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आंग्ल नव वर्ष की वरीयताएं

January 01, 2022

– गिरीश्वर मिश्र

नया ‘रमणीय’ अर्थात मनोरम कहा जाता है। नवीनता अस्तित्व में बदलाव को इंगित करती है और हर किसी के लिए आकर्षक होती है। अज्ञात और अदृष्ट को लेकर हर कोई ज्यादा ही उत्सुक और कदाचित भयभीत भी रहता है। यह आकर्षण तब अतिरिक्त महत्व अर्जित कर लेता है जब कोविड जैसी लम्बी खिंची महामारी के बीच सामान्य अनुभव में एकरसता और ठहराव आ चुका हो। पर काल-चक्र तो रुकता नहीं और सारा वस्तु-जगत बदलाव की प्रक्रिया में रहता है। गतिशील दुनिया में द्रष्टा की दृष्टि और और सृष्टि दोनों ही परिवर्तनशील हैं और परिवर्तन में संभावनाओं की गुंजाइश बनी रहती है। इसलिए नए का स्वागत किया जाता है। आंग्ल नव वर्ष की आहट सुनाई पड़ रही है। इस घड़ी में सबका स्वागत है।

इस अवसर पर देश की स्थिति पर गौर करते हुए वे अधूरे काम भी याद आ रहे हैं जो देश और समाज के लिए अनिवार्य एजेंडा प्रस्तुत करते हैं। कोविड-19 महामारी के के घाव अभी भी हरे हैं और उनके दूरगामी प्रभाव की अनदेखी नहीं की जा सकती, विशेषत: अनाथ हुए बच्चों की देख-भाल एक बड़ी चुनौती है। विस्थापन और रोजगार के अवसरों को उपलब्ध कराने पर भी ध्यान देना जरूरी होगा। आर्थिक मोर्चे पर उदारतापूर्वक कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं ताकि सकारात्मक बदलाव आए और उसके अच्छे परिणाम भी दिख रहे हैं। विदेशी मुद्रा भण्डार आज बहुत अच्छी स्थिति में है, जीएसटी संकलन में सुधार दर्ज हो रहा है और जीडीपी आठ प्रतिशत के करीब अनुमानित है।

बेरोजगारी और मंहगाई के मुद्दे जन जीवन के लिए त्रासदी बने हुए हैं। कृषि उत्पादन कुछ क्षेत्रों को छोड़ प्राय: संतोष जनक है परन्तु किसानों की समस्याओं का समाधान अभी भी प्रतीक्षित है। राष्ट्रीय राजमार्गों और मेट्रो का विस्तार ये अच्छे संकेत हैं पर औद्योगिक उत्पादन अभी भी अपेक्षित स्तर से कम है। आर्थिक सुधारों और व्यापार का सुभीता बढ़ाने के लिए नियम कानून में बदलाव जरूरी है। सामरिक दृष्टि से सीमा पार और आतंरिक चुनौतियों का स्वरूप जटिल हो रहा है और इस मोर्चे पर सजगता जरूरी है। आर्थिक अपराधियों पर शिकंजा कसा जा रहा है और भगोड़ों की संपत्ति बेच कर वसूली भी हो रही है। पर परिस्थितियाँ कितनी जटिल हैं इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि साल के अंतिम सप्ताह में कानपुर के एक व्यापारी के घर से छापे में एक सौ पचहत्तर करोड़ रुपये की नगदी बरामद हुई। यदि यह आर्थिक कदाचरण का नमूना है तो इसके निहितार्थ नैतिक और चारित्रिक गिरावट को व्यक्त करते हैं। इसके लिए सख्त और कारगर कदम उठाने जरूरी होंगे।

बाढ़, तूफ़ान और भू स्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं के चलते भी देश के कई क्षेत्रों में विनाश हुआ है। पहाड़ों की पारिस्थतिकी में बड़े बदलाव आ रहे हैं। ग्लेशियर राह बदल रहे हैं और पीछे खिसक रहे हैं तथा पहाड़ों में दरारें पड़ रही है। हर साल कई क्षेत्रों में बाढ़ आती है, फसलें बर्बाद होती हैं लोग बेघर होते हैं पर फौरी इंतजाम के बाद स्थायी इलाज की कोशिश धरी रह जाती है। प्राकृतिक क्षेत्र में मनुष्य के बढ़ते हस्तक्षेप से पर्यावरण असंतुलन बढ़ रहा है और संभावित दुर्घटनाओं को देखते हुए आपदा-प्रबंधन की दृष्टि से जहां अधिक तैयारी जरूरी हो गई है वहीं विकास की योजनाओं के सावधानी के साथ पुनर्मूल्यांकन की जरूरत भी है ताकि भविष्य में खतरों से सुरक्षित रखा जा सके। पुनर्निर्माण और पुनर्वास की प्रक्रिया में सभी जुटे हुए हैं और उसे जारी रखना होगा और पर्यावरण संरक्षण के ज्यादा कारगर उपाय करने होंगे।

स्वास्थ्य के क्षेत्र में देश की चुनौतियां विकराल होने जा रही हैं। कोरोना के नए तेजी से फ़ैलाने वाले संस्करण ओमिक्रोन की दस्तक चिंताजनक है और उससे निपटने के लिए व्यापक तैयारी जरूरी है। यह राहत की बात है कि देश में 140 करोड़ लोगों को करोना का टीका लग चुका है। बूस्टर डोज और बड़े बच्चों के लिए टीकाकरण के लिए प्रधानमंत्री की घोषणा कोरोना से लड़ाई में मददगार होगी। स्वास्थ्य -सुविधाओं की मुश्किल, दवाओं की किल्लत और अस्पतालों की शोषक वृत्ति पर नियंत्रण करने की सख्त जरूरत है। आयुष विभाग की योजनाओं और स्वास्थ्य के बीमा की व्यवस्था शुरू हुई है पर व्यवस्था की कमियों के चलते उसका उसका समुचित लाभ नहीं पहुच पा रहा है। दूसरी ओर जीवन शैली से जुड़े रोगों जैसे ह्रदय रोग, कैंसर, मधुमेह और मोटापा आदि के विरुद्ध जन-जागरण का अभियान जरूरी होगा। अत: स्वास्थ्य-साक्षरता का सघन अभियान चलाना होगा। इसी से जुड़ी एक महत्व की खबर यह भी है कि संसद ने लड़की के विवाह की आयु बढ़ा कर 21 वर्ष कर दिया है। आशा है कि इसके अच्छे परिणाम होंगे।

गौरतलब है कि वायु-प्रदूषण और पराली जलाने से उपजा स्मॉग पिछले कई सालों से सबको परेशान कर रहा है और श्वांस रोग तेजी से बढ़ रहा है। राजधानी दिल्ली के पर्यावरण की गुणवत्ता निरंतर घट रही है। बढ़ती जनसंख्या का दबाव और सत्ता के केंद्रीकरण के चलते देश भर से लोगों की आवाजाही दिल्ली की मुश्किलों को बढ़ाता जा रहा है। दिल्ली सरकार बार-बार महानगर के उद्धार के लिए वादा तो करती है पर ज्यादा कुछ हो नहीं पाता है। दिल्ली के निकट यमुना गंदा नाला का रूप ले चुकी है और धर्मप्राण जनता उसी गंदगी में छठ व्रत करती है। यह स्थिति घोर राजनीतिक तटस्थता और व्यवस्था की दयनीय बेचारगी को व्यक्त करती है। इस सिलसिले में दिल्ली के मुख्यमंत्री का कहना कि ‘इस बार मलयुक्त यमुनाजल में स्नान कर ले सन 2025 में वे निर्मल यमुना कर देंगे और जनता के साथ स्नान करेंगे’ विशेष अर्थ रखता है। उपेक्षित धर्म स्थानों के उद्धार के क्रम में अयोध्या और विश्वनाथ धाम काशी पर विशेष ध्यान दिया गया है। केदार धाम के पुनर्वास और जीर्णोद्धार का काम भी सराहनीय हुआ है। इन और ऐसे ही अन्य स्थलों की व्यवस्था को चाक-चौबंद रखना बड़ी जिम्मेदारी है।

चुनाव, सत्ता हथियाने की लालसा और उससे जुड़े पैंतरे देश-सेवा की जगह कमाऊ व्यवसाय का रूप लेती राजनीति को ही उजागर कर रहे हैं। कुछ संयोग ऐसा बनता रहा है कि देश में चुनाव लगातार हो रहे हैं और राजनैतिक दलों कि व्यस्तताएं देश और समाज के मूल सरोकारों से बिछुड़ जाती हैं। संसद के विगत दो सत्रों में विपक्ष का रवैया निराश करने वाला रहा। संसद का काम-काज बाधित होता रहा और समाज के बीच राजनेताओं की साख भी घटी। निर्वाचन आयोग की इस ताकीद से कि राजनैतिक दलों को किसी दागी नेता को चुनाव में प्रत्याशी बनाने के लिए उचित कारण बताने होंगे स्वच्छ राजनीति की कुछ आशा बंधती है। आज कमजोर विपक्ष किंकर्तव्य विमूढ़ हो रहा है। निजी आक्षेप, बदला, बाहुबल का उपयोग और वंशवाद के इर्द-गिर्द ही राजनैतिक कार्यक्रम चल रहे हैं। यह चिंता की बात है कि राज-काज और सामाजिक जीवन में व्यवधान पैदा करने वाली घटनाएं बढ़ रही हैं। आन्दोलनों की नई शैली में राष्ट्रीय राजमार्ग जैसे सार्वजनिक स्थानों पर साल-साल भर जम जाना भी शामिल हो चुका है जिससे आम आदमी को आवागमन में ढेरों मुश्किलों का सामना करना पड़ा। इसमें हुए अकूत नुकसान की भरपाई संभव नहीं है। भविष्य में इस तरह की परिस्थिति से बचने के लिए प्रभावी उपाय जरूरी हैं। प्रगति के लिए राजनीति की संस्कृति में बदलाव लाना आवश्यक होगा।

कहना न होगा कि देश के जीवन को प्राणवान बनाने में शिक्षा की प्रमुख भूमिका होती है। यह सामाजिक परिवर्तन का सशक्त माध्यम है और भविष्य को गढ़ने का अवसर भी है। भारत, जो कभी वैश्विक ज्ञान केंद्र था, अब मेधावी छात्रों के लिए अनाकर्षक होता जा रहा है, यहाँ की संस्थाएं घोर उपेक्षा से जूझती रही हैं, और पाठ्य चर्या की भारत के लिए प्रासंगिकता प्रश्नांकित हो रही है। अनुकरणमूलक होने और विषयवस्तु और प्रक्रिया की कमजोरी, अनुपयोगिता या निस्सारता के चलते शैक्षिक जगत में कुंठा बढ़ रही है। मौलिक अधिकार (आरटीई ) होने के बावजूद शिक्षा के अवसर सबको मुअस्सर नहीं हो रहे। आज आर्थिक स्थिति से जुड़ गए हैं। हर स्तर पर भारतीय शिक्षा संस्थाओं की कई-कई जातियां, उप जातियां और वर्ग, उपवर्ग बनते गए हैं। शिक्षा में हायरार्की के चलते अकादमिक रुचि में बड़ा फेरबदल आया है। नई शिक्षा नीति के तहत इन प्रश्नों पर ध्यान गया है पर इक्कीसवीं सदी के लिए भारत की तैयारी के लिए जिस तरह की गहन संलग्नता की तत्काल जरूरत है उसके लिए उसकी कार्य योजना पर बिना समय गंवाए अमल जरूरी है।

अंग्रेजों के औपनिवेशिक परिवेश ने भारत की जीवन-पद्धति को उसकी शिक्षा-व्यवस्था और शासन प्रणाली को अपने लाभ के लिए गैर भारतीय सांचे में ढाला। इसके फलस्वरूप हम पराई दृष्टि से स्वयं को और दुनिया को देखने के अभ्यस्त होते गए। उधार ली गई विचार की कोटियों के सहारे बनी यथार्थ की समझ और उसके मूल्यांकन की कसौटियों के चलते एक स्वतंत्र देश होने पर भी मानसिक बेड़ियों से मुक्ति न मिल सकी। हम जो पाश्चात्य देसी था उसी को सार्वभौम मान बैठे। स्वार्थकेंद्रित भौतिकवाद और उपयोगितावाद की सीमाओं को बापू ने तो ‘हिंद स्वराज’ में वर्ष 1909 में ही व्यक्त किया था और वे अपने रचनात्मक कार्यक्रमों से आर्थिक, शैक्षिक, सामाजिक और नैतिक जीवन का स्वदेशी मार्ग भी दिखा रहे थे। पर स्वतंत्र देश में इस सोच को अव्यावहारिक मान सिरे से ख़ारिज कर दिया गया। नए भारत के लिए नीति निर्माण और योजना की वैचारिक प्रेरणा का केंद्र पश्चिम हो गया और जल्दी से जल्दी पश्चिम जैसा विकसित बनाना हमारा लक्ष्य बन गया।

औपनिवेशिकता के तारतम्य में वैश्वीकरण की आड़ में पश्चिमी देशों के नव उपनिवेशवाद से वह और पोषित संबर्धित हो रहा है। आज हम देश को जहां खड़े पा रहे हैं और जिन समस्याओं से जूझ रहे हैं उनका एक मुख्य कारण अपने स्वभाव के विरुद्ध पराई दृष्टि केअनुसार जीवन-चर्या अपनाना है। देश को सशक्त और आत्मनिर्भर बनने के लिए स्वदेशी अर्थात अपने स्वभाव और अपनी जरूरत के मुताबिक़ देशज व्यवस्था, ज्ञान संपदा और जीवन पद्धति की ओर जाता है। यह लोक को सशक्त बना सकता है और उससे रोज़गार के अवसर भी बढ़ते हैं और पलायन की समस्या भी हल होती है। स्वदेशी की दृष्टि अपनाने से ही पूर्ण स्वाधीनता मिल सकेगी। नए साल में इन चुनौतियों की ओर ध्यान देना होगा।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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