोडो जनजाति असम की कुल जनसंख्या का करीब 5 से 6 प्रतिशत है।

    बोडो जनजाति की शिकायत रही है कि उनकी जमीन असम के दूसरे लोगों ने कब्जा ली है। उनकी सांस्कृतिक पहचान मिटाने की कोशिश हो रही है। इसी शिकायत के आधार पर वर्ष 1966 में प्लेन्स ट्राइबल काउंसिल ऑफ असम ने अलग केंद्रीय प्रांत उदयाचल की मांग की थी। अस्सी के दशक में इसके लिए उसने हिंसक आंदोलन भी छेड़ा था। वक्त के साथ अलग बोडोलैंड की मांग उठने लगी और इससे जुड़े कई उग्रवादी संगठन खड़े हो गए।

    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पता है कि लड़ता हुआ समाज तरक्की नहीं कर सकता। इसलिए वे राज्य की समस्याओं के समाधान की ईमानदार कोशिश कर रहे हैं। उनका प्रयास उग्रपंथियों को विकास की मुख्यधारा में लाने का है। हवा के अनुरूप तो सभी चलते हैं लेकिन हवा का रुख बदलने का साहस तो विरले ही कर पाते हैं। एक साल पहले और एक दिन पूर्व हुए समझौते का हासिल तो बाद में पता चलेगा लेकिन बीज बोने के बाद उसके वटवृक्ष बनने की कल्पना तो की ही जा सकती है।

    (लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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